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Rated: E · Book · Cultural · #1510442
Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775
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#627019 added December 31, 2008 at 10:07am
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Poems / ghazals , no. 1751- 1775 in Hindi script

१७५१. आये, सदा फ़कीर लगा कर चले गये—ईकविता, १० सितंबर २००८--RAS

आये, सदा फ़कीर लगा कर चले गये
हम आप की ख़ुशियों की दुआ कर चले गये

कहते थे तेरे बिन कभी न जी सकेंगे हम
वादा वफ़ा का आज निभाकर चले गये

हम देख न लें आप को उम्मीद से कभी
सो आप हमसे मुंह को छिपा कर चले गये

गलियों से आपकी हमें ज्यादा लगाव था
लो आज उनसे खूं में नहा कर चले गये

देखा जो आपको तो हम बेख़ुद से हो गये
हमसे ही हमें आप ज़ुदा कर चले गये

दर पे रगड़ते ही रहे, माथा भी घिस गया
पर फ़र्ज़ बंदगी का अदा कर चले गये

पत्थर की मूर्ति को पूजा इस कदर हमने
तुमको नज़र में सबकी ख़ुदा कर चले गये

तेरा न सही दर है गज़ल का तो खुल गया
हम रात-दिन इस फ़न को बढ़ा कर चले गये

हमसे अग़र पूछे कोई तो क्या ज़वाब दें
दुनिया में आये थे तो फिर क्या कर चले गये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० सितंबर २००८

०००००

मीर की निम्न गज़ल पर आधारित—

फ़कीराना आए सदा कर चले
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले

जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले

कोई ना-उम्मीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले

बहोत आरजू थी गली की तेरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले (*)

दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले

जबीं सजदा करते ही करते गई
हक-ऐ-बंदगी हम अदा कर चले (*)

परस्तिश की याँ तैं कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सबों की खुदा कर चले (*)

गई उम्र दर बंद-ऐ-फिक्र-ऐ-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले

कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले.

०००००००००००००००००००००००००

Thursday, 11 September, 2008 12:28 AM
From: "Rahul Upadhyaya" upadhyaya@yahoo.com

ख़लिश जी - एक एक शेर को आपने आसान शब्दों में नया रुप दे कर उन्हें समझाने का एक अनूठा तरीका निकाला। अच्छा लगा। आपने मेरी मदद की, इसलिए आप का लाख-लाख शुक्रिया।
एक सवाल मन में आता है। कि अगर ये ग़ज़ल मीर के बजाय अन्य किसी व्यक्ति ने आज के समय में लिखी होती तो क्या इसकी इतनी इज़्ज़त होती? प्रशंसा होती? आज के माहौल में तो कोशिश ये की जाती है कि इसे कैसे आसान बनाया जाए, ताकि जन-साधारण बिना किसी शब्दकोश के इसे समझ सके।
सद्भाव सहित,
राहुल
०००००००००००००००००००
ENGLISH TRANSLATION

दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
>>>
I saw you and seeing you I
Got attached to you in a trice
So much so that from my own self
I am detached, Oh, what a price!





१७५२. अहसास भरे अशआरों में एक दर्द की ख़ुशबू होती है—RAS—ई-कविता, ७ दिसंबर २००८

अहसास भरे अशआरों में एक दर्द की ख़ुशबू होती है
अश्कों से लिख कर उन्हें क़लम गज़लों का हार पिरोती है

आशिक के दिल के शोलों की क्या ख़बर ज़माने को होगी
दिल में तूफ़ान मचलता है, चेहरे की रंगत खोती है

बढ़ते हैं प्यार की राहों में जो कदम फिसल ही जाते हैं
तनहाई में चुपके -चुपके नाकाम तमन्ना रोती है

आलमे- तसव्वुर में बहका, राहे-माज़ी में चलता हूं
तब याद किसी की आ कर के नैनों की कोर भिगोती है

चाहे तुम इनको मत पौंछो पर हँसी उड़ाओ मत इनकी,
मेरा हर आंसू ख़लिश वफ़ा का इक नाज़ुक सा मोती है.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१० सितंबर २००८





