Original Hindi poems, mainly ghzals, in Hindi script |
५०१. मैं कवि हूँ कवि ही रहने दो लिखना गाना मुझे सुरों में-- १४ सितम्बर की गज़ल, ईके को १०-९-०६ को प्रेषित मैं कवि हूँ कवि ही रहने दो लिखना गाना मुझे सुरों में छीन लेखनी मेरी मत तलवार धरो इन सहज करों में माना संकट का युग है और त्रस्त हो रही है मानवता क्या ऐसे में रूक जाता है कंपन हॄदयों में अधरों में माना देश पुकार रहा है बन प्रहरी सीमा पर आओ कौन कवि बिन व्यक्त करेगा आंसू और उद्वेग घरों में राम विलाप तुम्हें सीता तक सीता का सन्देस राम तक पहुंचाना है कवि ऊर्जा भरो और कल्पना परों में कवि को मत बन्धन में बान्धो मत निर्दिष्ट करो कविता को गिनती होने दो दोनों की खलिश सदा उन्मुक्त चरों में. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ५०२. डोली चढ़े हुए हैं दो दिन डोली चढ़े हुए हैं दो दिन हुई आज मैं सखि फिर पी बिन काट रही मैं पल छिन गिन गिन किस के लिये सिंगार करूं अब विदा करा के साजन लाये तभी नियति ने लिये बुलाये मेहन्दी हाथों में शरमाये किस की मैं मनुहार करूं अब हुए पराये जो थे अपने बिखर गये पलकों में सपने रह गयी मैं जीवन भर तपने किस का नयन शिकार करूं अब जीवन भर अब तो रोना है होना हो अब जो होना है कैसे मिले सखि जो न है कैसे मैं प्रतिकार करूं अब. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ५०३. मैं तुम्हारी याद से घबरा गया हूँ मैं तुम्हारी याद से घबरा गया हूँ क्या करूँ इस का कि मैं तंग आ गया हूँ छोड़ यादें दूर जा बैठे हो तुम मैं इन्हें संवारता थक सा गया हूँ याद हैं नाज़ुक तुम्हारी ऐ सनम आज इन से मिल के फिर शरमा गया हूँ कुछ तुम्हारी याद को कर दूं अमर सोच कर इक और नगमा गा गया हूँ याद करने से न आओगे कभी इस हकीकत से खलिश टकरा गया हूँ. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ५०४. दिल में ये अब भी गुमान बाकी है दिल में ये अब भी गुमान बाकी है मेरी जवानी की आन बाकी है हैरतों से तक रहे हो क्यों मुझे बूढ़ी हड्डियों में जान बाकी है उम्र न तू देख मेरी लग गले शाम के रंगों की शान बाकी है क्या हुआ जो वक्त काफ़ी जा चुका दिल पे उल्फ़त का निशान बाकी है गो कि साथी मयकदा है अब खलिश मेरा इखलाक-ओ-ईमान बाकी है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ५०५. आप ने कविता मेरी पढ़ी होगी-- १५ सितम्बर की गज़ल, ईके को १०-९-०६ को प्रेषित आप ने कविता मेरी पढ़ी होगी मन में कुछ तसवीर तो गढ़ी होगी मेरा पढ़ के वो तराना प्यार का चाह दिल में आप के बढ़ी होगी आप की शायद तसव्वुर में कभी आंख मेरी आंख से लड़ी होगी सोचता हूँ जो तुम्हें भेजी गज़ल इश्क के परवान वो चढ़ी होगी. दिल के आईने में न सोचा कभी आप की सूरत खलिश मढ़ी होगी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ०००००००००००० ५०६. ऐ मेरी प्यारी सी माँ-- १६ सितम्बर की गज़ल, ईके को १०-९-०६ को प्रेषित ऐ मेरी प्यारी सी माँ ऐ मेरी अच्छी सी माँ तुझ पे दिल कुर्बान तुझ से सेवा तो कराई पर कभी मैंने न की सिर्फ़ अपने ही लिये ये ज़िन्दगी मैंने है जी ज़िन्दगी का मेरी बायस माँ मेरी तू ही तो थी तुझ पे दिल कुर्बान तूने दुखों का मुझे एहसास न होने दिया मैं तेरी गोदी में मानो फूल सा बन के जिया जब मुझे कांटा चुभा तो दर्द था तुझ को हुआ तुझ पे दिल कुर्बान आज माँ जब तू नहीं तो मेरा भर आता है दिल कोई तो तदबीर होती तुझ से लेता आ के मिल देख कर के माँ मुझे तेरा भी चेहरा जाता खिल तुझ पे दिल कुर्बान ऐ मेरी प्यारी सी माँ ऐ मेरी अच्छी सी माँ तुझ पे दिल कुर्बान. तर्ज़— ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल कुर्बान --काबुलीवाला, प्रेम धवन, मन्ना डे महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ५०७. कापी भर गई कहां लिखूं अब लिखने की रफ़्तार बहुत है-- १७ सितम्बर की गज़ल, ईके को १०-९-०६ को प्रेषित कापी भर गई कहां लिखूं अब लिखने की रफ़्तार बहुत है शायर के दिल की मत पूछो उड़ने का विस्तार बहुत है मन करता है लगातार महफ़िल में अपनी गज़ल सुनाऊं अन्य सुखनबर कहते हैं बस करो एक ही यार बहुत है सात सुरों तीनों सप्तक में गायन करने का मन चाहे सुनने वाले कहते हैं कि वीणा का एक तार बहुत है लिखना अपना रोकूं कैसे वाद्य को कैसे बहलाऊं रुके लेखनी स्वर कुंठित हो कलाकार को मार बहुत है कैसे करूं तमन्ना ज़ाहिर महफ़िल को कैसे बतलाऊं ताना दें सब खलिश कि अपने को समझे फ़नकार बहुत है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ 00000000000000 ५०८. टूट गया ज़िन्दगी का साज़ है टूट गया ज़िन्दगी का साज़ है टूटने का भी मगर कुछ राज़ है दोस्तों ने पूछा जब भी कह दिया कुछ तबीयत आज कल नासाज़ है लाज़मी मुझ को गज़ल लिखना था यूं मौलवी को जिस तरह नमाज़ है देख कर रूकती कलम कहते हैं लोग जाने इस को हो