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Rated: E · Book · Cultural · #1510442
Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775
#627010 added December 31, 2008 at 9:52am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1601- 1625 in Hindi script


१६०१. कुंडली—ईकविता, २१ जून २००८


सोलह सौ गिन कर गज़ल पूरी हो गयीं आज
पूर्ण नहीं, आधा सही, कर बैठा हूं काज
कर बैठा हूं काज मग़र है टेढ़ा-मेढ़ा
फिर भी आसां नहीं, उठाया बहुत बखेड़ा
कहे ख़लिश कविपंगु न गर्वित तू यूं हो रह
न चमकें इन सोलह सौ में कविता सोलह.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ जून २००८
















१६०२. ये दिल भी कैसा शीशा है सपने रंगीन दिखाता है—ईकविता, २४ जुलाई २००८

ये दिल भी कैसा शीशा है सपने रंगीन दिखाता है
जब ठेस लगे उन सपनों को, पल में चूरा हो जाता है

ख़ुद दिल ही बोता है पहले इक प्यार का पौधा हसरत से
फल नहीं लगे उसमें तो फिर औरों को दोष लगाता है

कौन इसे बुला कर कहता है कि आओ हमसे प्यार करो
खुद पास किसी के जाता है, अपना अधिकार जताता है

ग़र चाहते हो कि ये शीशा हरगिज़ कोई चोट नहीं खाये
तो वश में रखो इसको क्यों यह नाहक ही मंडराता है

इंसान ख़लिश दिल में होंगे तो दिल का शीशा टूटेगा
दिल में देखो देही को गीता ज्ञान यही बतलाता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ जून २००८

देह = शरीर
देही = आत्मा
००००००००००००००

Wednesday, July 23, 2008 11:18 PM
From: "smchandawarkar@yahoo.com" smchandawarkar@yahoo.com
’खलिश’ साहब,

बहुत अच्छी ग़ज़ल है। बधाई!

" बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल के

जो काटा तो क़त्र-ए-खूं न निकला"

सस्नेह

सीताराम चंदावरकर

००००००००००००००







१६०३. घर में नहीं हैं दाम दवा-ओ-खुराक को—ईकविता, २२ जून २००८


घर में नहीं हैं दाम दवा-ओ-खुराक को
ए ज़िंदगी क्या नाम दें ऐसे मज़ाक को

दुनिया रही न दर रहा, माज़ी निगल गया
बस रह गया कुरेदना यादों की ख़ाक को

हम को मिला है आज वफ़ाओं का ये इनाम
ख़त भेज के पूछा है, हैं राज़ी तलाक को?

जी कर भी साल साठ क्या फ़तह किला किया
अब क्यों न छोड़ दीजिये लिबासे-चाक को

ता-उम्र मैं पढ़ता गया हर इल्म की कि़ताब
पर रह गया पढ़ना ख़लिश कुराने-पाक को.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ जून २००८

000000000000

From: "shyam skha moudgil" p2ptto@yahoo.com

भई वाह ख़लिश जी,खूब दरवेशाना ख्याल उजागर हुए हैं ,रचना में बधाई।

श्याम

०००००००००००००००






१६०४. जिस दिन से कर दिया है ये दिल तेरे हवाले

जिस दिन से कर दिया है ये दिल तेरे हवाले
आंखों ने मेरी कितने ही ख़्वाब देख डाले

सूरज भी अब नया है, रंगीं हैं चांद तारे
इस दिल से तेरी सूरत निकले न अब निकाले

है ताज़गी-ओ-शोखी फूलों में नयी किसम की
एहसास तेरा दिल में रखे हैं हम सम्हाले

पा कर तुझे जहां में सब पा लिया है मैंने
जिस ने जहां में भेजा, चाहे वो जब उठा ले

जब दिल से दिल मिले हैं, किस बात की है परवाह
मुमकिन नहीं ख़लिश कि कोई तुझे चुरा ले.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ जून २००८





