१७५३. बन के फ़कीर आये और फ़कीर ही रहे—RAS—ई-कविता, ८ दिसंबर २००८

बन के फ़कीर आये और फ़कीर ही रहे
रूठी हुयी मानो कोई तक़दीर ही रहे

लफ़्ज़ों पे गौ़र कोई हमारे न कर सका
वो बस किताब-बंद इक नज़ीर ही रहे

लांघा हमें जिसने सिकंदर बन गया लेकिन
हम सिर्फ़ इक खिंची हुयी लकीर ही रहे

बदशक्ल हैं सीने से कोई भी लगाये क्यों
बदरंग बिना फ़्रेम की तसवीर ही रहे

मुमकिन न था दरपेश हक़ीकत से जूझना
ख़्वाबों में ख़लिश ढूँढते ताबीर ही रहे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ सितंबर २००८


नज़ीर = मिसाल; हाई कोर्ट / सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला जो leading case या precedent के रूप में दावे की पुष्टि के लिये पेश किया जाये
दरपेश = सामने, सम्मुख
ताबीर = स्वप्नफल

०००००००००००००

Tuesday, 9 December, 2008 8:20 AM
From: "Sujata Dua" aasthamanthan@yahoo.co.in

आदरणीय खलिश साहब ,
मन को छू गयी यह पंक्तियाँ '........

बन के फ़कीर आये और फ़कीर ही रहे
बिगड़ी हुयी मानो कोई तक़दीर ही रहे

लफ़्ज़ों पे हमारे किसी ने गौ़र न किया
वो बस किताब-बंद इक नज़ीर ही रहे

सादर ,
सुजाता दुआ

००००००००००००

Tuesday, 9 December, 2008 8:45 AM
From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com

बहुत खूब .... खलिश जी... गज़ल अच्छी लगी!!!

००००००००००००००००

Tuesday, 9 December, 2008 8:12 AM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com

"बदशक्ल हैं सीने से कोई भी लगाये क्यों
बदरंग बिना फ़्रेम की तसवीर ही रहे "

वाह!
सादर, शार्दुला
००००००००००००००००००

Tuesday, 9 December, 2008 11:12 AM
From: "Dr. Rama Dwivedi" ramadwivedi@yahoo.co.in

आदरणीय खलिश जी, बहुत खूब लगीं ये पंक्तियां....सादर..

बन के फ़कीर आये ��"र फ़कीर ही रहे
बिगड़ी हुयी मानो कोई तक़दीर ही रहे

लफ़्ज़ों पे हमारे किसी ने गौ़र न किया
वो बस किताब-बंद इक नज़ीर ही रहे

डा.रमा द्विवेदी
००००००००००००००००००००

Tuesday, 9 December, 2008 9:42 PM
From: "Amar Jyoti" nadeem_sharma@yahoo.com

दर्द और मायूसी का बेहतरीन चित्रण।
बधाई।
0000000000000000



१७५४. जो प्यार की बातें करते हैं वो प्यार निभाना क्या जानें—RAS—ईकविता, ८ नवंबर २००८

जो प्यार की बातें करते हैं वो प्यार निभाना क्या जानें
कुर्बान नहीं जो हो सकते वो नाज़ उठाना क्या जानें

आसान बहुत है अंगारों पर चलने की बातें करना
शमशीर के घावों पर मरहम जल्लाद लगाना क्या जानें

उनकी पैदाइश कल की है करते हैं बात ज़ईफ़ों सी
इस देश की आज़ादी का वो इतिहास पुराना क्या जानें

जो प्यार की राह गुज़रे ही नहीं बस पढ़े क़िताबी पन्ने हैं
वो हुस्न की तिरछी नज़रों का बेबाक निशाना क्या जानें

दौलत के दीवानों को कब परवाह ज़कत की हुयी ख़लिश
वो दिल रूहानी रस्ते की ज़ानिब ले जाना क्या जानें.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ सितंबर २००८
०००००००००००००००

Saturday, 8 November, 2008 4:21 AM
From: "K.P.Tyagi" kp_kusum@yahoo.com

कथनी ऒर करनी में अन्तर तो है ही

Dr.K.P.Tyagi
००००००००००००००






१७५५. चले हम राह उल्फ़त की मग़र लो हार फिर पायी

चले हम राह उल्फ़त की मग़र लो हार फिर पायी
ज़माने के असूलों से इज़ाज़त ही न मिल पायी

तमन्ना ही रही कि हमसफ़र बनते कभी लेकिन
कली नाज़ुक हमारे प्यार की हरगिज़ न खिल पायी

कोई शय आयी थी ऐसी मुझे बरबाद कर छोड़ा
मेरे दिल के ठिकानों से बहुत चाहा न हिल पायी

