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Rated: E · Other · Emotional · #1240082
Hindi poems, mainly ghazals, in Hindi script




५५१. कलम चल रही है-- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ३-१०--०६ को प्रेषित


कलम चल रही है
गज़ल ढल रही है

कोई आस दिल में
अभी पल रही है

खुशी आज है जो
न वो कल रही है

कमी आज तेरी
बहुत खल रही है

वो भोली सी सूरत
हमें छल रही है

तेरे प्यार की लौ
अभी जल रही है

घड़ी मौत की क्यों
खलिश टल रही है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ अक्तूबर २००६





५५२. कौन हो तुम-- ११ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ११-१०-०६ को प्रेषित


कौन हो तुम पहचान नहीं फिर भी लगते हो अपने
तुम्हें देख मन लगा देखने कितने सुन्दर सपने

यहां वहां सब बन्द हो गया मेरे मन का फिरना
हटती नहीं दॄष्टि चेहरे से पलकें भूलीं गिरना

तुम तो पास नहीं लेकिन है याद तुम्हारी दिल में
प्राण बसे हैं गोरे गालों के एक काले तिल में

जाने कब मिलना होगा कब समय सुहाना आए
कहीं प्रतीक्षा में ही मेरा प्राण निकल न जाए

मन कहता है सजन एक दिन यह अन्तर कम होगा
इस या उस दुनिया में मिलना कहीं किसी क्षण होगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
५ अक्तूबर २००६

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५५३. मन में भाव बहुत आते हैं कविता नहीं कलम पर आती-- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ५-१०--०६ को प्रेषित


मन में भाव बहुत आते हैं कविता नहीं कलम पर आती

दु:ख हॄदय में बहुत भरे हैं अश्रु बहुत हैं इन आंखों में
कोरा पॄष्ठ पड़ा है अक्षर किन्तु दब गये हैं राखों में
जाने क्या हो गया लेखनी कुंठित क्यों मेरी हो जाती
मन में भाव बहुत आते हैं कविता नहीं कलम पर आती

सोचा था अनबुझी प्यास को अमर एक दिन कर जाऊंगा
कलमबद्ध मैं प्रेम कहानी गीत रूप में कर पाऊंगा
स्वर तो हैं पर काश उभर के लय कोई होठों पर आती
मन में भाव बहुत आते हैं कविता नहीं कलम पर आती

यूं तो मुझे गर्व था खुद पर कविता कितनी कर लेता हूं
सब विषयों पर मुखर लेखनी पल भर में ही कर लेता हूं
मेरे अपने दिल की पीड़ा शब्दों में क्यों न झर पाती
मन में भाव बहुत आते हैं कविता नहीं कलम पर आती.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
५ अक्तूबर २००६





५५४. अगर किसी पंजाबी लड़की से मेरी शादी हो जाती-- ६ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ६-१०-०६ को प्रेषित


अगर किसी पंजाबी लड़की से मेरी शादी हो जाती
घर में गिद्धा, भन्गड़े होते धमा-चौकड़ी सी लग जाती
हिन्दी का रस पंजाबीमय उच्चारण से सब खो जाता
खसमां-नूं-खानी गाली सुन कर मेरी घिग्घी बन्ध जाती

अगर किसी बंगाली लड़की से मेरी शादी हो जाती
“रोबिन्द्रो-शोंगीत” की धुन कोने कोने घर के रम जाती
“सोंदेश” और “रोशगुल्ले” खा डायबिटीज़ मुझे हो जाता
भूल दशहरा दुर्गा पूजा ही हर साल मनाई जाती

अगर किसी मद्रासी लड़की से मेरी शादी हो जाती
अ-इ-अ-इ-य्यो और इंगे वा की ध्वनि जाने कैसे रंग लाती
इडली सांभर मिरची खा कर मुझ को पेप्टिक अल्सर होता
वह कुछ कहती मैं कुछ सुनता कलह-कालिमा सी छा जाती

यू पी वाली मिल न सकी उस का दहेज और मेरी तनख्वा
दोनों में कुछ कमी रह गयी रिश्ता होते होते अटका
पंजाबी बंगाली और मदरासी सब की शादी हो गयी
आज सोचता हूं मेघालय वाली ही मुझ को मिल जाती.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
५ अक्तूबर २००६

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५५५. मैं केवल एक विदूषक हूं -- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ६-१०--०६ को प्रेषित


मैं केवल एक विदूषक हूं
मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम

जो मन आये लिख देता हूं
बिन सोचे ही कह देता हूं
न खुद महत्व मैं देता हूं
समझो इस को मनमानी तुम
मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम

भाषा के ज्ञाता बहुत यहां
आलोचक, लेखक, कवि यहां
उन के सम्मुख मैं टिकूं कहां
समझो मुझ को बेमानी तुम
मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम

न काव्य-कला मुझ को आती
केवल तुकबन्दी ही भाती
उपवन में हूं मैं उत्पाती
समझो क्यों हूं अभिमानी तुम
मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम

साहित्य मैंने पढ़ा नहीं
जो पढ़ा उसे फिर गुना नहीं
क्या आश्चर्य कुछ लिखा नहीं
समझो जिस को मधुवाणी तुम
मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम

अज्ञानी भी रखता दिल है
है उस की जुबां, गो गाफ़िल है
उस की भी अपनी महफ़िल है
समझो न उसे अवधानी तुम
मत समझो मुझ को ज्ञानी तुम

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ अक्तूबर २००६

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५५६. दे चुके जो दिल….. -- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ७-१०--०६ को प्रेषित


धनुर्वाण क्या चले कि क्षत शरीर कर गये
वाग्वाण क्या चले कि वक्ष तक उतर गये
नैन वाण क्या चले कि जान से गुज़र गये

एक जो सिक्का गिरा तो एक पल खनक रहा
एक जाम जो पिया खुमार रात भर रहा
एक प्यार की निगाह का अक्स उम्र भर रहा

मेहरबां साकी हुई तो चन्द लमहे कट गये
मेहरबां हुआ जो दोस्त चन्द साल कट गये
मेहरबां खुदा हुआ तो जन्म जन्म कट गये

जब किताब लिख चुके तो पढ़ने वाला न मिला
जब कलाम कह चुके तो सुनने वाला न मिला
दे चुके जो दिल पलट के देने वाला न मिला.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ अक्तूबर २००६






५५७. पूछा किसी खातून ने क्या शादी हो गयी ---बिना तिथि की गज़ल, ईके को ७-१०--०६ को प्रेषित