१६०५. ये लग गया है रोग हमको इश्क का जब से—ईकविता, २३ जून २००८


ये लग गया है रोग हमको इश्क का जब से
दुनिया में हम बेकार से ही हो गये तब से

रह रह के आ रहा है दिल में बस यही खयाल
माशूक का दीदार हो जाये किसी ढब से

ग़र इश्क हो जाये रहे न उम्र का खयाल
आशिक बने फिरते हैं, रंगे बाल हैं कब से

किस कद्र है सवार भूत इश्क का हुआ
ये देख दोस्त ने कहा दिल को लगा रब से

जंचती है हर एक चीज़ अपने वक्त पे ख़लिश
तौबा, करेंगे काम न उलटे कभी अब से.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ जून २००८

०००००००००००००
Monday, June 23, 2008 3:48 AM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com
वाह! खलिश साहब, बहुत खूब ---

तुम पूछते हो इश्क बला है कि नहीं है
क्या जाने तुम्हें खौफ़े-खुदा है कि नहीं है

००००००००००००००००







१६०६. यूं तो ज़हन में नाम अल्लाह का खुदा रहा—ईकविता, २३ जून २००८


यूं तो ज़हन में नाम अल्लाह का खुदा रहा
जब इश्क हो गया तो न ख़ौफ़े-ख़ुदा रहा

गो इश्क में सदमा लगे दिल टूट जाये है
हिम्मत में इज़ाफ़ा भी इश्क से सदा रहा

दौरा पड़ा क्यों दिल का परेशां हैं चारागर
बायस नज़र की एक बस तीखी अदा रहा

जिनको न कोई इश्क में मंज़िल हुयी हासिल
उनका ठिकाना हार कर इक मयकदा रहा

यूं तो कमायीं दौलतें हमने भी थीं ख़लिश
पर जीना मुफ़लिसी में किस्मत में बदा रहा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ जून २००८





१६०७. जब दुनिया से जुड़े रहे

जब दुनिया से जुड़े रहे
हमें झमेले बड़े रहे

सबका हुक्म बजाने को
एक पांव पर खड़े रहे

अपने अपनी जिद पर सब
बिना बात के अड़े रहे

दोस्त बने थे जो मेरे
दुश्मन से वो लड़े रहे

ख़लिश न खोदो वो मुर्दे
जो हैं अब तक गड़े रहे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जून २००८





१६०८. तिरछी नज़र का इशारा हुआ—ईकविता, २४ जून २००८


तिरछी नज़र का इशारा हुआ
दिल एक पल में तुम्हारा हुआ

हुकूमत से कदमों में हम आ गये
क्या हाल देखो हमारा हुआ

समझते थे जिसको कि इक ख़ब्त है
वही प्यार हमको गवारा हुआ

रुखसार की इक झलक मिल गयी
ज़न्नत का जैसे नज़ारा हुआ

सिकंदर सा दिल था ख़लिश क्या करें
अश्कों के आगे छुहारा हुआ.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जून २००८
000000000

Tuesday, June 24, 2008 12:18 PM
From: "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com
अब आपने कहने के लिये छोड़ा ही क्या