न करते इश्क हम तब भी गुज़ारा हो ही जाना था
मुसीबत रोज़ नयी कोई खड़ी है अपने सिर पायी

कहीं नूरे-मोहब्बत की ख़लिश बरसात होती है
घटा चाहत की मेरे ख़ुश्क सहरा पर न घिर पायी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ सितंबर २००८






१७५६. मुझे लगता है मेरे प्यार की दुनिया अधूरी है

मुझे लगता है मेरे प्यार की दुनिया अधूरी है
न पूरी हो दिलों के बीच वो सदियों की दूरी है

किसी को दौलतें हासिल किसी को राज-गद्दी है
मेहरबां जिसपे हो अल्लाह, मिले उसको सबूरी है

ये सूखे हौंठ ही पहचान मेरी बन चुके थे पर
मिले जो, हो गयी सब प्यास दिल की आज पूरी है

ये आलम अफ़सरी का भी असल में नौकरी ही है
नहीं माफ़िक हमें दिन रात की ये जी हज़ूरी है

मिलेगी कामयाबी ग़र अकल हो और मेहनत भी
मग़र उसकी रज़ा भी हो ख़लिश बेहद ज़रूरी है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
११ सितंबर २००८





१७५७. टूटी किरणें –ईकविता, १२ सितंबर

तारों के संग चंदा था बारात में
नभ में रौनक छायी थी उस रात में
पर कुछ टूटी किरणें ओढ़े खड़ी रही
शाम सुहानी आहत सी ज्यों पड़ी रही

यूं तो चंदा रोज़ रात को आता है
कोमल किरणों से श्रंगार सजाता है
क्या जाने उस रात अनोखी बात हुई
नैनों टपकी पीर, हृदय में घात हुई

एक बार जो दिल टूटा तो टूट गया
नाज़ुक दिल से साथ किसीका छूट गया
अब चंदा जो नज़र कभी भी आयेगा
दिल के घावों को ताज़ा कर जायेगा

तारों के संग चंदा था बारात में
नभ में रौनक छायी थी उस रात में
पर कुछ टूटी किरणें ओढ़े खड़ी रही
शाम सुहानी आहत सी ज्यों पड़ी रही.

*आधार पंक्ति / शब्द: “टूटी किरणें ओढ़े खड़ी रही शाम”

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ सितंबर २००८
00000000000000000000000
From: Amar Jyoti <nadeem_sharma@ ...>
Date: Friday, 12 September, 2008, 2:01 PM
ख़लिश जी,
बहुत सुन्दर है। एक विनम्र सुझाव है। तीसरे पद में 'नाज़ुक दिल का साथ'
की जगह 'नाज़ुक दिल से साथ' कर के देखें।
सादर,
अमर
000000000000000000
Thursday, 18 September, 2008 1:09 PM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com
Mahesh Ji,
Ati Sunder kavita. Bahut khoob yeh panktiyaan:
शाम सुहानी आहत सी ज्यों पड़ी रही
----
नैनों टपकी पीर, हृदय में घात हुई
Sadar... Shardula
०००००००००००००००००००००००




१७५८. कविता क्या है

कविता क्या है, क्या छंद, गज़ल
एक महज़ जाल है शब्दों का
जो कुछ अहसासों का परिचय
इक दिल को करवा देता है

दिल रोये, कविता रोती है
दिल हंसे तो कविता हंसती है
कवि के दिल में इक धड़कन है
कविता उसकी परछाईं है

उस परछाईं को चित्रकार
जब शब्द-तूलिका के बल से
नव-रंग-सुसज्जित करता है
तो जाल महल बन जाता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ सितंबर २००८





१७५९. कविता होती है

कवि का दिल केवल दर्पण है
वह टुकुर-टुकुर देखा करता
जब नया कभी दिख जाता है
तो इक धड़कन सी होती है
धड़कन से कविता होती है

न क्लांत कभी, न श्रांत कभी
न क्रोध कभी, आक्रोश कभी
दिल में उठता है भाव कोई
तो मन को स्पंदित करता है
स्पंदन से कविता होती है

वेदना किसी प्राणी की जब
बढ़ जाती है इक सीमा से
तो देख हृदय का दुख उसके
कवि का दिल भी रो देता है
रोदन से कविता होती है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ सितंबर २००८






१७६०. शक क्या है—“गर्भनाल” के २६वें अंक, दिसंबर २००८, में प्रकाशित

शक क्या है?
एक सूई की नोक
जो दिखती भी नहीं
मग़र कुरेद-कुरेद कर
बखिया उधेड़ देती है
विश्वास भरे दिल में
प्रश्न चिन्ह उकेर देती है.