गया क्या आज है कोई बतला दे भला इतना खलिश उड़ सके बिन पंख क्यूं परवाज़ है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ५०९. आप ने जो ज़रा मेरी तारीफ़ की मेरा दिल आसमां पे उछलने लगा आप ने जो ज़रा मेरी तारीफ़ की मेरा दिल आसमां पे उछलने लगा आप की इक नज़र का असर यूं हुआ खुद को तारीफ़ लायक समझने लगा दाद में है सुखनबर की ऐसा असर कि रवानी कलम की बढा़ती है ये आप ने जो कहा हम से इरशाद तो फिर गज़ल का बयां ही बदलने लगा थे तो हम भी वही थी कलम भी वही पर हवाओं में खुशबू तो ऐसी न थी मैंने अपना सुनाया कलाम आप को रंग खुद ही फ़िज़ाओं में भरने लगा ज़िन्दगी मेरी सहरा रही अब तलक आप के दम से उस में बहार आ गयी मैं परेशान आवारा फिरता रहा फिर से जीने का मन आज करने लगा दिल की धड़कन की रफ़्तार यूं बढ़ गयी जैसे हाथों में कोह-ए-नूर को पा लिया हो नज़र-ए-इनायत खलिश आप की फिर गज़ल नयी लिखूं दिल मचलने लगा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ००००००००००००० ५१०. थक के मुझ को जब लगता है मैं कुछ पल विश्राम करूं थक के मुझ को जब लगता है मैं कुछ पल विश्राम करूं तभी मुझे ख्याल आता है कि क्यों न उठ कर काम करूं कला साधना है एक गहरी इस में कोई पड़ाव नहीं बिना रुके बढ़ना मन्ज़िल को चलते चलते शाम करूं चाहता हूं बस खुली हवा दे दूं दिल के जज़बातों को नहीं तमन्ना है कुछ मन में बन के शायर नाम करूं नहीं शायरी कर के कोई दौलत का हकदार बना पर क्यों मैं इस शय को बदलूं क्या मैं इस का दाम करूं अशआरों को खलिश लहू से और अश्कों से लिखा है आओ तुम्हें भी ये खून-ए-दिल पेश गज़ल का जाम करूं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ५११. प्यार की राह में कुछ असर यूं हुआ जो भी इस पर चला लौट न वो सका प्यार की राह में कुछ असर यूं हुआ जो भी इस पर चला लौट न वो सका कुछ को मन्ज़िल मिली कुछ को गर्दिश मिली कोई काटे फ़सल कोई न बो सका एक इशारा हुआ एक सज़दा हुआ एक नज़र झुक गयी एक उठने लगी दो दिलों का मिलन एक पल में हुआ पर ये ज़ाहिर किसी पर भी न हो सका इश्क फ़ितरत है ऐसी जलाती है दिल पर ज़माने से छुप छुप के चलना भी है दिल में आशिक के उठा धुआं तो मगर चाह कर भी वो अश्क एक न रो सका एक लमहे का मिलना नज़र का था पर दो दिलों पर असर उम्र भर को हुआ चाहे मन्ज़िल मिली चाहे राहें मिलीं चैन से कोई पल एक न सो सका जिस ने दिल को लगाया वो पछताया पर जो लगा न सका वो भी मायूस है इश्क ऐसी है शय कि जहां में खलिश दाग-ए-दिल उम्र भर कोई न धो सका. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ५१२. उठी मायके से जब डोली—बिना तिथि की कविता, ३-१०-०६ को ई-के को प्रेषित उठी मायके से जब डोली माँ बेटी दोनों मिल रो लीं बेटी आज पराई हो ली जिसे बचाया सब घातों से बेटी जब साजन घर आई हुई मायके की रुसवाई संग दहेज न कुछ भी लाई बहलाया केवल बातों से साजन ने न साथ निभाया सास ननद संग वो गुर्राया सितम सभी ने मिल कर ढाया नव वधु को पूजा लातों से ज़िन्दा उस की चिता सजाई डाल किरोसिन बहू जलाई दे दी अंतिम उसे विदाई इस जग के रिश्ते नातों से. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० सितम्बर २००६ ५१३. अब न दुनिया में मुझे कुछ काम ही बाकी रहा है अब न दुनिया में मुझे कुछ काम ही बाकी रहा है एक प्याला एक कलम और एक मेरा साकी रहा है ये हुआ एहसास जब डंडे पुलिस के दो पड़े रंग फ़ीके हैं सभी मज़बूत बस खाकी रहा है आज अंकल और आंटी में सभी दुनिया बंटी अब न कोई चाचा मामू काका या काकी रहा है. आज टी वी है दिखाता क्रिकेट के संग पैप्सी खेलने वाला न अब फ़ुटबाल या हाकी रहा है अब सियासत एक पेशा बन गया उन का खलिश काम जिन का कोई भी जायज़ न इखलाकी रहा है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ११ सितम्बर २००६ ५१४. हम क्यों जीते क्यों मरते हैं-- १८ सितम्बर की गज़ल, ईके को १२-९-०६ को प्रेषित हम क्यों जीते क्यों मरते हैं क्यों धरती पर पग धरते हैं जटिल सवालों का उत्तर पाने की कोशिश करते हैं आते हैं अन्य लोक से हम मरने पर वहीं विचरते हैं पिछले जन्मों के कर्मों का फल इस जीवन में भरते हैं इस कारण ही इस जीवन में हम गलत काम से डरते हैं हैं भाव यही जो खलिश बहुत चिन्तन करने से झरते हैं. * श्री लक्ष्मीनारायण गुप्त की कविता ‘एक पुरातन प्रश्न’ से प्रेरित महेश चन्द्र गुप्त खलिश १२ सितम्बर २००६ ५१५. जब गया ईमान मुझ से कह गया जब गया ईमान मुझ से कह गया ज़िन्दगी में अब तेरी क्या रह गया रोकने वाला मुझे अब कौन है अब बुराई करना दिल को सह गया था मुझे पाकीज़गी का जो गरूर एक जाम पी के मय का बह गया दोस्ती का दम सदा जिस ने भरा दुश्मनी अपनी दिखा के वह गया अब मुझे इंसानियत पर से खलिश जो भी था दिल में भरोसा ढह गया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १४ सितम्बर २००६ ५१६. हैं उजाले फ़कत दिल में रहते, इन को दुनिया में पा न सकोगे-- १९ सितम्बर की गज़ल, ईके को १२-९-०६ को प्रेषित हैं उजाले फ़कत दिल में रहते, इन को दुनिया में पा न सकोगे रोशनी को जो ढूंढा करोगे, आगे राहों में जा न सकोगे चल पड़ो तुम अंधेरों में आगे, रोशनी मन्ज़िलें आप देंगी बैठ कर हाथ पे हाथ धर के, पास मन्ज़िल को ला न सकोगे जो तुम ने उधार लिया है, रोज़ किश्तों में थोड़ा उतारो रकम सारी एक बार ही में, तुम हरगिज़ चुका न सकोगे रोज़ चुकती है ये ज़िन्दगानी, मौत बढ़ती चली आ रही है गान उस की इबादत का कर लो, आखिरी वक्त गा न सकोगे आओ सत्संग में बैठ लो तुम, चार दिन ही ये बाकी बचे हैं आखिरी सांस तुम जब गिनोगे, चाह कर के भी आ न सकोगे. तर्ज़: तुम को होती मोहब्बत जो हम से, तो ये दीवानापन छोड़ देते दर्द होता जो दिल में हमारा, ज़िन्दगी का चलन छोड़ देते महेश चन्द्र गुप्त खलिश १२ सितम्बर २००६ ५१७. नैनों से जब नैन मिले क्या हाल हुआ वो हाल न पूछो--२८ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २८-१०-०६ को प्रेषित नैनों से जब नैन मिले क्या हाल हुआ वो हाल न पूछो पल भर के आलम में कैसे हो गये हम बेहाल न पूछो नैनों ने क्या कहा किसी के और सन्देस दिया क्या हम ने जिस का नामुमकिन जवाब हो ऐसा कोई सवाल न पूछो बात हुयी क्या साजन संग फिर और हुआ क्या फिर घातों में ऐसी बातें हम को है बतलाना बहुत मुहाल न पूछो कोई निशानी हम को दे दो किसी जवांदिल ने फ़रमाया कहां गिरा और किसे मिला रेशम का लाल रुमाल न पूछो इक लमहे की मुलाकात थी गले लग गये दो अनजाने खलिश इश्क की राह में कैसे कैसे हुए कमाल न पूछो. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १२ सितम्बर २००६ ५१८. जाने क्या मैंने लिखा --२० सितम्बर की गज़ल, ईके को १५-९-०६ को प्रेषित जाने क्या मैंने लिखा, जाने क्या तूने पढ़ा वाद का विवाद हुआ जाने क्या…………….. एक बवंडर सा दिखा एक तूफ़ां सा उठा एक झगड़ा सा हुआ जाने क्या…………. कलम रुक रुक सी गयी निगाह झुक झुक सी गयी काव्य लज्जित सा हुआ जाने क्या……….. लेखनी पर पहरे? गान को सुनें बहरे? ये गज़ब कैसा हुआ? जाने क्या…………….. सब हों आज़ाद यहां नहीं हो विवाद यहां क्यों ये सपना सा हुआ जाने क्या…………. तर्ज़— जाने क्या तूने कही जाने क्या मैंने सुनी बात कुछ बन ही गयी….. [फ़िल्म प्यासा, लेखक साहिर लुधियानवी] महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ सितम्बर २००६ ०००००००००००००००००००००००० ५१९. प्यार कर के जफ़ा हम सहें या नहीं—२७ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २७-१०-०६ को प्रेषित प्यार कर के जफ़ा हम सहें या नहीं सुन के इलज़ाम चुप हम रहें या नहीं राज़ ज़ाहिर न हो कोई रुसवा न हो दर्द दिल का किसी से कहें या नहीं रोके रुकते नहीं चुप ये रहते नहीं इश्क में अश्क मेरे बहें या नहीं दिल में इन को सजाऊं भला कब तलक ख्वाब के खन्डहर अब ढहें या नहीं क्या सबब था हुए दूर हम से खलिश राज़ की ये खुलेंगी तहें या नहीं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ सितम्बर २००६ ०००००००००००००००००००० ५२०. हिन्दी की चिन्दी—१६ सितम्बर को भेजी बिना तिथि की कविता हिन्दी, हिन्दी, हिन्दी, हिन्दी क्यों उड़ा रहे उस की चिन्दी भाषा कोई गाय नहीं ऐसी जो दुहें मगर हम घास न दें क्यों इसे शुद्ध रखना चाहें क्यों मिश्रण का आभास न दें वे भी दिन थे हिन्दी वाले क्यों कहें रेल कतराते थे केवल लौह-पथ-गामिनी कहो यूं अपना मत जतलाते थे जब कहें पेड़ के ‘गिर्द’ तो वे कहते थे ‘चारों ओर’ कहो उर्दू है गिर्द जरा चेतो उर्दू की रौ में तुम न बहो कह कर के इसे राष्ट्र भाषा सब पर थोपना इसे चाहा मलयालम तमिल तेलुगु को सीखें न कभी यह मन आया दक्षिण भाषा से सौतेला व्यवहार किया उन ने जैसे वैसा अंग्रेज़ी भाषा से कर पायेंगे आखिर कैसे रोज़ी रोटी बिन अंग्रेज़ी है नहीं आज कल चल सकती बच्चों की शिक्षा भी आगे बिन अंग्रेज़ी न बढ़ सकती एक हिन्दी दिवस साल भर में करने को नाम मनाते हो पर हिन्दी की सेवा असली करने से आंख चुराते हो कामिल बुल्के की तारीफ़ तो करते हो जर्मन हो कर भी वह शब्दकोष लिख गया मगर बन पड़ा न तुम से तो यह भी कहने से नहीं राष्ट्र भाषा थोपी जाती है औरों पर जो अन्य भारती भाषाएं हैं उन को रोपो हिन्दी पर सीखो वे भाषाएं तुम भी और हिन्दी में अनुवाद करो समॄद्ध करो हिन्दी को तुम पीछे हिन्दी की बात करो बाईस सदी पहले आई थी तमिल देश में ज्ञात तुम्हें हिन्दी को दो सौ वर्ष हुए सुन कर न लगे आघात तुम्हें? नारे न लगाओ हिन्दी के पनपी न कभी इस से भाषा कुछ ठोस प्रयत्न करो, सीखो हिन्दीतर अन्य देशभाषा हिन्दी वालो मत ग्लीसरीन को लटकाओ तुम आंखों से कम से कम संस्कॄत तो सीखो न प्रेम जताओ बातों से भाषा कोई ऐसी चीज़ नहीं जो कहने भर से बनती है यदि फ़सल काटनी हो तो फिर