सिकंदर सा दिल था ख़लिश क्या करें
अश्कों के आगे छुहारा हुआ.
राकेश



१६०९. मैं जहां-जहां गया, रास्ते निकल गये —ईकविता, २४ जून २००८

मैं जहां-जहां गया, रास्ते निकल गये
पांव के तले पहाड़ बर्फ़ के पिघल गये

हार न सका कभी आसमां-ज़मीन से
आंसुओं के धार मेरी हिम्मतों को छल गये

दिल के मामलों पे कुछ ज़ोर न चला मेरा
कुछ अधूरे ख़्वाब थे, बारहा मचल गये

हादसे अज़ीब से ज़िंदगी में यूं हुए
फूल जो न बन सकी, वो कली कुचल गये

भावनाओं के भंवर में घिर के फ़क्त रह गये
जो पढ़े थे पाठ कर्म के सभी विफल गये

अब तो वक्त आखिरी शायद आ गया ख़लिश
ख्याल है ये हर घड़ी, आज हैं कि कल गये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जून २००८
००००००००००००००००००००
from shyam skha moudgil <p2ptto@yahoo.com>
date Jun 25, 2008 7:33 AM
खलिश जी सुन्दर रचना पर बधाई।
हाँ बर्फ़ का काम तो पिघलना ही होता है
अब तो ग्लेस्यिर भी पिघल रहें हैं
इसे दर्द या जुल्म के पहाड़ करें तो कैसा रहेगा

०००००००००००००००००००
Wednesday, June 25, 2008 12:31 AM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com
बढिया गज़्ल बनी है- बधाई खलिश जी। मजरूह की ये पंक्तियां याद आ गई:।

तेरा हाथ हाथ में आ गया के चिराग राह में जल गए

वो सहल हो गई मंज़िलें के हवा के रुख भी बदल गए

००००००००



१६१०. बिंब सब बदल गये

बिंब सब बदल गये
रास्ते धुंधल गये
बढ़ रहे थे राह पर
ठिठक गये, सम्हल गये

राह में न मीत था
सिर्फ़ इक अतीत था
साया एक था मग़र
वो भी कुछ सभीत था

मंज़िलें थीं, खो गयीं
सांस थीं, वो रो गयीं
आह थीं नमी भरी
साथ मेरे हो गयीं

क्यों कहूं कि चल रहा
पांव को हूं छल रहा
ये सफ़र-ए-ज़िंदगी
सच ख़लिश, विफल रहा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जून २००८




१६११. आपका है अख़्तियार, आइये न आइये

आपका है अख़्तियार, आइये न आइये
देख कर हमें सनम, कभी तो मुस्कराइये

मानते हैं नरगिसी आपकी अदा है पर
हम भी कोई कम नहीं, इक नज़र मिलाइये

हुस्न की इबादतों से न हमें गुरेज़ है
नर्मियां तो कुछ हुज़ूर अपने रुख में लाइये

हम गज़ल सुनायें ये न आपको पसंद है
आप ही लबों से कुछ आज तो सुनाइये

फ़ितरतों में आपकी हैं रवानियां मग़र
हम को राह में ख़लिश छोड़ के न जाइये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जून २००८



१६१२. मेरा ये ख़याल था, पास मेरे आयेगी

मेरा ये ख़याल था, पास मेरे आयेगी
मेरे दिल को जीतने, मुझसे मुस्करायेगी

गाम मेरे उठ रहे थे इस तरह कि जैसे वो
दौड़ के स्वयं मेरी बांह में समायेगी

जाने किसलिये मेरे दिल में ये ग़रूर था
मुझसे बढ़ के हमसफ़र न वो और पायेगी

गल्तफ़हमियां मेरी दूर हो गयीं सभी
क्या ख़बर थी वो कभी यूं नज़र चुरायेगी

हम मिले तो इस तरह, शक रहा न कुछ ख़लिश
उसने साफ़ कर दिया, जाम न पिलायेगी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जून २००८



१६१३. मैंने शीशे की तरह दिल में बिठाया तुमको

मैंने शीशे की तरह दिल में बिठाया तुमको
मैंने हर ख़्वाब का है अक्स दिखाया तुमको

मैं ये सोचा किया तुम एक सिरफ़ मेरी हो
सारी दुनिया से सनम मैंने चुराया तुमको

बड़े अरमान से महफ़िल में किया था ऐलान
मैंने पहलू में सरेआम बिठाया तुमको

आज तुम पे नहीं ख़ुद अपने पे शक होता है
ग़ैर की बांहों में हर शाम जो पाया तुमको

मुझे हैरत है कि क्या मुझमें कमी पायी थी
गै़र में क्या था ख़लिश जिसने लुभाया तुमको.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जून २००८