पूछा किसी खातून ने क्या शादी हो गयी
सुनते ही दिल में प्यार की मुनादी हो गयी

पहले तो दिल में आया कि हम झूठ बोल दें
क्या लाज़मी है राज़ अपने सारे खोल दें

कह दें कि अब तलक तो इक तलाश थी ज़ारी
पर लग रहा है आ गयी निकाह की बारी

उन को बता दें खूबसूरत चान्द सी हैं वो
नाज़-ओ-अदा नज़ाकतों की खान सी हैं वो

पर चन्द लमहे बाद ही आये ज़मीं पे हम
सोचा कि पैंसठ साल का छुपायें कैसे गम

हम ने कहा कि मोहतरिमा अर्ज़ किया है
ये जाम कड़ुवा और मीठा हम ने पिया है

अब जाम खत्म हो चुका पैमाना बाकी है
दुनिया से चन्द रोज़ में अब जाना बाकी है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ अक्तूबर २००६

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५५८. चुका जाम तो क्यों खाली पैमाना ले कर खड़े हुए-- ८ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ८-१०-०६ को प्रेषित

चुका जाम तो क्यों खाली पैमाना ले कर खड़े हुए
बन्द हुआ मयखाना तो क्यों दरवाज़े पर अड़े हुए

कल को छोड़ो, जियो आज, माज़ी को तालाबन्द करो
क्यों उखाड़ना चाहते हो तुम जो मुर्दे हैं गड़े हुए

भरी जवानी हंस हंस कर जो ‘हे माँ’ कह रस्सी झूले
वही मादरेवतन के नग में हीरा बन के जड़े हुए

किसे पता है तिफ़्ल कौन सा कल का लाल जवाहर हो
आज खाक में हिन्दोस्तां के लाखों हीरे पड़े हुए

यूं तो सब मरते हैं लेकिन खलिश दूसरों की खातिर
चढ़े चन्द सूली पर और बिरले सलीब पर चढ़े हुए.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ अक्तूबर २००६

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५५९. करने का शायरी हमें ईनाम मिला है

करने का शायरी हमें ईनाम मिला है
हम सेकेरीन से हैं ये इलज़ाम मिला है

खत में भरी थी हम ने मोहब्बत की चाशनी
कड़ुवा पलट के हम को पर पैगाम मिला है

पढ़ के गज़ल हमारी पुर जज़्बात-ओ-काफ़िया
तल्खी का कहते हैं उन्हें अंज़ाम मिला है

हम ने बतौर दाद गज़ल पे गज़ल लिखी
बदले में बदकलम हैं हम को नाम मिला है

हम ने दिया था दिल को बड़े फ़ख्र-ओ-नाज़ से
दो कौड़ियों का हम को मगर दाम मिला है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अक्तूबर २००६







५६०. वो इश्क का मतलब क्या जाने जो रातों को तड़पा ही नहीं---बिना तिथि की गज़ल, ईके को ८-१०--०६ को प्रेषित

वो इश्क का मतलब क्या जाने जो रातों को तड़पा ही नहीं
वो दर्द को प्यार के क्या समझे जिस के दिल गम बरपा ही नहीं

शम्म की चमक से परवाने नज़दीक तो आते हैं लेकिन
क्या इश्क करे वो परवाना जो लौ में जला सर-पा ही नहीं

खाली बातों से क्या होगा क्या इश्क करेगा वो इंसां
मरने का ख्याल मोहब्बत में जिस के दिल में पनपा ही नहीं

बागबां अगर बनना है तो हाथों में मिट्टी लगने दो
क्यों चलें रोपने क्यारी को जब हाथों में खुरपा ही नहीं

सामान खुशी के सौ हज़ार इंसान जुटाता है लेकिन
हो खलिश खुशी क्योंकर दिल में मौला की अगर किरपा ही नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अक्तूबर २००६

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५६१. एक बार मेरे दिल को आज़माओ तो ज़रा -- ९अक्तूबर की गज़ल, ईके को ९-१०-०६ को प्रेषित


एक बार मेरे दिल को आज़माओ तो ज़रा
एक लमहा मेरे पास तुम बिताओ तो ज़रा

हम बताएंगे तुम्हें वफ़ा भी कोई चीज़ है
एक बार तुम मगर दिल लगाओ तो ज़रा

ताल दिल के साज़ पे दे रहे हैं कब से हम
नगमा कोई प्यार का तुम सुनाओ तो ज़रा

हम तुम्हारे गम उतार लेंगे अपने दिल में सब
एक बार प्यार से मुस्कराओ तो ज़रा

देख लेना तुम खलिश कि हंस के झेल लेंगे हम
प्यार में सितम सनम पहले ढाओ तो ज़रा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अक्तूबर २००६






५६२. इंसान की फ़ितरत का हाल क्या बताइये---बिना तिथि की गज़ल, ईके को ८-१०--०६ को प्रेषित

इंसान की फ़ितरत का हाल क्या बताइये
हर चीज़ को चाहता है कि अपना बनाइये

कोई दिखी जो नाज़नीं तो उस पे मर मिटे
हक गैर की दौलत पे भी अपना जमाइये

गहने हज़ार पेटियों में माना बन्द हैं
मेरी सहेली जैसा मुझे भी दिलाइये

एक दोस्त जो मिले तो हम पे यूं बरस पड़े
अपनी गज़ल से काफ़िया मेरा हटाइये

कल की खबर नहीं मगर रोता है आज तू
मत जोड़ के सामान गम अपना बढ़ाइये

रो रो के काटने से कोई फ़ायदा नहीं
झूठे ही चाहे धीमे धीमे मुस्कराइये

जाते हैं खाली हाथ यहां से सभी खलिश
सब मिल्कियत को अपनी यहीं छोड़ जाइये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ अक्तूबर २००६






५६३. अमरीका जा रहा हूं-- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ९-१०--०६ को प्रेषित


अमरीका जा रहा हूं, अमरीका जा रहा हूं

न जाने जन्म मैंने भारत में क्यों था पाया
था पाप किस जनम का हिस्से में मेरे आया
अब भाग्य को मैं अपने खुलता सा पा रहा हूं
वीसा मुझे मिला है , अमरीका जा रहा हूं

इंडिया में रह के अब तक कुछ भी नहीं मिला है
रहना यहां है झंझट गर्दिश का सिलसिला है
दर दर यहां पे नाहक धक्के मैं खा रहा हूं
डालर कमाऊंगा अब , अमरीका जा रहा हूं

कितना पुराना था अब पूरा हुआ है सपना
बनवाऊंगा वहां पर मैं ग्रीन कार्ड अपना
बन जाऊं नागरिक भी इच्छुक सदा रहा हूं
वह दिन भी काश आये , अमरीका जा रहा हूं

पत्नी का क्या है वह तो मिल जायेगी वहां भी
माता पिता का जीना निश्चित कहां यहां भी
मैं भारतीय अब तक बस नाम का रहा हूं
तुम खुश रहो खलिश मैं अमरीका जा रहा हूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ अक्तूबर २००६










५६४. मैं तुम्हें हर गाम पर तकलीफ़ ही देता रहा हूं-- बिना तिथि की गज़ल, ईके को ९-१०--०६ को प्रेषित


