full story of Sri Krishna |
ऊँ श्री गणेशाय नमः मेरु पर्वत पर दिव्यसभा तथा पृथ्वी के कष्ट के निवारण हेतु योजना भगवान श्रीनारायण छीर सागर में िस्थत अपनी शेष शय्या पर विराजमान हैं।यह स्थान दिव्य भगवान पद्यनाभ के सच्चिदान्नदमय श्रीविग्रह की तेजो राशि से आवृत एवं प्रकाशमान है। सो॓ए हुए नारायण के नाभि के मध्य भाग से एक कमल शोभा पा रहा है। यही ब्रह्माजी का आदि स्थान है।वहाँ समाधि में उन्हें हजारों वर्ष बीत गए। द्वापर के अन्त में समस्त लोकों को दुःख से पीड़ित जान महर्षियों द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए वे महातेजस्वी भगवान श्रीहरि जाग उठे। ॠषि बोले "हे भगवन, कृपा करके आप अपनी इस सहज निद्रा को त्याग दीजिए।आपके यहाँ ब्रह्माजी समेत समस्त देवतागण आपके दर्शन हेतु यहाँ खड़े हैं। हे प्रभु आप इनकी विनय को सुनें तथा इनके कष्ट का निवारण करें। तब श्रीहरि अपनी निद्रा का त्याग करते हुए उठ कर बैठ गए तथा ब्रह्माजी व समस्त देवता जिस प्रयोजन से वहाँ पधारे हैँ वह भी उन्हें ग्यात हो ग्गया। उन्होंने उनसे कहाकि आप बताएँ कि क्या कष्ट है अथवा किसका कष्ट निवारण करना है बताएँ। मैं आपकी किस प्रकार से सेवा करूँ, कृपया मुझे बताएँ। ब्रह्माजी बोले " हे विष्णु देव, जिनके आप जैसे अभयदायक कर्णधार हों, उन देवताओं को कोई भय नहीं है। जब तक देवराज इन्द्र विजयी हैं और आप रछा के लिए उद्यत हैं, तबतक धर्म के लिए प्रयत्नशील मनुष्यों को भी किसी से भय नहीं हो सकता है। भूमंडल के समस्त नरेश अपने कर्मों को बढ़ाते हुए प्रगति कर रहे हैं। जिससे उनकी कीर्ति सब ओर जगमग हो रही है। उन सभी नरेशों के पास असंख्य सेनाएँ हैं जिसके भार से पृ्थ्वी को बड़ी पीड़ा हो रही है। मनुष्यों की जनसंख्या तथा सैन्य छमता इतनी बढ़ गई है कि पृथ्वी माता को उसका भार उठाना कष्टकारी हो रहा है। यह पृथ्वी आपकी शरण में आई है कृपया इनके कष्ट को दूर करने का उपाय करें। श्रीहरी बोले " ठीक है आप सब मेरे साथ चलें।" तब सभी लोग मेरु पर्वत पर पहुँच कर ब्रह्माजी की सभा में उपसि्थत हुए। पृथ्वी बोली " हे देव, मैं भार से धंसी जा रही हूँ अतः आप मुझे धारण करें।समस्त नरेशों तथा उनकी असंख्य सेनाएँ ,बड़े बड़े दानव व राछस से पीड़ित हो अत्यन्त कष्ट में हूँ अतः इस बढ़ते हुए भार को सहन करने में असमर्थ हूँ। आप सब लोग जिस भी प्रकार से मेरी सहायता कर सकें करें अन्यथा में रसातल में चली जाऊँगी। सभी देवताओं तथा श्रीहरि ने आपस में विचार विमर्श शुरू किया। श्रीहरि ने कहा कि सभी देवता अपने अपने अंशों से पृथ्वी पर ब्राह्मणों व राजाओं के कुल में उत्पन्न हों तथा अपने बल तथा पराक्रम के साथ मेरे कहे अनुसार कार्य करें। मैंने भूतल पर भरतवंश के लिए जो विचार किया है उसे सुनें "पहले की बात है कि मैं अपने पुत्र कश्यप के साथ समुद्र के तट के पास बैठा था। उसी समय मूर्तिमति गंगा के साथ मूर्तिमान समुद्र तेज गति से आया तथा मेरा तिरस्कार = सा करते हुए मुझे भिगो दिया। तब मैंने क्रोध में उसे "तु शांत हो जा" कहा। इससे वह छोटा और शांत हो गया। तब मैंने मन ही मन पृथ्वी का भार उतारने के लिए गंगा सहित समुद्र को पुनः शाप देते हुए कहा " समुद्र ! तु राजा की तरह मेरे सामने आया है अतः जा, तु इस पृथ्वी का पालन करने वाला राजा ही होगा। "शांत हो जा " मेरे इतना कहते ही जो तू शान्त होकर तनुता "सूछ्मता" को प्राप्त हुआ है, इसलिए तू सुन्दर शरीर से युक्त एवं यशस्वी होकर संसार में "शान्तनु" नाम से प्रसिध्द होगा । यह बड़े नेत्रवाली, सर्वांग सुन्दरी, सरिताओं में श्रेष्ठ मूर्तिमति गंगा भी वहाँ तुम्हारी सेवा में उपसि्थत होंगी। तब छोभ में भरा हुआ समुद्र मेरी ओर देखकर बोला " देवदेवेश्वर ! आपने मुझे शाप क्यों दिया ? मैं तो आपके द्वारा ही रचित हूँ। मैं तो पूर्णिमा के दिन बड़े वेग से बढ़ जाता हूँ अतः इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। अतः आप हम दोनों को अपने शाप से मुक्त कर दें। महासागर देवताओं के भूभार=हरण के उद्देश्य को नही जानता था इसलिए वह भयभीत था। तब मैंने उसे मधुर वाणी द्वारा सान्त्वना देते हुए कहा " हे समुद्र, शांत हो जाओ, इसके पीछे जो कारण है |