१६१४. मुझे मरने से नहीं जीने से डर लगता है—ईकविता, २५ जून २००८


मुझे मरने से नहीं जीने से डर लगता है
मुझे अब अपना नहीं ग़ैर सा घर लगता है

जो मैं जीऊं तो मेरी सांस घुटी जाती है
मौत में चैन का पुरज़ोर असर लगता है

खा़मखा़ँ गर्दिशो-सहरा में चला जाता हूँ
जिसकी मंज़िल ही नहीं ऐसा सफ़र लगता है

एक तल्खी के सिवा क्या है मेरे जीवन में
सिर्फ़ कांटों से भरा एक शज़र लगता है

तुम्हें जी भर के ख़लिश देख लूं वक्ते-रुखसत
आज के बाद मज़ारों में बसर लगता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ जून २००८
००००००००००००००
Wednesday, June 25, 2008 6:33 AM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com
शायर को जीने से डर लगता है
खुदकुशी का आसार लगता है
०००००००००००




१६१५. मैं कभी इश्क की बात करूं और कभी रुहानी लिखता हूं—ईकविता, २५ जून २००८


मैं कभी इश्क की बात करूं और कभी रुहानी लिखता हूं
जाने क्या है मेरा वज़ूद, नित नई कहानी लिखता हूं

तिफ़्ली की बात करूं इक दिन, दूजे दिन बात लड़कपन की
पीरी पर लिखूं आज तो कल किस्सा-ए-जवानी लिखता हूं

क्यों ढूंढ रहे हो मतलब तुम अशआर के इक-इक मिसरे में
मैं करूं इल्म की बात कभी अल्फ़ाज़ बेमानी लिखता हूं

रस्म और रिवाज़ों से ग़र मैं बंध जाऊंगा तो ये सच है
मेरा क़लाम रुक जायेगा मैं दिल की ज़ुबानी लिखता हूं

इस क़लम में इक आज़ादी है, जब चाहे कुछ लिख देती है
अंकुश का कायल नहीं ख़लिश, हो जहां रवानी लिखता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ जून २००८




१६१६. ये गाल गो हमारे पिचके ही जा रहे हैं—ईकविता, २५ जून २००८


ये गाल गो हमारे पिचके ही जा रहे हैं
मज़बूत थी इमारत, खंडहर बता रहे हैं

हम भी कभी जवां थे, कमसिन दिलों की धड़कन
दिल रुक न जाये अब ये नुस्खे लिखा रहे हैं

क्या वक्त की है अज़मत मालूम पड़ गया है
कुछ दिन तो और जी लें, ये कर दुआ रहे हैं

कम्बख्त दिल है फिर भी शेरो-सुखन का कायल
गज़लों की रोज़ लिख कर गिनती बढ़ा रहे हैं

माद्दा है इनमें कितना, बकवास इनमें कितनी
महफ़िल से फ़ैसला हम ख़ुद ही करा रहे हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ जून २००८
००००००००००००
Wednesday, June 25, 2008 6:28 AM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com
कम्बख्त दिल है फिर भी शेरो-सुखन का कायल

बहुत खूब खलिश साहब! आपकी जवानी और बुढापे - दोनों के सदके़
कर दिया जवानी के शे’र ने हम को घायल
बुढा़पे के सुखन के हम हो गए का़यल
०००००००००००००
Wednesday, June 25, 2008 10:12 AM
From: "shyam skha moudgil" p2ptto@yahoo.com
शे‘र का नाम ही शेर से प्रभावित हो कर दिया गया है ,दोनो केवल घायल जी को ही नही प्रसाद जी को और न जाने किस-किस को घायल करते हैं।
००००००००००००००००००००