मैं तुम्हें हर गाम पर तकलीफ़ ही देता रहा हूं

कोई दिन ऐसा न बीता जब तुम्हें कुछ सुख दिया हो
या तुम्हारे दर्द को मैंने भी कुछ अपना लिया हो
कुछ न कुछ मैं उम्र भर तुम से सदा लेता रहा हूं
मैं तुम्हें हर गाम पर तकलीफ़ ही देता रहा हूं

स्वार्थ की सीमा नहीं यह सिद्ध मैंने कर दिखाया
तुम से अपने नाम मैंने जो तुम्हारा था लिखाया
कष्ट देने में तुम्हें सब से बड़ा नेता रहा हूं
मैं तुम्हें हर गाम पर तकलीफ़ ही देता रहा हूं

किन्तु यह दुर्भावना मेरी कदाचित न समझना
मैंने सीखा मात्र है औरों के दुखों से उलझना
दुख के बदले में दिये सुख ऐसा विक्रेता रहा हूं
मैं तुम्हें हर गाम पर तकलीफ़ ही देता रहा हूं

जो लिया तुम से सदा औरों पे मैंने है लुटाया
नैन पौंछे अन्य के अपना न इक आंसू बहाया
वास्ते औरों के किश्ती अब तलक खेता रहा हूं
पर तुम्हें लगता है मैं तकलीफ़ ही देता रहा हूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ अक्तूबर २००६







५६५. कविता करना कोई खेल नहीं यह नहीं साधना से खाली-- १० अक्तूबर की गज़ल, ईके को १०-१०-०६ को प्रेषित


कविता करना कोई खेल नहीं यह नहीं साधना से खाली
भाषा व्याकरण छन्द मात्रा व तुक न अगर इस में डाली
अंकुश न लगा अभिव्यक्ति पर जो मन में आया लिख डाला
और मुक्त छन्द का नाम उसे सुन्दर सा हम ने दे डाला

तो नहीं असम्भव सुन्दर नामकरण ही केवल रह जाये
कविता का सहज प्रवाह साधना से जो आता, रह जाये

मैं नहीं बेड़ियों का कायल स्वातन्त्र्य मुझे भी भाता है
पर छ्न्द और कविता का आपस में एक गहरा नाता है
यह नाता ही कारण है कि वेदों को श्रुति का नाम मिला
भारत को गीता रामायण और मानस का ईनाम मिला

यदि श्लोक छन्द और चौपाई या दोहे नहीं हुए होते
तो मंत्रोच्चारण और पाठ इन ग्रंथों के न हुए होते

लिखिये अपनी क्षमतानुसार हो मुक्त छ्न्द या बद्ध छन्द
कविता का रूप बने कैसा इस का न होता अनुर्बन्ध
यह किन्तु निवेदन है विनम्र कि शास्त्रीय कवि शैली का
न कीजे बन्धु तिरस्कार यह हीरा है उस थैली का

जिस में खयाल और ठुमरी हैं, हैं शहनाई सितार वादन
ओडसी भरतनाट्यम कथक हैं सब को मेरा अभिवादन

मैं साधक हूं मां सरस्वती मुझ को ऐसा वरदान मिले
विज्ञान, विधि, से परे मुझे शास्त्रीय कला का ज्ञान मिले.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ अक्तूबर २००६









५६६. उम्र के बुझते चराग देखे हैं-- १२ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १२-१०-०६ को प्रेषित

उम्र के बुझते चराग देखे हैं
मन्द पड़ते दिल के राग देखे हैं

लग के एक बार न फिर बुझ सके
इश्क की हम ऐसी आग देखे हैं

जिन को पूजा था पिला के हम ने दूध
फन हमीं पे ताने नाग देखे हैं

दिल के आईने पे आ के एक बार
जा न पाये ऐसे दाग देखे हैं

हसरतों से जो लगाये थे खलिश
वो उजड़ते हम हम ने बाग देखे हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ अक्तूबर २००६




५६७. ले के ठन्डी आह क्यों बदनाम सांसों को करूं-- १४ अक्तूबर की कविता, ईके को १४-१०-०६ को प्रेषित

ले के ठन्डी आह क्यों बदनाम सांसों को करूं
चन्द लमहे और जी, बेकार सांसों को करूं

ज़िन्दगी के देखे हैं बुझते हुए मैंने चराग
आज ठन्डी पड़ चुकी सीने में जो मेरे थी आग
दिल की जाती धड़कनों में ढूंढूं जीने का सुराग
पड़ गया हूं पीला मैं अब शाख से क्यों न झरूं
ले के ठन्डी आह क्यों बदनाम सांसों को करूं

बारहा उठता है मेरे दिल में छोटा सा सवाल
ज़िन्दगी की शाम में आता है ये मुझ को खयाल
था खुदा का नाम लेना भी मुझे अकसर मुहाल
क्यों खम्याज़ा गलतियों का आज भरने से डरूं
ले के ठन्डी आह क्यों बदनाम सांसों को करूं

एक ज़िन्दा लाश हूं अब आरज़ू कोई नहीं
दिल में कोई गम नहीं और अब खुशी कोई नहीं
रोने वाला नामलेवा भी मेरा कोई नहीं
मर गईं सब ख्वाहिशें मैं क्यों जिऊं मैं भी मरूं
ले के ठन्डी आह क्यों बदनाम सांसों को करूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ अक्तूबर २००६







५६८. त्यौहार मनाऊं मैं कैसे—२० अक्तूबर की कविता

दुनिया की आज दिवाली है
पर मेरे घर बदहाली है
पप्पू की गुल्लक खाली है
फिर दीप जलाऊं मैं कैसे
त्यौहार मनाऊं मैं कैसे

बच्चों के तनमन सूखे हैं
दो रोटी को वे भूखे हैं
दुनिया वाले सब रूखे हैं
फुलझड़ी चलाऊं मैं कैसे
त्यौहार मनाऊं मैं कैसे

उतरे हैं तारे अम्बर के
सब सजते रूप नए धर के
मुन्नी को इस शुभ अवसर के
कपड़े पहनाऊं मैं कैसे
त्यौहार मनाऊं मैं कैसे

मन मार सभी हम जीते हैं
सारे स्वादों से रीते हैं
चाय बिन चीनी पीते हैं
मिष्टान्न खिलाऊं मैं कैसे
त्यौहार मनाऊं मैं कैसे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२० अक्तूबर २००६







५६९. न रहेगा एक दिन मेरा निशां-- २९ अक्तूबर की गैर-मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ की) गज़ल, ईके को २९-१०-०६ को प्रेषित