मेहनत भी करनी पड़ती है उठो संस्कॄत सीखो पहले और तिरुक्कुराल भी संग पढ़ो सीखो उर्दू असमी बंगला इन सबको ले कर साथ चलो न समझो ऐसा करने से हिन्दी की उपेक्षा कुछ होगी भारत की भाषाओं से तो सक्षम हिन्दी भी खुद होगी तुम रचो अनूदित साहित्य समॄद्ध करो अपनी हिदी हिन्दी के माथे पर तब ही तुम सजा पाओगे इक बिन्दी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १६ सितम्बर २००६ ५२१. ज़िन्दगी भर मैं रिश्ते निभाता रहा—२६ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २७-१०-०६ को प्रेषित ज़िन्दगी भर मैं रिश्ते निभाता रहा घाव अपने मैं दिल के छिपाता रहा दिल से उस ने कभी भी न चाहा मुझे हाथ मुझ से हमेशा मिलाता रहा सिर्फ़ माज़ी की बातें ही करता रहा ‘वो भी क्या वक्त था’ यह सुनाता रहा कर के अपनी जवानी की तारीफ़ वो हो गया हूं मैं बूढ़ा जताता रहा सुन के मेरी दुखों से भरी दास्तां बेफ़िकर हो के वो मुस्कराता रहा झांक कर उस के दिल में जो देखा खलिश दिल से एतबार जितना था जाता रहा महेश चन्द्र गुप्त खलिश १६ सितम्बर २००६ 000000000000000000000000000000 ५२२. आज मुझे ज़िन्दगी का रंग ऐसा दिख गया—२४ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २४-१०-०६ को प्रेषित आज मुझे ज़िन्दगी का रंग ऐसा दिख गया हो गया यकीं कि ईमां आदमी का बिक गया सोचता हूं अपना घर मैं अब उसी को सौंप दूं मेरे घर जो एक बार आ के यहीं टिक गया हाथ का लिखा मिटा सका न कोई आज तक लिखने वाला एक बार जो भी चाहे लिख गया मेरे दिल में शौक की अब कोई जगह नहीं रोटियों को सेकते हाथ ऐसा सिक गया आज दूसरों के काम का नहीं रहा खलिश दोस्तों के हाथ कूड़ेदान पे वो फिंक गया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १६ सितम्बर २००६ ५२३. एक बूंद पानी की देखो उस ने क्या क्या रूप धरे—२३ अक्तूबर की कविता, ईके को २३-१०-०६ को प्रेषित एक बूंद पानी की देखो उस ने क्या क्या रूप धरे मरुथल की तपती बालू में किसी का जीवन दान बनी नयन कोर से ढुलक विरह का किंचित कभी निशान बनी एक बूंद पानी की……. कभी हॄदय में स्नेह भरा तो मां की आंखों से उमड़ी जीवन में जब त्रास बढ़ा तो बही वेदना किसी घड़ी एक बूंद पानी की……. जब स्वस्ति नक्षत्र हुआ तो गिर मोती में सीप बनी एक बूंद गंगा जल अंतिम समय मुक्ति का दीप बनी एक बूंद पानी की……. रोली संग मिल तिलक रूप में महिसुर के मस्तक बैठी तर्पण किया भक्त ने तो फिर पुण्य्धाम में जा पैठी एक बूंद पानी की……. स्नाता के केशों से झर रसिकों के मन की चोर बनी वर्षा ॠतु में मेघों से झर कभी नाचता मोर बनी एक बूंद पानी की……. स्वेद रूप में कभी कॄषक के तन से खेतों में टपकी माटी ने उस को सोखा तो गेहूँ की बाली चमकी एक बूंद पानी की देखो उस ने क्या क्या रूप धरे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १६ सितम्बर २००६ ५२४. न खत्म हों जो अरमां इंसां को हैं डुबाते—२५ अक्तूबर की नज़्म, ईके को २५-१०-०६ को प्रेषित न खत्म हों जो अरमां इंसां को हैं डुबाते गीता कुरान इन्जील सारे यही सिखाते सब छोड़ दो तमन्ना और जीओ सादगी से मुश्किल न ज़िन्दगी में होगी सभी बताते ज़ोरू ज़मीन ज़र ये तीनों ही इस जहां में बन के फ़साद की जड़ इंसां को हैं सताते पीर-ओ-फ़कीर-ओ-साधु चलते हैं नंगे पांओं पर उन की मंज़िलों तक शाह भी पहुंच न पाते जाते हैं खाली हाथों वो भी खलिश जहां से महलों किलों में अपना जो आशियां बसाते. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १७ सितम्बर २००६ ५२५. ज़िन्दगी मुझ को कहां ले आई है—२२ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २२-१०-०६ को प्रेषित ज़िन्दगी मुझ को कहां ले आई है आगे है कूआं तो पीछे खाई है मैं सुनाऊं किस को अपने दिल की बात सब तरफ़ बरपा मेरी तनहाई है ज़िन्दगी का जंग पूरा हो चुका बज रही अब कूच की शहनाई है वक्त-ए-विदा आज मैं कांधे चली सोच कर के लाश मुसकराई है क्यों इसे हम छोड़ने का गम करें ये खलिश दुनिया बहुत हरज़ाई है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १८ सितम्बर २००६ ५२६. लब पे उल्फ़त का तराना और दिल का साज़ हो-- १६ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १८-१०-०६ को प्रेषित लब पे उल्फ़त का तराना और दिल का साज़ हो दोस्ती का इस तरह अन्दाज़-ओ-आगाज़ हो हम को ऐसे देखते हैं मानो हम हैं अजनबी आशिकाना याखुदा उन का भी कुछ मिज़ाज़ हो जी नहीं सकते मगर सूरत बदलने की नहीं कोई हो तरतीब ज़िन्दगी का कुछ इलाज़ हो मैं बहुत घबरा गया हूं आलम-ए-तनहाई में मेरे कानों में जो आये कोई तो आवाज़ हो नाम पे मज़हब के खलिश बम चलें न गोलियां प्यार से रहने का दुनिया में कभी रिवाज़ हो. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १८ सितम्बर २००६ ५२७. मेरे मन में रह रह कर बस यह विचार कौन्ध जाता है—२१ अक्तूबर की कविता, ईके को २२-१०-०६ को प्रेषित मेरे मन में रह रह कर बस यह विचार कौन्ध जाता है जो होता ‘अच्छा होता है’ क्यों यह सदा कहा जाता है सोचा इस पर बहुत समय तो अब यह बात समझ आई है जो बहुजन हिताय: सुखकर हो अच्छा उसे कहा जाता है हो सकता है हम को कोई कड़वी घटना रास न आये किन्तु भला उस से औरों का हो यह संभव रह जाता है जग का केन्द्रबिन्दु कोई भी मानव एक नहीं हो सकता क्यों उस की इच्छा ही सर्वोपरि हो प्रश्न उभर जाता है होंगे राम नियन्ता जग के छिनी मगर उन की ही पत्नी ऐसा हुआ न होता तो क्या रामायण में रह जाता है कालकूट से जला कंठ शिव का इस को अच्छा ही मानो वरना देवगणों का विषमॄत होना ही तो रह जाता है फ़र्स्ट क्लास से दक्षिण अफ़्रीका में गांधी गये निकाले इसी दुखद घटना को सत्याग्रह का जन्म कहा जाता है हम क्यों न हॄदयंगम कर लें शाश्वत सत्य यही है जग में अच्छा होता है वह भी विपरीत हमारे जो जाता है किन्तु भूल कर भी ओ मानव कर्म त्याग किंचित न करना हो अधिकार कर्म पर केवल, फल पर नहीं कहा जाता है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १८ सितम्बर २००६ ५२८. तेरी चौखट पे न शाम और सहर आऊंगा -- १८ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १८-१०-०६ को प्रेषित तेरी चौखट पे न शाम और सहर आऊंगा तेरी बस्ती में न अब आठ पहर आऊंगा अलविदा दोस्त खुदा तुम पे मेहरबान रहे न मैं अब लौट के इस गांव-ओ-शहर आऊंगा आज के बाद न होगा ये जफ़ाओं का सितम अब मैं पीने को न ये मीठा ज़हर आऊंगा तुम को माना कि परेशानी मोहब्बत से हुई अब न ढाने को कभी तुम पे कहर आऊंगा जब भी गुज़रूंगा खलिश भूल के इन राहों से याद आयेगी तो पल भर को ठहर जाऊंगा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १९ सितम्बर २००६ ५२९. क्या बोलूं और क्यों बोलूं मैं, जो बोलूं उस में तथ्य नहीं--२१ सितम्बर की गज़ल, ईके को २१-९-०६ को प्रेषित क्या बोलूं और क्यों बोलूं मैं, जो बोलूं उस में तथ्य नहीं शब्दों का अर्थ अधूरा है उन में भावों का सत्य नहीं भावों से भरा हॄदय है पर वे जिव्हा तक आयें कैसे जिव्हा में तो अनुभूति नहीं बोलना हॄदय का कॄत्य नहीं कविता ढलती है भावों में शब्दों की उस को क्या परवाह शब्दों का राज गद्य पर है, कविता पर आधिपत्य नहीं गद्य को चाहिये मानचित्र एक पूर्व-नियोजित शब्दों का कविता उठती है भावों से , किंचित शब्दों की भॄत्य नहीं गीता हो वेद या रामायण कविता अनित्य है, गद्य खलिश शब्दों में ढलता रहता है कहलाये क्यों वह सद्य नहीं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १९ सितम्बर २००६ ००००००००००००००० ५३०. यह जीवन है जीवन में तो दुख सुख होते ही रहते हैं-- २८ सितम्बर की गज़ल, ईके को २८-९-०६ को प्रेषित यह जीवन है जीवन में तो दुख सुख होते ही रहते हैं वे नादां हैं जो घबरा कर इन से रोते ही रहते हैं रोने से दुख किंचित न घटे हम उन के चिन्तन से केवल बीजों को अकर्मण्यता के नाहक बोते ही रहते हैं जो आना है, जो बीत गया, इन दोनों ही कल की चिन्ता जो करते हैं वे वर्तमान अपना खोते ही रहते हैं चिंता को चिता समान समझ कुछ दूर ही रखते हैं इस को कुछ अपने दिल में चिन्ता को हर दम न्योते ही रहते हैं ज्यों पानी में भीगी कपास, चिन्ता से दुख गहराते हैं क्यों खलिश सदा चिन्तित रह कर हम दुख ढोते ही रहते हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २१ सितम्बर २००६ ५३१. न होता इश्क तो क्यों गम मेरे दिल पर कहर करते--२३ सितम्बर की गज़ल, ईके को २३-९-०६ को प्रेषित न होता इश्क तो क्यों गम मेरे दिल पर कहर करते ये अच्छा था बिना उन के अकेले ही गुज़र करते न मिलते वो कभी मुझ को तो मेरे दिल में क्यूं आते न भरते आह हम न याद ही शाम-ओ-सहर करते न होता गम जुदाई का जफ़ा का न गिला होता न यूं लाचार हो कर के तमन्ना-ए-ज़हर करते अगर कांटों से न होतीं भरी ये इश्क की राहें न करना इश्क ये ताकीद क्यों गांव-ओ-शहर करते खलिश न इश्क-ओ-गम होते तो क्यूंकर शायरी होती मिलाते काफ़िया न हम पैमाएश-ए-बहर करते. तर्ज़— न मिलता गम तो बरबादी के अफ़साने कहां जाते अगर दुनिया चमन होती तो वीराने कहां जाते फ़िल्म--अमर, लेखक-- शकील बदायूनी महेश चन्द्र गुप्त खलिश २१ सितम्बर २००६ ५३२. फूल जो भी चुने एक दो रोज़ में खिल के मुरझा पराये वो सब हो चले-- २२ सितम्बर की गज़ल, ईके को २२-९-०६ को प्रेषित फूल जो भी चुने एक दो रोज़ में खिल के मुरझा पराये वो सब हो चले चार कांटे जो दामन से लिपटे मेरे संग मेरे वो सारे सफ़र को चले जो जफ़ाएं हुईं जो खताएं हुईं जो सितम हम ने तुम पे किये प्यार में मेरे महबूब करना मुझे माफ़ तुम याद कर के उन्हें आज हम रो चले किस का कीजे यकीं हैं यहां गैर सब मतलबी खुदगरज़ है ये सारा जहां दो कदम साथ चल के जुदा हो गये खा कसम-ए-वफ़ा संग थे जो चले दी मदद जिस को एहसां भी जिस पे