शक क्या है?
राई का बीज
फूंक मारो तो उड़ जाये
मग़र जड़ जमा ले
तो पल में पहाड़ हो जाये
असलियत खो जाये.

शक क्या है?
एक गुलाब
जो दिल को लुभाता है
मग़र पंखुड़ी छूने को
कोई पास जाता है
तो कांटे ही पाता है.

शक क्या है?
एक बे-बुनियाद महल
बिन धरातल की ज़मीन
बेरहम आसमां
जो विश्वास से बोई
त्याग से सींची फ़सल को
ओलों की बौछार से
तहस-नहस कर जाता है.

डा० महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’, १३ सितंबर २००८
G-17/9, मालवीय नगर, दिल्ली ११००१७

















P१७६१. इस ख़त से न तुम नाराज़ होना, लाचार दिल से मैं लिख रहा हूं—ईकविता, १५ सितंबर २००८--RAS

इस ख़त से न तुम नाराज़ होना, लाचार दिल से मैं लिख रहा हूं
लिखा था किस्मत में तुम को खोना, लाचार दिल से मैं लिख रहा हूं

मज़बूर तुम भी, मज़बूर मैं भी, घिरे रहे लाखों बंदिशों में
न फलने पाया सपना सलोना, लाचार दिल से मैं लिख रहा हूं

नहीं शिकायत है कोई तुमसे, मैं ही मोहब्बत में बिक गया था
लगा तुम्हें ये दिल है खिलौना, लाचार दिल से मैं लिख रहा हूं

करेगी चाहत बरबाद ऐसे, अग़र ये मुझको मालूम होता
न ग़म का पड़ता ये बोझ ढोना, लाचार दिल से मैं लिख रहा हूं

ख़लिश मोहब्बत के दम पे मेरी, खायीं थीं जिसने हज़ार कसमें
तुम्ही वो पैकर-ए-इश्क हो न, लाचार दिल से मैं लिख रहा हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ सितंबर २००८






१७६२. मानव क्यों आज परेशां है, क्यों दिल पर ग़म का साया है

मानव क्यों आज परेशां है, क्यों दिल पर ग़म का साया है
दुनिया ने अग़र ठुकरा भी दिया, रब ने तो नहीं ठुकराया है

तुझको न अग़र पूछें इंसां तो फ़िक्र की कोई बात नहीं
हर इंसां रब का बंदा है, बस दुनिया का भरमाया है

जो मुफ़लिस हैं बीमार बहुत उनको दरकार है खिदमत की
ग़र उनकी सेवा कर लेगा वो ही तेरा सरमाया है

ये रंग हज़ारों महफ़िल के, सब चार दिनों की रौनक है
क्यों तेरा मन इनसे मिल कर इतना ज्यादा हर्षाया है

मत भूल है जीवन क्षणभंगुर, बुलबुला कोई है पानी का
जो इक पल को है फूल रहा और अगले पल कुम्हलाया है

हर चीज़ यहां पर झूठी है, सब पर माया का रंग चढ़ा
तू समझ ख़लिश बस इस सच को, सब में भगवान समाया है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ सितंबर २००८





१७६३. मैं अंकुश न सह पाऊंगा–ईकविता, १५ सितंबर २००८

कवि तो उच्छृंखल है, स्वतंत्र
कल्पना-व्योम में रहता है
है मांग नहीं कोई उसकी
बस केवल इतना कहता है
तुम मुझको मन की कहने दो
मैं अंकुश न सह पाऊंगा

धन-दौलत की कुछ चाह नहीं
न दाद मिले परवाह नहीं
महफ़िल में अग़र बुलाया है
तो नहीं ज़ुबां को बंद करो
चुप रहा तो मैं घुट जाऊंगा
मैं अंकुश न सह पाऊंगा

माना कि मैं विद्वान नहीं
मैं ग़ालिब या रसखान नहीं
मुझको न कवि बेशक मानो
कविता को अकविता जानो
लांछन दे लो, सह जाऊंगा
मैं अंकुश न सह पाऊंगा