न रहेगा एक दिन मेरा निशां
भूल जाऊंगा कि मेरा था जहां

छोड़ना दुनिया को है अब एक दिन
क्यों लगाऊं मैं भला फिर दिल यहां

मैं जहां पर जाऊंगा दुनिया से दूर
उस जहां के राज़ सब से हैं निहां

क्या खबर साथी कोई कैसा मिले
या फिरूं तनहाइयों में मैं वहां

आंख जब मुन्द जायेगी तो फिर खलिश
मैं कहां और इस जहां वाले कहां.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ अक्तूबर २००६

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५७०. क्यों प्रिये सपने दिखाती हो मुझे-- ३० अक्तूबर की गज़ल, ईके को ३०-१०-०६ को प्रेषित


क्यों प्रिये सपने दिखाती हो मुझे
मन्द मुस्का के लुभाती हो मुझे

मैं तो हूं मदहोश पहले ही प्रिये
और दीवाना बनाती हो मुझे

मैं गमेदुनिया से हो जाऊं जुदा
तान ऐसी क्यों सुनाती हो मुझे

पास हो के पास न आओगी तुम
ऐसे ख्यालों से डराती हो मुझे

क्या कभी दो दिल बनेंगे एक ये
या खलिश यूं ही सताती हो मुझे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२९ अक्तूबर २००६



५९१. सनद वो सरेआम दिखला रहे हैं—बिना तिथि की गज़ल, ईके को १३-११-०६ को प्रेषित


सनद वो सरेआम दिखला रहे हैं
धता वो वकीलों को बतला रहे हैं.

करेंगे वफ़ा दस्तखत यूं करा के
वो इकरारनामे पे इठला रहे हैं

मोहब्बत की दुनिया से अनजान हैं वो
हकीकत ज़माने पे जतला रहे हैं

कहा उन से जूड़े में जूही सजा दो
मगर फूल गैन्दे का वो ला रहे हैं

पूछा था कितना हमें चाहते हो
हुआ क्या कि सुन के वो हकला रहे हैं

छिपाने को अपनी ज़फ़ा की निशानी
कितनी कहानी वो फ़ैला रहे हैं

खलिश जान कर कि सहर हो चला है
अश्कों से रूखसार नहला रहे हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ नवंबर २००६






५९२. वो वादी में आन्धी से पत्तों का गिरना—१४ नवम्बर का नगमा, ईके को १४ नवम्बर को प्रेषित


वो वादी में आन्धी से पत्तों का गिरना,
वो सन सन की आवाज़ से तेरा डरना
वो बदली का चन्दा को ढक कर गुज़रना
वो ठन्डी हवाओं से तेरा सिहरना

मिलने की तुझ से दिनों बाट तकना
खयालों में तेरे वो रातों का जगना
परेशान हो कर वो करवट बदलना
ख्वाबों में आये तू ये चाह रखना

झुके ज़ुल्फ़ तेरी, परेशान होना
करार अपने दिल का बिना बात खोना
कभी खुद से हंसना कभी खुद से रोना
कभी लेटे जगना कभी बैठे सोना

तेरे रूठने पर वो पहरों मनाना
तेरे मानने पर मेरा रूठ जाना
नया रोज़ तेरा वो नाज़ुक बहाना
लबों ही लबों में तेरा गुनगुनाना

वादी, नदी का किनारा वही है
मौसम वही है ये मन्ज़र वही है
यादों का ख्वाबों का डेरा वही है
सभी है मगर साथ में तू नहीं है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ नवंबर २००६

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५९३. सपने तो सपने होते हैं—१५ नवम्बर की गज़ल, ईके को १५ नवम्बर को प्रेषित


सपने तो सपने होते हैं
क्यों उन के गम में रोते हैं

सपना टूटा और आंख खुली
क्यों अपनी पलक भिगोते हैं

जगने पर गर रोना है तो
इस से तो अच्छे सोते हैं

बेवजह फ़िक्र के आलम में
क्यों चैन दिलों का खोते हैं

खुशियों में कोई फूल रहे
ता-उम्र कोई गम ढोते हैं

खाली बैठा कोई खाता है
और खेत किसी ने जोते हैं

कुछ खलिश किनारा ताकें कुछ
खाते मोती को गोते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ नवंबर २००६












५९४. यू एस केन्द्रित मुक्तक—बिना तिथि की गज़ल, ईके को १३-११-०६ को प्रेषित


न सद्दाम रहा ना ओसामा रहेगा
फिर भी ज़िहादों का सामां रहेगा
मगर डूबता अब है बुश का सितारा
नहीं उस का अब हुक्मनामा रहेगा

गरीबों की रूह न बिकी डालरों से
न गुरबत ढकी रेशमी झालरों से
कुरता फटा हो, न हो मैल दिल में
आती शराफ़त नहीं कालरों से

लौटा जो मेरीन इक बैग बन के
लगे लाख तब दिल में यू एस के झटके
न स्वागत हुआ बल्कि झेली लड़ाई
मिला क्या वो आये थे क्या सोच कर के

कोई कह रहा है गधे को जिताओ
कहे कोई हाथी को वापस ले आओ
खलिश सांप है एक और नाग दूजा
है बेहतर न तुम वोट ही देने जाओ.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ नवंबर २००६
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५९५. प्यार तुम से मैं ऐसे निभाता रहा—१६ नवम्बर की गज़ल, ईके को १६-११-०६ को प्रेषित


प्यार तुम से मैं ऐसे निभाता रहा
जोर घटता रहा वक्त जाता रहा

वायदे खोखले तुम भी करते रहे
मैं भी तुम से कसम झूठी खाता रहा

जब भी शक की सुई मेरे मन में चुभी
तुम से खाली तसल्ली मैं पाता रहा

गोरे रूखसार पे काली ज़ुल्फ़ों के खम
देख नाहक ही मन को लुभाता रहा

हार हीरे के कम तुम को पड़ते गये
रात दिन काम कर मैं कमाता रहा

चार हाथों से तुम वो लुटाते रहे
जो मैं दो हाथ भर के जुटाता रहा

सामने खाई थी और पीछे कुंआ
दिल के बचने की मन्नत मनाता रहा

साथ मेरा तुम्हारा है जनमों तलक
प्यार के गीत ऐसे मैं गाता रहा

ख्वाब में जो बनाये महल थे कभी
वो ज़मीन-ए-हकीकत पे ढाता रहा

हम चले जायेंगे तुम यूं रोते रहे
आंसुओं पर हमें प्यार आता रहा

आज ये हश्र है तुम अलग मैं अलग
दरमियां झूठ का भी न नाता रहा

भूल जाऊं था हक तुम पे मेरा खलिश
ऐसी मन्ज़िल पे मैं दिल को लाता रहा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१४ नवंबर २००६

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५९६. भुलाना भी चाहें भुला न सकेंगे—१७ नवम्बर की गज़ल, ईके को १७-११-०६ को प्रेषित



भुलाना भी चाहें भुला न सकेंगे
किसी और को दिल में ला न सकेंगे

भरोसा अगर वो न चाहें तो उन को
कभी प्यार का हम दिला न सकेंगे

वादा निभायेंगे, वो जानते हैं
कसम हम को झूठी खिला न सकेंगे

क्यों आते नहीं वो है मालूम हम को
नज़र हम से अब वो मिला न सकेंगे

ज़ोर-ए-नशा-ए-निगाह अब नहीं है
मय वो नज़र से पिला न सकेंगे

हकीकत से अपनी वो वाकिफ़ हैं खुद ही
कर हम से अब वो गिला न सकेंगे.