किया हम पे इलज़ाम उस ने लगाये बहुत नेकियां उम्र भर हम तो करते रहे तोहमत-ए-बदी हम मगर ढो चले दिल को नीलाम कर इश्क पाया मगर हम हिफ़ाज़त न उस की खलिश कर सके प्यार की सिर्फ़ यादें बचा के रखीं बाकी दुनिया की दौलत को हम खो चले. तर्ज़— एक भूला पथिक एक भटका पथिक एक सहमा पथिक वह वहां कौन है पंथ ने तो समर्पण किया पुष्प का किन्तु क्यों फिर खड़ा रह गया मौन है --रमानाथ अवस्थी [उन की यह कविता ४० वर्ष पूर्व पढ़ी थी. आज तक न भूल पाया हूं. अच्न्छी कविता की यही पहचान है.] महेश चन्द्र गुप्त खलिश २१ सितम्बर २००६ ५३३. तुम रहे चुराते आंख हमसफ़र बन के भी-- १७ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १८-१०-०६ को प्रेषित तुम रहे चुराते आंख हमसफ़र बन के भी मेरे न हुए, संगी हो कर जीवन के भी मुझ को मानो अपना यह एक रहा सपना तुम रहे दूर कितने तन से और मन से भी मेरी हर पीड़ा से खुद को अनजान रखा रखा वंचित दो झूठे मधुर वचन से भी झंकार न मेरे कंगना की तुम तक पहुंची रातों को तुम्हें बुलाने को वे खनके भी क्या पायल का अस्तित्व, रहे बस पांवों में जो सजना की खातिर नाचे और छनके भी इस जीवन में अब और खलिश क्या आस करूं क्या मेरे पास बचा अतिरिक्त रुदन के भी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २२ सितम्बर २००६ ५३४. हो चाहत तो हम को बता दीजियेगा-- २४ सितम्बर की गज़ल, ईके को २४-९-०६ को प्रेषित हो चाहत तो हम को बता दीजियेगा सन्देसा नज़र का भिजा दीजियेगा भेजा है तुम को सलाम-ए-मोहब्बत कबूल हो तो हम को जता दीजियेगा न तड़पाओ इतना कि हम होश खो दें फिर इलज़ाम हम को ना दीजियेगा अगर मर गये हम तो ज़ुल्फ़ों का अपनी फूल एक कबर पे सजा दीजियेगा हमें दिल में रख के चंचल निगाहों पे खलिश सख्त पहरा बिठा दीजियेगा. तर्ज़— अजी रूठ कर अब कहाँ जाइयेगा जहाँ जाइयेगा हमें पाइयेगा ----आरज़ू, हसरत जयपुरी महेश चन्द्र गुप्त खलिश २२ सितम्बर २००६ ००००००००००००००००००००० ५३५. मैं फक्कड़ शायर हूं अशआरों में ही मेरी मस्ती है – बिना तिथि की गज़ल, ईके को २२-९-०६ को प्रेषित मैं फक्कड़ शायर हूं अशआरों में ही मेरी मस्ती है परवाह नहीं शायरी मेरी कोई अगर कहे कि सस्ती है बन्धना होता हम को हद में तो रहते हम रजवाड़ों में कोई रोक कलम पर नहीं यहां शायर के दिल की बस्ती है दुनिया-ए-शायरी में आलिम या नादां कोई नहीं होता लफ़्ज़ों का यहां वज़ूद नहीं बस जज़्बातों की हस्ती है दीवान को मिर्ज़ा गालिब के आदाब बजाता हूं लेकिन मैं उस से हट कर लिखता हूं गो दुनिया उस पर हंसती है है लाज़िम खलिश गज़ल में हों सब बहर काफ़िया और रदीफ़ मैं गज़ल उसी को कहता हूं जो दिल में गहरी धंसती है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २२ सितम्बर २००६ ५३६. कवि का है मनोविज्ञान बहुत बेढब वह अजब खिलाड़ी है-- बिना तिथि की गज़ल, ईके को २२-९-०६ को प्रेषित कवि का है मनोविज्ञान बहुत बेढब वह अजब खिलाड़ी है वह कर सकता है प्रेम मगर लड़ने में बहुत अनाड़ी है है पद्य प्रेम का पर्याय कवि लिखता है कविता में ही जड़ काटे कोमल बन्धन की ऐसी ही गद्य कुल्हाड़ी है नि:शंक भाव उठते कवि के कविता बहती उस की निर्झर कवि पर जो अंकुश लगा सके न आगे है न पिछाड़ी है कवि को स्वीकार नहीं है कि वह एक विधा में सीमित हो हों फूल भी जिस में कांटे भी कवि वह गुलाब की झाड़ी है म्लेच्छ और ब्राह्मण दोनों कवि की दुनिया के इक से हिस्से हैं वह पंडित संग गंगाजल और पीता किसान संग ताड़ी है कवि की वेदना ढुलकती है कविता से दिल की आंखों से कब कर के सिंह गर्जना खलिश कवि की लेखनी दहाड़ी है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २२ सितम्बर २००६ ५३७. मैं मिला उन से मगर मिल के भी तनहा ही रहा-- २५ सितम्बर की गज़ल, ईके को २५-९-०६ को प्रेषित मैं मिला उन से मगर मिल के भी तनहा ही रहा आंख को तो भायी सूरत किन्तु प्यासा जी रहा क्या सबब था किसलिये आ कर किनारे के करीब डूब गयी किश्ती बेचारा सोचता माझी रहा इश्क की मन्ज़िल खतम मैखाने पे जा के हुयी दर्द-ए-दिल न कम हुआ मैं जाम कितने पी रहा जब घड़ा फूटा तो पंछी मुक्त हो कर उड़ गया सो गया माटी में वो जो रौन्दता माटी रहा और हट कर शायरी से काम क्या करते हैं आप पूछा उन्होंने खलिश मैं होंठ अपने सी रहा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २३ सितम्बर २००६ ५३८. एक नन्हा फूल कल तक था कली --२६ सितम्बर की गज़ल, ईके को २६-९-०६ को प्रेषित एक नन्हा फूल कल तक था कली आज चकित सा पवन में हिल रहा रंग बिरंगी पंखुरियां देख कर मन ही मन निज रूप पर था खिल रहा तितलियों के संग वह मस्ती भरी था अजब अठखेलियां सी कर रहा कोई भंवरा गिर्द उस के घूम कर था प्रणय का गान कर सुस्वर रहा गंध मदमाती हॄदय को मोहती छा रही उपवन में चारों ओर थी पुष्प के रंगीन जीवन की यह आज पहली पहली किन्चित