मैं क्यों आया हूं यहां मित्र?
दुनिया में लोग अनेकों हैं
पर दर्द नहीं कोई सुनता
यह सोचा था अपनों में हूं
मन की मैं कुछ कह जाऊंगा
मैं अंकुश न सह पाऊंगा

कविता क्या, मेरे आंसू हैं
कुछ देर अग़र बह जायें तो
मन पीर निकल ही जाती है
ग़र तुम कहते हो मत रोओ
तो और कहीं को जाऊंगा
मैं अंकुश न सह पाऊंगा

जो चाहे तुम मेरा ले लो
मेरे दिल और जां से खेलो
अधिकार न गाने का छीनो
मत फिर मुझसे तुम यूं कहना
कविता में दर्द नहीं भरना
मैं अंकुश न सह पाऊंगा
मैं अंकुश न सह पाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ सितंबर २००८
000000000000000
Monday, 15 September, 2008 6:08 PM
From: "Manoshi Chatterjee" khallopapa@yahoo.com
महेश जी,
आपकी ये कविता अच्छी लगी, विशेषकर शुरु की पंक्तियाँ ।
मानोशी
००००००००००००००००००
On Tue, 16/9/08, mouli pershad <cmpershad@yahoo. com> wrote:
खलिश जी ने मन की बात कह दी। दिल ने दिल की बात समझ ली, अब मुंह से क्या कहना है!
००००००००००००००







१७६४. जो दिल न किसी को दे पाये वो प्यार की बातें क्या जानें—ईकविता १५ सितंबर २००८--RAS

जो दिल न किसी को दे पाये वो प्यार की बातें क्या जानें
कैसी होती हैं आंखों से ग़म की बरसातें क्या जानें

जो झील से गहरी कजरारी आंखों में खोये नहीं कभी
वो नैनों-नैनों में होती हैं कैसे घातें क्या जानें

जो सीख न पाये तनहाई में तारे कैसे गिनते हैं
आंखों ही आंखों में कैसे कटती हैं रातें क्या जानें

जो प्रीत की भूल-भुलैय्यां से अब तक भोले अनजान रहे
वो प्यार की बाजी में कैसे मिलतीं हैं मातें क्या जानें

जो ख़लिश न घोड़ी चढ़ पाये क्यों शहनाई ले कर आयें
वो बिन डोली के भी लौट आती हैं बारातें क्या जानें.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ सितंबर २००८







१७६५. जब क्लास भयी—ईकविता, १६ सितंबर २००८

जब क्लास भयी तो टीचर ने सगरे लरिकन को पास बुलायो
पास बुलाय के पुस्तक सौं गांधीजी का इक पाठ पढ़ायो
जब पाठ समाप्त भयो पूछे कस्तूरबा कौन रही वा की
तो उत्तर यही दियो सबने गांधी कस्तूरबा जी को जायो

टीचर ने माथा ठौंक लियो और उनके संग यौं बतरायो
तुम कौन बिधि कस्तूरबा को गांधी जी की माँ बतलायो
लरिका बोले गुजराती मां बा का मतलब होवै है माँ
या कारण कस्तूरबा जी गांधी की मात भयी, यह समझायो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१६ सितंबर २००८




















P१७६६. रातों के अंधेरे में बिजली सी चमकती है—RAS—हिन्दीयुग्म यूनिकवि प्रतियोगिता (नवम्बर २००८) को प्रेषित अप्रकाशित रचना

रातों के अंधेरे में बिजली-सी चमकती है
सूरत है कोई रह-रह यादों में उभरती है

है शक्ल तो पोशीदा, पहचानी लगती है
है ख़्वाब वही, हर दिन ताबीर बदलती है

मत पास मेरे आओ ऐ माज़ी के लमहो
तुम पास आते हो तो फिर आस मचलती है

जो बीत गया उसको परदे में रहने दो
झूठे सपनों से क्या तक़दीर संवरती है

रुख़सत दो, जाता हूँ, रोको न ख़लिश मुझको,
उस पार कोई शय है, अपनी सी लगती है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ सितंबर २००८
mcgupta44@gmail.com






१७६७. शिकन उनके हसीं चेहरे पे भूले से न आ जाये –RAS(R)—ईकविता, १७ सितंबर २००८

शिकन उनके हसीं चेहरे पे भूले से न आ जाये
कभी वो दिन भी आये उनकी जो सूरत दिखा जाये

वो करके नेकियां कहते हैं हमको माफ़ कर दीजे
भला है कौन जिसको सादगी ऐसी न भा जाये

कभी रातों की तनहाई में उनका ख़्याल आता है
तो क्यों न याद बरबस कोई आकर के रुला जाये