तर्ज़—

तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे
दिलवर के दिल में धड़कते रहेंगे
[एप्रिल फ़ूल, १९६४]


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१५ नवंबर २००६

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५९७. पांव धरो धरती पर क्यों भरमाये हो—२० नवम्बर की गज़ल, ईके को २०-११-०६ को प्रेषित


पांव धरो धरती पर क्यों भरमाये हो
क्यों नभ के तारों पर आंख गड़ाये हो

कर्म करोगे तब ही फल मिल पायेगा
अकर्मण्य ही जीवन व्यर्थ गंवाये हो

रटते थे तुम पिया पिया ही पहले तो
पिया सामने आये अब शरमाये हो

सितम प्यार के किस्मत से ही मिलते हैं
माना उन के गम में बहुत सताये हो

जाने वाले कहां लौट कर आते हैं
क्यों तुम मन में झूठी आस लगाये हो

इसी सादगी पे कुर्बान खलिश हम तो
नहीं जानते ये दिल आप चुराये हो.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ नवंबर २००६








५९८. क्या कीजे दुनिया की यही रवायत है—१९ नवम्बर की गज़ल, ईके को १९-११-०६ को प्रेषित


क्या कीजे दुनिया की यही रवायत है
कमी शरीफ़ों की बद की बहुतायत है

जिन को पाला पोसा सारी उम्र सहा
वो कहते हैं हम से उन्हें शिकायत है

वक्त शायरी को है उन के पास बहुत
सिरफ़ प्यार करने में उन्हें किफ़ायत है

पास न आयें रहें सामने नज़रों के
इतनी सी ही हम को बहुत इनायत है

हिन्दुस्तानी खून रगों में है उन की
ज़न्नत दिखता जिन को आज विलायत है

मुफ़लिस हूं पर खलिश अमीरी है दिल में
थोड़े में ही मुझ को बहुत कनायत है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ नवंबर २००६







५९९. मैं कविता करता नहीं स्वयं हो जाती है—१८ नवम्बर की गज़ल, ईके को १८-११-०६ को प्रेषित


मैं कविता करता नहीं स्वयं हो जाती है
वेदना उतर कर शब्दों में रो जाती है

जब भाव उमड़ते शब्द स्वयं बन जाते हैं
क्या जानूं मैं लेखनी किधर को जाती है

कुछ लिखने बैठूं और लिखा जाता है कुछ
अभिव्यक्ति-दिशा ही मानो कुछ खो जाती है

चाहे न निभाये काव्य-नियम मेरी कविता
पाठकगण के अन्तस्तल तक वो जाती है

क्या कहिये उस कविता का निकल लेखनी से
श्रोता के कर्ण, हॄदय, जिव्हा जो जाती है

कवि के और श्रोतागण के हॄदयों की पीड़ा
किस तरह एक छोटी कविता ढो जाती है

वह कभी रुला कर हॄदय-धरा नम करती है
वेदना-हरण का बीज कभी बो जाती है

हो खलिश न श्रोता-कर-तल-ध्वनि से गुंजित पर
मेरी कविता की गूंज कहीं तो जाती है.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१७ नवंबर २००६








६००. किये हम ने उन पर करम कैसे कैसे-- २३ नवम्बर की गज़ल, ईके को २५-११-०६ को प्रेषित


किये हम ने उन पर करम कैसे कैसे
सहे हम ने उन के सितम कैसे कैसे

उफ़ न किया न ज़ुबां हम ने खोली
किये उन ने हम पे ज़ुलम कैसे कैसे

सच ही समझते रहे झूठ उन के
रखे हम ने दिल में भरम कैसे कैसे

जिस ने दिये हैं उसे क्या सुनाएं
मिले हम को संगीं अलम कैसे कैसे

मर्दों को मालूम क्या औरतों के
दिल में छिपे हैं मरम कैसे कैसे

खलिश सोचना भी है मुश्किल हुए हैं
शरीफ़ों के हाथों ज़ुरम कैसे कैसे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२० नवंबर २००६






६०१. साथी दिल मेरा लूट गया --२१ नवम्बर की गज़ल, ईके को २१-११-०६ को प्रेषित


साथी दिल मेरा लूट गया
मैं तनहा पीछे छूट गया

मन में इक सपन सजाया था
जब आंख खुली वो टूट गया

मैं जिस के भरोसे बैठा था
वो भाग ही मेरा फूट गया

न उगल सका न नीचे ही
मेरे मुंह का विष घूंट गया

न लौट के आना था उस को
वह मुझ से कह कर झूठ गया

सींचा था खलिश जतन से जो
वह किस कारण रह ठूंठ गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२० नवंबर २००६






६०२. माना कि सर के बाल सारे हो गये सफ़ेद, रंगीन अभी भी मगर दिल का मिज़ाज़ है--१ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १-१२-०६ को प्रेषित


माना कि सर के बाल सारे हो गये सफ़ेद, रंगीन अभी भी मगर दिल का मिज़ाज़ है
हम क्या जवाब दें जो हम से पूछते हैं लोग, कुछ तो बताइये जो जवानी का राज़ है

जिस को न मारा मौत ने वो फ़िक्र से मरा, होना है जो होगा भला क्या फ़िक्र में धरा
कल की ही फ़िक्र में ज़माना हो गया बूढ़ा, जीयो तो कल को भूल, मानो सिर्फ़ आज है

हसरत न कीजिये पराई देख कर दौलत, जो दूर से दिखती है वो होती है परछाई
सोने का गो बना हो और हीरों से हो जड़ा, पूछे कोई शाहों से तो कांटों का ताज़ है

इंसान पाने का जतन करता है बस वही, जिस शय की कद्र उस की आंखों में जियादा हो
रूहानी खूबसूरती कोई तलाशता, कोई है जिस को अपने ज़ुल्फ़-ओ-खम पे नाज़ है

बंसी वही सुनाती है बिरहा की तान भी, जिस से खलिश सुना रहा कोई मिलन का राग
गम या खुशी की जैसी चाहे धुन निकालिये, ये ज़िन्दगी इंसान के हाथों में साज़ है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ दिसम्बर २००६