भोर थी किन्तु उस के भाग्य में कुछ और था एक घटना अप्रतिम सी हो गयी तोड़ कर कुचला नियति के हाथ ने और सदा को गंध उस की सो गयी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २६ सितम्बर २००६ ५३९. हम पा न सके उस मन्ज़िल को जिस को ख्वाबों में पाया था--२७ सितम्बर की गज़ल, ईके को २७-९-०६ को प्रेषित हम पा न सके उस मन्ज़िल को जिस को ख्वाबों में पाया था जिस ने इस दिल को घेर लिया वह भूले गम का साया था सोचा कुछ था कुछ और हुआ तकदीर के खेल निराले हैं खंजर भौंका उस ने जिस को हंस हंस के गले लगाया था दिल-लगी मेरी इकतरफ़ा थी मुद्दत पीछे यह राज़ खुला जिस के दिल में थी नफ़रत वो क्यों मेरे दिल को भाया था विश्वास भला किस का कीजे अपने ही पराये हो बैठे मेरे गम पर मुसकाया वो मैं जिसे देख मुसकाया था हम चुप हैं आज खलिश लेकिन अपने पर वो शर्मिन्दा है दिल आज तड़पता है उस का जिस ने हम को तड़पाया था. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २६ सितम्बर २००६ ००००००००००००० ५४०. समझो न मुझे शोले से कम मैं यादों की चिनगारी हूं-- १५ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १५-१०-०६ को प्रेषित समझो न मुझे शोले से कम मैं यादों की चिनगारी हूं जो छिपा रखे हैं सीने में उन अश्कों की पिचकारी हूं एक झलक तुम्हारी दिखला दे कोई ले ले चाहे जान मेरी देखो ये तमन्ना तो मेरी कैसा अजीब व्यौपारी हूं मेरे दिल में मौज़ूद हो तुम मालूम है अब न आओगे फिरता दुनिया की राहों में ले कर मैं याद तुम्हारी हूं बरबाद हूं फ़ाकामस्त हूं मैं दुनिया से हूं बेज़ार बहुत हूं पड़ा अगर राहों में तो समझो न महज़ भिखारी हूं मुफ़लिस हो गया खलिश तो अब बचते हैं यूं दुनिया वाले ज्यों छूने से लग जायेगी मैं ऐसी एक बीमारी हूं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २८ सितम्बर २००६ ५४१. ज़िन्दगी जरा बता क्या मेरा कसूर है-- २९ सितम्बर की गज़ल, ईके को २९-९-०६ को प्रेषित ज़िन्दगी बता जरा क्या मेरा कसूर है क्यों खुशी का साया मेरे ख्वाब से भी दूर है मुद्दतें हुईं हैं मय का घूंट तक पिया नहीं किसलिये निगाह में आज तक सरूर है जब तलक जिया मैं ज़िल्लतों से जूझता रहा मेरी मय्यत पे है जलसा कैसा ये शऊर है दौलतों के गम से ज़िन्दगी बहुत उदास थी आज सब लुटा दिया तो रुख पे नया नूर है जल गयी रस्सी मगर बल नहीं गये अभी इस कदर इंसान में क्यों खलिश गरूर है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २९ सितम्बर २००६ ५४२. सोच के उठा था मैं कि तुम बुलाओगे मुझे--- ३० सितम्बर की गज़ल, ईके को ३०-९-०६ को प्रेषित सोच के उठा था मैं कि तुम बुलाओगे मुझे इंतज़ार था कि अपने पास लाओगे मुझे था मैं इतमीनान से यूं कदम उठा रहा कसमें जान देने की फिर खिलाओगे मुझे डर रहा था एक बार फिर से फ़हरिस्त को मेरी सब जफ़ाओं की तुम गिनाओगे मुझे था यकीं कि मेरी बेवफ़ाई पे रो ज़ार ज़ार अश्क की जुबां से अपना गम सुनाओगे मुझे लग रहा था प्यार में दिल्लगी की तर्ज़ पे कर के ज़िक्र गैर का तुम जलाओगे मुझे मेरा था खयाल मुझे जान नादां इश्क में रस्म-ए-मोहब्बत सनम फिर सिखाओगे मुझे मैं पलट के आऊंगा पास ले बाहों का हार वादा फिर से प्यार का जब दिलाओगे मुझे ऐसा न खलिश हुआ मैं दूर ही होता गया क्या खबर थी एक बार न बुलाओगे मुझे. ********************** महेश चन्द्र गुप्त खलिश २९ सितम्बर २००६ एद ५४३. ज़िन्दगी की रागिनी होगा तेरा शुक्रिया-- ७ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ७-१०-०६ को प्रेषित ज़िन्दगी की रागिनी होगा तेरा शुक्रिया राग कुछ सुना नया कि झूमे ये थका जिया जाने क्या कसूर था कि दिल को कुछ पता नहीं छोड़ गम की धार में क्यों चले गये पिया और क्या मिला हमें सिर्फ़ तेरा ही सितम कौन जाने किस घड़ी तुम से प्यार था किया क्या करें कि ये ज़माना चुप रहे किसी तरह हम ने तेरे इश्क में ज़ुबां को अपनी सी लिया राग दर्द से भरा सुनाओ आज तुम खलिश धीमे धीमे बुझ रहा है मेरे प्यार का दिया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २९ सितम्बर २००६ ००००००००००००००००००० ५४४. मैं इक मामूली शायर हूं मामूली सा ही लिखता हूं --बिना तिथि की गज़ल, ईके को २९-९-०६ को प्रेषित मैं इक मामूली शायर हूं मामूली सा ही लिखता हूं शायरी नहीं तुकबन्दी ही करने की क्षमता रखता हूं स्वान्त: सुखाय: मैं लिखता हूं और खुद लिख कर पढ़ लेता हूं रसहीन लगे औरों को पर बन भ्रमर स्वयं रस चखता हूं काफ़िया रदीफ़ तो आसां हैं कोई खौफ़ नहीं इन का मुझ को लिखता हूं जब मैं गज़ल बहर पर अकसर आन अटकता हूं दीवान की बात नहीं करता हैं और सुखनबर कितने ही देने से दाद नहीं थकता जब गज़लें उन की पढ़ता हूं एक एक शेर के रंग कई एक एक लफ़्ज़ के सौ मतलब कैसा वो गज़ब का लिखते हैं पढ़ कर हैरत से तकता हूं मेरा दिल है भोला-भोला मन में आये