तसव्वुर में कोई तसवीर पल भर को उभरती है
कोई तदबीर हो दिल में हमेशा को समा जाये

इसी उम्मीद में लंबी बहुत घड़ियां गुज़ारी हैं
कोई बीता हुआ नग़मा ख़लिश आ कर सुना जाये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ सितंबर २००८



Ed
मेरी क़लम अशआर लिखती ही चली गयी
चलनी शुरू हुई तो चलती ही चली गयी

नग़मे में मेरे दिल के दर्द यूं उतर गये
आंसू की धार बह के बहती ही चली गयी

माज़ी का हर इक मोड़ कोई दे गया मोती
कागज़ पे कोई शक्ल बनती ही चली गयी

यूं तो थी बेज़ुबान पर शायर की थी क़लम
वो दास्ताने-इश्क कहती ही चली गयी.

गफ़लत में ख़लिश जाने क्या-क्या लिख गया था मैं
उनकी ज़ुबां शिकायत करती ही चली गयी.






१७६८. मेरी क़लम अशआर लिखती ही चली गयी--RAS

मेरी क़लम अशआर लिखती ही चली गयी
चलनी शुरू हुई तो चलती ही चली गयी

नग़मे में मेरे दिल के दर्द यूं उतर गये
आंसू की धार बह के बहती ही चली गयी

माज़ी का हर इक मोड़ कोई दे गया मोती
कागज़ पे कोई शक्ल बनती ही चली गयी

यूं तो थी बेज़ुबान पर शायर की थी क़लम
वो दास्ताने-इश्क कहती ही चली गयी

गफ़लत में ख़लिश जाने क्या-क्या लिख गया था मैं
उनकी ज़ुबां शिकायत करती ही चली गयी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ सितंबर २००८






१७६९. ज़िंदगी इक बोझ बनकर रह गयी--RAS

ज़िंदगी इक बोझ बनकर रह गयी
आंसुओं में हर तमन्ना बह गयी

टूटना दिल का गवारा न हुआ
और सब तकलीफ़ मुझको सह गयी

भूल जाओ, लोग समझाया किये
दिल में जो तसवीर थी न वह गयी

क्यों इमारत इश्क की ऐसी चुनी
एक ठोकर जो लगी और ढह गयी

प्यार ख़लिश चार दिन तो मिल गया
ग़म न कर शय कोई मुझसे कह गयी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ सितंबर २००८















P१७७०. ज़माने में सभी को ख़ुद पे जब हंसता हुआ पाया--RAS

ज़माने में सभी को ख़ुद पे जब हंसता हुआ पाया
तो सच कहता हूं अपने आप पर रोना बहुत आया

यही चाहा था मैंने दिल सदा औरों का बहलाऊं
बहे जब अश्क मेरा दिल किसी ने भी न बहलाया

अंधेरा रास है मुझको, कोई ये शम्म गुल कर दो
रहूँ तनहा, न मेरे पास ही आये मेरा साया

ख़ुदा हाफ़िज़ मेरे हमदम, छुड़ा जाते हो तुम दामन
तुम्हारी याद इस दिल में रहेगी बन के सरमाया

ख़लिश अनमोल है ये आंख का पानी न बहाओ
खिलेगा न सिंचाई से, है दिल का फूल मुरझाया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ सितंबर २००८







१७७१. हम उन्हें संदेस भिजवाते रहे—RAS—ईकविता १८ सितंबर २००८


हम उन्हें संदेस भिजवाते रहे
दूर हमसे वो मग़र जाते रहे

आज तक ख़त का नहीं भेजा जवाब
अब नहीं उनसे मेरे नाते रहे

पर कहीं मन में कोई उम्मीद थी
ज्योतिषी को हाथ दिखलाते रहे

जब लकीरों में न कुछ पाया जवाब
मन्नतें मौला की मनाते रहे

क्या करिश्मा है ख़लिश ये इश्क भी
तोड़ कर भी दिल हमें भाते रहे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ सितंबर २००८





१७७२. मंज़िल तो अब तक नहीं मिली बस राहों में निकलेगा दम

मंज़िल तो अब तक नहीं मिली बस राहों में निकलेगा दम
ये सोच रहे हैं मन ही मन क्यों प्यार की राह चले थे हम