६०३. हम को न खबर थी दुनिया में दिल की भी तिज़ारत होती है--२ दिसम्बर की गज़ल, ईके को २-१२-०६ को प्रेषित


हम को न खबर थी दुनिया में दिल की भी तिज़ारत होती है
आशिक के दिल में करूं ज़फ़ा ऐसी क्यों आदत होती है

नादान उमर, दिल भोला था हम इश्क अचानक कर बैठे
मालूम हुआ है अब हम को ये प्यार भी आफ़त होती है

माना हम मन्दिर मस्जिद में सज़दे न खुदा के करते हैं
हम प्यार जो सच्चा करते हैं ये भी तो इबादत होती है

नामुमकिन है अन्दाज़-ए-अदा उन की उल्फ़त के जान सकें
उन के सपनों में न आयें तो हम से शिकायत होती है

लाखों चलते हैं खलिश मगर मन्ज़िल कोई एक ही पाता है
न जाने क्या उन लोगों में ऐसी भी लियाकत होती है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ दिसम्बर २००६






६०४. दोस्तों की दोस्ती भी देख ली--३ दिसम्बर की गज़ल, ईके को ३-१२-०६ को प्रेषित


दोस्तों की दोस्ती भी देख ली
गम भी देखे और खुशी भी देख ली

अश्क देखे हैं जो खुशियों में बहे
गम भरी फीकी हंसी भी देख ली

गर्दिश-ए-सहरा भी हम देखा किये
वादियों की दिलकशी भी देख ली

जो थे अनजाने वफ़ा उन से मिली
बेवफ़ाई यार की भी देख ली

झौंपड़ी का इश्क भी देखा खलिश
सेज सूनी, पर सजी, भी देख ली.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
२ दिसम्बर २००६








६०५. वो जो हो गये शहीद-ए-वतन--४ दिसम्बर की नज़्म, ईके को ४-१२-०६ को प्रेषित


वो जो हो गये शहीद-ए-वतन
वो जो खो गये गुलाब -ए-चमन

वो जो चढ़ गये सूली पे हंस
जिन्हें मौत में भी आया रस

जिन की मांओं ने कष्ट झेले थे
वो जो कुल के चराग अकेले थे

जिन की यादों में मेले लगते थे
जिन के जलसों में फूल सजते थे

वो सितारों में आज सजते हैं
तारीख में ही बसते हैं

उन्हें हम आज दिल से भूले हैं
हो के आज़ाद ऐसे फूले हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ दिसम्बर २००६

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६०६. दिल का मालिक जिन्हें बना बैठे --५ दिसम्बर की नज़्म, ईके को ५-१२-०६ को प्रेषित

दिल का मालिक जिन्हें बना बैठे
जिन पे हम चैन-ए-दिल लुटा बैठे

जिन्हें उल्फ़त के राज़ बतलाये
जिन्हें अन्दाज़-ए-इश्क सिखलाये

जिन की खातिर लड़े ज़माने से
तोडे़ सारे रवाज़ पुराने से

जिन के देखा किये बहुत सपने
न रहे गैर, अब हुए अपने

मेरी दुनिया में छा गये ऐसे
हैं वही, और कुछ नहीं जैसे

आज वो मेरे पास आये हैं
तोहफ़ा-ए-दिल भी साथ लाये हैं.

उन पे कुर्बान जां खलिश मेरी
रहूं ता-उम्र बन के मैं चेरी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ दिसम्बर २००६





६०७. हम उन्हें दिल ये अपना दे बैठे बैठे—६ दिसम्बर की गज़ल, ईके को ६-१२-०६ को प्रेषित


हम उन्हें दिल ये अपना दे बैठे
आफ़तों की बहार ले बैठे

जिस में नये रोज़ तूफ़ां उठते हैं
ऐसे दरया में कश्ती खे बैठे

जाने इस प्यार की है क्या मन्ज़िल
ऊंट करवट किस ओर से बैठे

जैसे नागिन हो कोई बल खाती
ज़ुल्फ़ वो यूं संवार के बैठे

कुछ न कर पाये हम मोहब्बत में
दिल में शक यूं हज़ार थे बैठे

जो खलिश थे गरूर के पुतले
क्यों पशेमान आज वे बैठे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ दिसम्बर २००६







६०८. किसलिये उन से दिल लगा बैठे —७ दिसम्बर का नगमा, ईके को ७-१२-०६ को प्रेषित

चोट खुद अपने दिल पे खा बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे

लाख दुनिया ने हम को समझाया
है वफ़ा क्या ये हम को बतलाया
डूबती नाव में क्यों जा बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे

दिल भी टूटा वो ख्वाब भी टूटे
प्यार के वायदे रहे झूठे
वो जो भूले से मुस्करा बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे

राज़ उन के न हम समझ पाये
उन की बातों से ऐसे भरमाये
हम ये समझे वो दिल गंवा बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे

दिल ने खाया खलिश है वो झटका
अब ये आलम है बदहवासी का
मौत को पास हम बुला बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे

चोट खुद अपने दिल पे खा बैठे
किसलिये उन से दिल लगा बैठे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
४ दिसम्बर २००६









६०९. मुझे जब उन का गम तनहाई में आ के सताता है


मुझे जब उन का गम तनहाई में आ के सताता है
तभी ख्यालों में उन का चेहरा आ के मुस्कराता है

जो मैं रातों को सोता हूं तो उन से दूर होता हूं
बज़रिए ख्वाब, पर दीदार उन का हो ही जाता है

जो दिन में राह चलता हूं तो होता है गुमां मुझको
कि साया तैरता उन का हवा में साथ आता है

चमन-ओ-वादियों के बीच से जब भी गुज़रता हूं
हवा का झोंका उन की खुशबुओं को संग लाता है

वो पोशीदा रहेंगे कब तलक मुझ से खलिश आखिर
न जाने जन्म का कितने हमारे बीच नाता है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ दिसम्बर २००६






६१०. क्या सखि साजन……….ईके को भेजी बिना तिथि के, ७-१२-०६ को

कभी हैं हीरो कभी हैं ज़ीरो रंग बदलें ज्यों गिरगिट
घर में डींग बजायें बाहर वालों से जाते पिट
खेलें ऐसा खेल कमेन्ट्री जिस की होती गिटपिट
क्या सखि साजन, ना री पगली खेलन वाले किरकिट

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ दिसम्बर २००६







६११. ज़िन्दगी पर हज़ार पहरे हैं--८ दिसम्बर की गज़ल, ईके को ८-१२-०६ को प्रेषित


ज़िन्दगी पर हज़ार पहरे हैं
इस दिल पे दाग गहरे हैं

पीतल के हैं असल में जो
दिखते बड़े सुनहरे हैं

सुन के भी जो नहीं सुनते
दुनिया में सब से बहरे हैं

नकाब की ज़रूरत क्या
बदलें वो रोज़ चेहरे हैं

रस्ते में पा खलिश हम को
हो शर्मसार ठहरे हैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ दिसम्बर २००६