लिख देता हूं कुछ को है मगर एतराज़ कि मैं शायर एक कोरा सस्ता हूं आदाब खलिश उन को जिन के अशआर की पूजा होती है और उन को भी जो कहते हैं मैं इक नन्हा गुलदस्ता हूं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २९ सितम्बर २००६ ५४५. दिल में तसवीर बनाई है वो नज़रों में लाऊं कैसे--- १ अक्तूबर की गज़ल, ईके को १-१०-०६ को प्रेषित दिल में तसवीर बनाई है वो नज़रों में लाऊं कैसे जहां कदम कदम पर पहरे हैं उस दुनिया में जाऊं कैसे यूं तो मेरी नज़रों में वो दिन रात समाये रहते हैं मिलने की सूरत कोई नहीं मैं चैन जरा पाऊं कैसे मैं प्यार तो करता हूं लेकिन उन का दिल रखने की खातिर ला दूंगा चान्द सितारे यह झूठी कसमें खाऊं कैसे ऐसे भी लमहे गुज़रे हैं वो थे नज़दीक बहुत मेरे मैं रहा सोचता बिन बुलाये मैं पास भला आऊं कैसे गम और खुशी में फ़र्क न हो ऐसा तो मैं भी पीर नहीं आंखें नम हों तो हंस हंस कर मैं गीत खलिश गाऊं कैसे महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३० सितम्बर २००६ ५४६. जीवन की राह -- १३ अक्तूबर की कविता, ईके को १३-१०-०६ को प्रेषित जीवन है एक राह निरन्तर चलना है रुक जाने का अर्थ यहां पर मरना है यहां अनवरत हम चलते ही रहते हैं थकते हैं फिर भी बढ़ते ही रहते हैं लेकिन तभी एक चौराहा आता है कदम लाल बत्ती पर झट रुक जाता है तब लगता है पराधीन कितने हैं हम नहीं स्वेच्छा से धर सकते एक कदम. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ अक्तूबर २००६ ५४७. हरकत तो कर रहे हैं अब क्या उन के लब कहें-- ५अक्तूबर की गज़ल, ईके को ५-१०-०६ को प्रेषित हरकत तो कर रहे हैं अब क्या उन के लब कहें मालिक हैं अपने दिल के वो जो चाहे जब कहें जज़्बात बरसाते हैं वो यूं बात बात में कोई खबर नहीं कि वो क्या जाने कब कहें शायद कभी कह पाएं उन से अपने दिल की बात उन के मिज़ाज़ में दिखे नरमी तो तब कहें कहने को कुछ उन से बहुत अरसे से हैं बेताब पर बात है ऐसी कि जब हो जाए शब कहें ऐसे भी आए वक्त राह-ए-इश्क में खलिश गुज़री है सारी रात कि वो कुछ तो अब कहें. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ अक्तूबर २००६ ०००००००००००००००००००० ५४८. गान्धी मैं शीश झुकाता हूं तुम ने हम को आज़ादी दी—२ अक्तूबर की गज़ल, ईके को २-१०-०६ को प्रेषित गान्धी मैं शीश झुकाता हूं तुम ने हम को आज़ादी दी हम इस का मोल नहीं समझे हम ने खुद को बरबादी दी आज़ाद हुए हम आपस में लड़ने और मरने की खातिर हम ने समाज का नंगापन तुम ने भारत को खादी दी सच्चाई और अहिंसा के रस्ते को दिखलाया तुम ने पर आज सियासत के उस्तादों ने हम को उस्तादी दी तुम ने केवल आधी धोती से तन को ढकना सिखलाया लूटो जनता का पैसा हर मंत्री ने यही मुनादी दी हम जन-साधारण हैं खलिश तुम्हारी राह पे चल पाएं कैसे इस एक बहाने की खातिर तुम को ‘थे संत’ उपाधि दी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश गान्धी-जयन्ति, २ अक्तूबर २००६ ५४९. कलम चलती रहे-- ३ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ३-१०-०६ को प्रेषित [6 syllables to a line] कलम चलती रहे गज़ल बनती रहे फ़लक से चान्दनी सदा छनती रहे मय-ए- इश्क की फ़िज़ां ढलती रहे वफ़ा की आरज़ू जवां पलती रहे मोहब्बत की नज़र हमें छलती रहे ज़माने की नज़र कहर करती रहे दुनिया देख के फ़कत जलती रहे बहर में न खलिश कोई गलती रहे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३ अक्तूबर २००६ ०००००००००००००००००००० ५५०. धरम के नाम पर कोई किसी की जान लेता है-- ४ अक्तूबर की गज़ल, ईके को ४-१०-०६ को प्रेषित धरम के नाम पर कोई किसी की जान लेता है कतल जिस को किया उस को ही फिर इलज़ाम देता है खुदा ने जब बनाया था तो इंसां पाक था कितना बुराई के समन्दर में वो कश्ती आज खेता है बड़ी मासूम ख्वाहिश-ओ-तमन्नाओं का खूं कर के कोई आशिक समझता है किसी दिल का विजेता है बदलते दम-ब-दम जब रंग देखा एक गिरगिट ने किसी ने उस को समझाया डरो मत सिर्फ़ नेता है सिरफ़ ख्वाबों से दुनिया की हकीकत टल नहीं सकती खलिश बरबाद उम्मीदों को क्यों तू दिल में सेता है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३ अक्तूबर २००६ 00000000000000 १००६. मिलें वो किस तरह सीने में थी बस इक ललक यारो मिलें वो किस तरह सीने में थी बस इक ललक यारो यूं ही भटका किये पाने को उन की इक झलक यारो खुदी को भूल कर ढूंढा किये वीराना-ओ-बस्ती वो हम से पूछते हैं थे कहां तुम अब तलक यारो सजा के ख्वाब रंगीं है बनाई इश्क की दुनिया ज़मीं दिखती नहीं दिखता है बस हम को फ़लक यारो कई इलज़ाम पाये हैं बुरा हो इस मोहब्बत का रहे खामोश लब आंखें मगर आईं छलक यारो तमन्ना हो जो उन की जान भी दे दें ख़लिश पल में इशारा तो करे हलकी झुकी उन की पलक यारो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ सितम्बर २००७ |