हमने तो निभाये थे सारे वो अदब हमें जो वाज़िब थे
सिलसिला वफ़ा का क्यों बिगड़ा क्यों आये इसमें पेचो-ख़म

संग जीने मरने की बातें जो करते थे उनको हमने
जब वादा याद दिलाया तो क्यों आंख हुई है उनकी नम

देखा है यार के पहलू में और चोरी उनकी ज़ाहिर है
अब कतराते हैं यूं मानो दो चुल्लू पानी भी है कम

कोई कह दे उनसे जाकर कि वो अब भी हमको प्यारे हैं
न ख़लिश जुदा उनसे होंगे वो जितने चाहे करें सितम.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ सितंबर २००८





१७७३. कहना चाहूं, कह नहीं पाऊं—ईकविता, १९ सितंबर २००८

कहना चाहूं, कह नहीं पाऊं
मैं कुछ भी कहते सकुचाऊं
पलक गिराऊं, पलक उठाऊं
ठगी-ठगी सी मैं रह जाऊं

जाने क्या जादू कर डाला
मन को कौन समझने वाला
दिल का कैसे करूं हवाला
लगा हुआ जिव्हा पर ताला

प्रिय, नयनों से बात समझ लो
क्यों पुलकित है गात समझ लो
मन का झंझावात समझ लो
इसे प्रणय-सौगात समझ लो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ सितंबर २००८




१७७४. दो अंगना में इक दिन थी नयी ख़ुशी छायी –RAS—ईकविता, २० सितंबर, २००८

दो अंगना में इक दिन, थी नयी ख़ुशी छायी
एक घर में दुल्हन आयी, एक घर में बहू आयी

एक घर में दुल्हन पर सौ मन्नतें मनायीं गयीं
दूल्हे व दुल्हन के मन ली प्यार ने अंगड़ाई

कुछ अजब तरह का पर दूजे घर मातम था
न कुछ भी दहेज आया, कह सास ये गरमायी

इक घर में दुल्हन को ज्यों माँ का सा प्यार मिला
मनभावन के मन को सूरत उसकी भायी

दूजे घर में केवल घूंसे और लातें थीं
एक बहू ख़लिश फिर से जल गयी, सजा पायी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२० सितंबर २००८
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20 September, 2008 10:56 PM
From: "Sharad Tailang" sharadtailang@yahoo.com
खलिश जी
यह बडी खुशी की बात है कि सभी रचनाओं पर आपकी प्रतिक्रिया सबसे पहले आ जाती है और वह भी बडे़ अच्छे ढ़ंग से । मेरी रचना पर आपकी रचना दिमाग के उल्टे हिस्से की उपज नहीं लगती वरन् सीधे हिस्से की ही लगती है यदि उल्टा हिस्सा भी इतना तगड़ा है तब तो क्या बात है

शरद तैलंग

--- On Sat, 20/9/08, Mahesh Gupta <mcgupta44@yahoo. com> wrote:

तैलंग जी,

आपकी इस कविता ने मेरे दिमाग़ के उल्टे हिस्से को चालू कर दिया, जिससे निम्न नज़्म निकली--
[इस कविता का शीर्षक "बहू और दुल्हन" भी हो सकता था].
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१७७५. वो पूछते हैं हमसे कोई ग़म तो नहीं है –RAS—ईकविता २१ सितंबर २००८

वो पूछते हैं हमसे कोई ग़म तो नहीं है
उनका ये पूछना भी कोई कम तो नहीं है

ऐसे में क्या बताएं उन्हें रो रहा है दिल
कह देंगे वो कि झूठ, आंख नम तो नहीं है

उनसे कहा न अश्क हमारे बहाइये
वो बोले कोई आब-ए-ज़मज़म तो नहीं है

हमने कहा उम्मीद से कि सैर को चलें
वो बोले घूमने का ये मौसम तो नहीं है

“मैं” ही कहा ख़लिश सदा उनकी ज़ुबान ने
होठों पे आया लफ़्ज़ कभी हम तो नहीं है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ सितंबर २००८
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Sunday, 21 September, 2008 12:48 PM
From: "Ms Archana Panda" panda_archana@yahoo.com
ये बात !
इस बात पे कैसे कोई अब दाद कहेगा ?
सच है यही, उस्ताद तो उस्ताद रहेगा !
उम्दा कलाम उम्र के भी बाद रहेगा,
जो आप रहें , अंजुमन आबाद रहेगा ....
- अर्चना
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