१६१७. ख़ुद ज़िंदगी को अपनी नाशाद कर रहे हैं—ईकविता, २५ जून २००८


ख़ुद ज़िंदगी को अपनी नाशाद कर रहे हैं
रातों को नज़्म लिख कर बरबाद कर रहे हैं

अशआर में छिपी है तनहाइयों की तल्खी
महफ़िल में लोग सुन कर इरशाद कर रहे हैं

कोई ख़ुदकुशी करे तो दुनिया को क्यों ख़ुशी हो
हमने कहा मरेंगे, एतमाद कर रहे हैं

हों दोस्त ऐसे तो फिर दुश्मन की क्या ज़रूरत
हम न रहे तो जलसे आबाद कर रहे हैं

जब तक जिये वो लब से तारीफ़ कर न पाये
यादों की महफ़िलों में वो दाद कर रहे हैं

ता-उम्र मुफ़लिसी पर हंसते रहे ख़लिश वो
मरने पे अब कफ़न को इमदाद कर रहे हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ जून २००८
00000000000
Wednesday, June 25, 2008 1:15 PM
From: "mouli pershad" cmpershad@yahoo.com
रातों को नज़्म लिख कर बरबाद कर रहे हैं
क्या कर रहे हो खलिश साहब!

कल्म छोड, शमअ को बुझाओ अभी रात बाकी है
महबूब की आगोश में आओ, अभी रात बाकी है
००००००००००००००००००००००००






१६१८. शायर पे कभी मौत का होता नहीं असर

शायर पे कभी मौत का होता नहीं असर
कर लेता है अशआर से अपने को वो अमर

अश्कों की रौशनाई से लिखता है जो कलाम
सबको मिठास-ओ-ताज़गी देता है वो समर

गो सांस उसकी एक दिन तो थम ही जायेगी
उसका हरा रहेगा बागे-बज़्म में शज़र

है ज़िंदगी उसकी सिरफ़ अहसास से भरी
दुनिया की दौलतों से वो अनजान है बशर

वो इस जहां में हो कि रहे चाहे कहीं और
उसका ख़लिश कटेगा शायरी में ही सफ़र.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ जून २००८



१६१९. याद आ रहा है अब वो गुज़रा हुआ ज़माना

याद आ रहा है अब वो गुज़रा हुआ ज़माना
जब ज़िंदगी थी बस इक एहसास-ए-जानेजाना

जीते थे उसके दम से, मरते थे उसके दम से
था काम इक यही बस, कैसे उसे मनाना

उसकी पलक जो उठती, सूरज उधर था चढ़ता
और रात का सबब था ज़ुल्फ़ों का घिर के आना

क्या कीजिये न बाकी वो दिन न अब वो रातें
तनहाइयों में अब तो जीवन लिखा बिताना

सच है ख़लिश कि उनकी पूरी कमी न होगी
लिखना गज़ल तो केवल यादों का है बहाना.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ जून २००८



१६२०. कुछ लोग हैं जो रब को तोहमत लगा रहे हैं—ईकविता, २५ जून २००८


कुछ लोग हैं जो रब को तोहमत लगा रहे हैं
खल ईश को न जाने क्योंकर बता रहे हैं

यूं तो हुआ न उसके चरणों में प्रीत रखते
जिसने बनाया सबको, उसको बना रहे हैं

कलियुग तो है मग़र ये सोचा कभी न हमने
शैतान और ख़ुदा का अंतर मिटा रहे हैं

बहरों की है ये महफ़िल, तकरीर कर के अंधे
इक दूसरे पे अपना सिक्का जमा रहे हैं

आसार मुल्क का अब होगा कहें ख़लिश क्या
बेफ़िक्र हो के अहमक सबको नचा रहे हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ जून २००८




१६२१. सूरज ढले ज़माना जब घर को जा रहा था—ईकविता, २६ जून २००८


सूरज ढले ज़माना जब घर को जा रहा था
बेमन सा हो के कदमों को वो उठा रहा था

निकला था सुबह घर से, ढूंढेगा नौकरी वो
दिन भर तमाम सबसे, झिड़की ही खा रहा था

न पेट में है रोटी, घर में नहीं हैं दाने
बच्चों को क्या खिलाये, न सोच पा रहा था

ले लो ज़हर ये तीखा, चूहों को मार देगा
करता हुआ ये वादा एक शख़्स आ रहा था

पुड़िया बहुत सी ले कर, पानी से पी गया वो
कल पर ख़लिश उसे अब विश्वास न रहा था.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२६ जून २००८