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६१२. मेरे मन में जितने गम थे देखा उन को देखा तो भूल गया--९दिसम्बर की गज़ल, ईके को ९-१२-०६ को प्रेषित


मेरे मन में जितने गम थे उन को देखा तो भूल गया
इक पल जो साथ मिला उन का ये मुर्झाया मन फूल गया

उन की मुस्कान कभी रोते दिल में खुशियां भर देती थी
अब मुस्काते हैं तो मानो जैसे दिल में चुभ शूल गया

अरमानों के तिनके चुन कर ख्वाबों का महल बनाया था
तूफ़ां-ए-ज़फ़ा ऐसा गुज़रा कि प्यार मेरा बन धूल गया

न होश रहा हम दीवाने यूं प्यार में उन के हो बैठे
दिल ही पूंजी थी खो बैठे न ब्याज मिला और मूल गया

है वतन खलिश भूला उस को, उस माता की कुर्बानी को
जिस का बेटा हंसते हंसते फांसी के तख्ते झूल गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ दिसम्बर २००६



सम्प—





अंधेरों में हमें रहने की आदत पड़ गई ऐसी
हमें परवाह नहीं कि रात रौशन है कि काली है

चलो कुछ तो मिला है आज उन से शुकरिया उन का
लबों से आई जो उन के लगे मीठी ये गाली है

शऊर हम को नहीं, है इश्क की दीवनगी ऐसी
शकल उजबक सी दिखती है कि ज्यों कोई मवाली है

खलिश दिलबर के राज़-ए-दिल बहुत ढूंढा किये लेकिन
छिपा कर के कहां रखी न जाने दिल की ताली है.




६१३. सितम सहने की आदत इस तरह कुछ हम ने डाली है—१० दिसम्बर की गज़ल, ईके को १०-१२-०६ को प्रेषित


सितम सहने की आदत इस तरह कुछ हम ने डाली है
चले आयें अभी गम और जगह दिल में खाली है

अंधेरों में हमें रहने की आदत पड़ गई ऐसी
हमें परवाह नहीं कि रात रौशन है कि काली है

चलो कुछ तो मिला है आज उन से शुकरिया उन का
लबों से आई जो उन के लगे मीठी ये गाली है

शऊर हम को नहीं, है इश्क की दीवनगी ऐसी
शकल उजबक सी दिखती है कि ज्यों कोई मवाली है

खलिश दिलबर के राज़-ए-दिल बहुत ढूंढा किये लेकिन
छिपा कर के कहां रखी न जाने दिल की ताली है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० दिसम्बर २००६

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६१४. जब उन्होंने दाद दी तो इतना सिर्फ़ हम कहे—११ दिसम्बर की गैर-मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ की) गज़ल, ११-१२-०६ को प्रेषित


जब उन्होंने दाद दी तो इतना सिर्फ़ हम कहे
आप का करम कलम से आज अश्क हैं बहे

है हमारे रुख पे नूर की झलक मिली उन्हें
वो क्या जानें उन के वास्ते हैं कितने गम सहे

अश्क तो बहे मगर न आग को बुझा सके
ज़ाहिराना मुस्कराते दो बिचारे दिल दहे.

हम भी थे जवान आसमान में उड़े बहुत
जब ज़मीन पर गिरे वो ख्वाब के महल ढहे

लमहे आये हैं खलिश वो ज़िन्दगी में बारहा
जब लगा कि इस जहां में हम रहे कि न रहे .

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ दिसम्बर २००६







६१५. लो चुकी ज़िन्दगी मौत का है समां -- १२ दिसम्बर की गैर-मुरद्दफ़ (बिना रदीफ़ की) गज़ल, ईके को १२-१२-०६ को प्रेषित


लो चुकी ज़िन्दगी, मौत का है समां
एक लमहा है दोनों के अब दरमियां

जो उजड़ा ज़मीं पे तो गम कुछ नहीं
अब फ़लक पर बनेगा मेरा आशियां

न हस्ती न कुछ भी है मेरा वज़ूद
क्यों रहें इस जहां में कदम के निशां

चाहे मायूस है मेरा चेहरा मगर
मेरी फ़ितरत में हैं लाख शोले निहां

अलविदा कर चला मैं जहां को खलिश
अब हुआ खत्म चाहती हैं ये दूरियां.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ दिसम्बर २००६

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६१६. वादे करना तो आसां है मुश्किल है उन्हें निभा देना

वादे करना तो आसां है मुश्किल है उन्हें निभा देना
अरमान जगाना आसां है मुश्किल है उन्हें दबा देना

दुनिया है दुश्मन आशिक की यहां कदम कदम पर पहरे हैं
आसां है करना इश्क मगर मुश्किल है इश्क छिपा देना

इस राह-ए-मोहब्बत में पल पल सौ दर्द ज़िगर में उठते हैं
रुसवाई प्यार की आसां है मुश्किल है अश्क बहा देना

सिलसिला वफ़ा का और ज़फ़ा का इक अनबूझ कहानी है
आसां है प्यार शुरू करना मुश्किल है प्यार भुला देना

जब तर्क मोहब्बत होती है तब खलिश बहुत दिल दुखता है
यादों का आना आसां है मुश्किल है याद मिटा देना.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ दिसम्बर २००६








६१७. वो प्यार तो करना चाहते हैं पर करने से कतराते हैं

वो प्यार तो करना चाहते हैं पर करने से कतराते हैं
लब हिलते हैं कुछ कहने को पर कहने से शरमाते हैं

पल भर को नज़र जो उठ जाये तो मिलते ही झुक जाती है
हम उन की अदाओं के सदके उन पर जी जान लुटाते हैं

उन के हुस्न और नज़ाकत की तारीफ़ भला कैसे कीजे
वो इंसां हैं या कोई परी ये सोच के हम भरमाते हैं

दिल की पुरज़ोर तमन्ना को उन पर ज़ाहिर कैसे कर दें
हो जायें खफ़ा न वो हम से यह सोच के हम रह जाते हैं

इज़हार न हम कर पाते हैं राहों में खलिश गर मिल जायें
पर रातों की तनहाई में दिल में सौ ख्वाब सजाते हैं.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ दिसम्बर २००६










६१८. अरमां हैं हज़ारों एक शब में ही खतम न कर-- १९ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १९-१२-०६ को प्रेषित


अरमां हैं हज़ारों एक शब में ही खतम न कर
चमन के फूल सारे एक दिन में ही कलम न कर

ये माना कि हुकूमत ही रियाया को खिलाती है
मगर ऐ हुक्मरां ऐसे तो तू हम पे ज़ुलम न कर

रोमां, तुर्क, बर्तानी, बुलन्दी छू गयी सब को
हुए सब पस्त, ताकत का मेरे आका भरम न कर

इनायत है सनम की शुक्रिया है बारहा उन को
समाए न खुशी दिल में मेरे ऐसे करम न कर

बहुत सहने की यूं तो पड़ गयी है अब खलिश आदत
ये दिल ही टूट जाये दिल पे तू ऐसे सितम न कर.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ दिसम्बर २००६









६१९. मैं भला कोयला काला हूं-- १४ दिसम्बर की कविता, ईके को १४-१२-०६ को प्रेषित


माना बाहर से काला हूं
भीतर से सीरत वाला हूं

दिन भर कोई स्वेद बहाता है
फिर चून कमा कर लाता है
कोयले पर उसे पकाता है
तब दो रोटी वह खाता है

है मेरा भाई एक बड़ा
हीरा बन चमके ताज जड़ा
कोई ताके उस को खड़ा खड़ा
उस के भ्रम में संसार पड़ा

है बड़ा भाई वह, अभिनन्दन
लेकिन सोचूं मैं मन ही मन
हीरे को तो करना धारण
ही बना दुश्मनी का कारण

मुझ में शोले की दमक छिपी
भट्टी की लौ की ललक छिपी
और अंगारों की चमक छिपी
ऊर्जा, इन सब की जनक, छिपी

माना बाहर से काला हूं
भीतर से सीरत वाला हूं

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ दिसम्बर २००६

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६२०. यही बेहतर था तुम को बज़्म में गाने नहीं देता-- १८ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १८-१२-०६ को प्रेषित

यही बेहतर था तुम को बज़्म में गाने नहीं देता
दिल-ए-दुश्मन को हरगिज़ भी मैं बहलाने नहीं देता

मुझे मालूम होता जा के तुम वापस न आओगे
तो फिर ऐ बेवफ़ा पहलू से मैं जाने नहीं देता

अगर यह जान जाता आये हो बस चार ही दिन को
तो अपने दिल में मैं तुम को कभी आने नहीं देता

अगर एहसास होता तोड़ के इस दिल को जाओगे
तुम्हारी याद अपने दिल पे मैं छाने नहीं देता

मुझे मालूम होता मय तुम्हें माफ़िक न आयेगी
खलिश गम गल्त करने को ये पैमाने नहीं देता.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ दिसम्बर २००६






६२१. दुनिया के किनारों को कभी का छोड़ आया हूं-- १७ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १८-१२-०६ को प्रेषित


दुनिया के किनारों को कभी का छोड़ आया हूं
मैं रिश्ता-ए-मोहब्बत आज सब से तोड़ आया हूं

बहुत मैंने निभायी दोस्ती पर रास न आयी
वफ़ा की राह में यारो नये एक मोड़ आया हूं

नहीं मुमकिन कि आ जाये हंसी होठों पे इक पल को
मैं नाता ज़िन्दगी भर का गमों से जोड़ आया हूं

इज़ाज़त जिस की ज़माना कभी भी दे नहीं सकता
मैं अपने दिल में ऐसी आज ले के होड़ आया हूं

दुनिया में कदम रखने से पहले ही खलिश अपनी
किस्मत का घड़ा लगता है जैसे फोड़ आया हूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ दिसम्बर २००६

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६२२. आलम है जब चलने का तो नये खेमे क्यों लगा रहे-- १६ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १६-१२-०६ को प्रेषित

आलम है जब चलने का तो नये खेमे क्यों लगा रहे
उजड़े घर को वक्त-ए-रुखसत में फिर क्यों तुम सजा रहे

न वो दम है न वो खम है न वो चेहरा नूरानी
गई जवानी के जलवे अब क्यों दुनिया को दिखा रहे

बदले लोग ज़माना बदला न वो सुनने वाले हैं
ले कर टूटा साज़ हाथ में भूले नगमे सुना रहे

कश्ती तो हो गयी पुरानी है बहाव भी हलका ही
नहीं भरोसा इतना पानी भी दरया में बना रहे

वक्त नहीं है काम बहुत है खलिश जरा अब तो चेतो
एक एक दिन कर के क्यों तुम जीवन अपना गंवा रहे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ दिसम्बर २००६

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६२३. हम जिये ज़िन्दगी शराफ़त में-- १३ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १३-१२-०६ को प्रेषित

हम जिये ज़िन्दगी शराफ़त में
हैं इसी वज़ह आज आफ़त में

क्या बतायें दिन-ए-जवानी में
किस तरह हम फ़ंसे खुराफ़त में

वो भी क्या वक्त था कि रात-ओ-दिन
दिल को पाते थे एक शामत में

न जवानी बुलन्द कर पाये
है बुढ़ापा भी पस्त हालत में

छोड़ हिकमत खलिश चले आये
वक्त कटता है अब वकालत में.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ दिसम्बर २००६







६२४. मेरे पास देने को अब क्या बचा है


मेरे पास देने को अब क्या बचा है
दे दो का क्यों शोर अब तक मचा है

अंगुल पे जिस ने सभी को नचाया
इशारों पे वो आज सब के नचा है

रहना भतीजे से डर के है अच्छा
हुआ क्या कि रिश्ते में कोई चचा है

खाते वकत चाहे लगता है प्यारा
रिश्वत का पैसा कभी न पचा है

ख्वाहिश न हो तो जियोगे खुशी से
खलिश को तरीका यही इक जंचा है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ दिसम्बर २००६






६२५. दगा दोगे तुम ये अगर जानता मैं तो दिल टूटने की शिकायत न करता-- १५ दिसम्बर की गज़ल, ईके को १५-१२-०६ को प्रेषित

दगा दोगे तुम ये अगर जानता मैं तो दिल टूटने की शिकायत न करता
अगर जानता दर्द है इश्क में तो उल्फ़त की हरगिज़ हिमायत न करता

मुझे क्या पता था जो होगा बुढ़ापा तो फ़रज़न्द मेरे लुटायेंगे दौलत
फटे हाल रहता न मैं ज़िन्दगी भर, ता-उम्र इतनी किफ़ायत न करता

नफ़ा और नुक्सां, खरच और आमद, इन्हीं में गुज़ारा है जीने का आलम
जज़्बा रूहानी जो फ़ितरत में होता, तो दुनिया के रंग पे कनायत न करता

थी उम्मीद लेकिन बड़े कांपते से हाथों तुम्हें एक तोहफ़ा दिया था
जो एहसास होता कि ठुकराओगे तुम नज़राना-ए-दिल इनायत न करता

खलिश दिल दिया है तुम्हें जां भी देंगे, न तुम ने कबूला, ये दीगर है मसला
दुश्मन भी कोई न यूं पेश आता, कोई और होता, रियायत न करता.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१३ दिसम्बर २००६







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