१६२२. उन्हें हमसे शिकायत है गज़ल लिखते नहीं हैं हम—ईकविता, २७ जून २००८


उन्हें हमसे शिकायत है गज़ल लिखते नहीं हैं हम
असल में बात ये है न रहा अशआर में अब दम

असर लफ़्ज़ों में तब होगा लिखे हों आंसुओं में जब
ये दिल अब रो चुका इतना कि आंसू पड़ गये हैं कम

बनें अश्कों के न मोती न उनमें अक्स हो ग़म का
तो क्या है फ़ायदा लिखने का ग़र आंखें नहीं हों नम

गज़लगो यूं तो लिखते हैं लबो-रुखसार पर अकसर
मग़र हमको रिझाते अब नहीं ज़ुल्फ़ों के पेचोख़म

ख़लिश अब ज़िंदगी की शाम ही दिखती है हर लमहा
ढला माज़ी में महफ़िल की रंगीली शाम का मौसम.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२७ जून २००८



१६२३. समूचे विश्व में फैला, न जाने मंच ये क्या है—ईकविता, २७ जून २००८


समूचे विश्व में फैला, न जाने मंच ये क्या है
कोई बूझे कि शब्दों का महज़ प्रपंच ये क्या है

बहुत रमते हैं दुनिया में, चले है सांस जब तक पर
पखेरू पल में उड़ जाये, बताओ अंत ये क्या है

कभी स्थितप्रज्ञ की बातें, कभी चरचे हैं ज़ुल्फ़ों के
न जाने है ये आवारा, न जाने संत, ये क्या है

न कुछ अरकान का है इल्म, न मिसरों में रंगत है
कहे आशु कवि ख़ुद को, लिखे तुरंत, ये क्या है

जो लिखता है वही जाने, नहीं मतलब निकलता कुछ
कोई पूछे ख़लिश से तो, भला श्रीमंत ये क्या है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२७ जून २००८
००००००००००००

Friday, June 27, 2008 11:07 AM
From: "shyam skha moudgil" p2ptto@yahoo.com
आज इससे ज्यादा खबर ज्वलंत क्या है।आशु-कवि खलिश जी की कविता अनन्त है।
००००००००००००

From: mouli pershad <cmpershad@yahoo. com>
Sent: Friday, June 27, 2008 19:32:35

अंतरजाल हो या विश्वजाल
खलिश ने कर दिया कमाल

००००००००००००





१६२४. एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा—ईकविता, २७ जून २००८


हो ओ ... एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा
एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा
जैसे विक्षिप्त मन, जैसे जर्जर सा तन
जैसे भावों की आग, जैसे भैरवी राग
जैसे भूला सा प्यार, जैसे गाये मल्हार
जैसे किस्मत से अपनी हो लड़ता रहा, हो!
ओ ... एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा!

हो ओ ... एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा
एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा
जैसे नदिया की धार, जैसे रस की फुहार
जैसे बारिश की धूप, जैसे अबला का रूप
जैसे गाने की चाह, जैसे गहरी हो आह
जैसे मां शारदे के चरण में दिया, हो!
ओ ... एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा!

हो ओ ... एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा
एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा
जैसे जनता का यार, जैसे दिल का दुलार
जैसे दुनिया से दूर, जैसे अपने में चूर
जैसे सबका हो दर्द, जैसे आधा हो मर्द
जैसे अर्धनारीश्वर से वर हो मिला, हो!

हो ओ ... एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा
एक कवि को जो देखा तो ऐसा लगा!

--प्रेरणा: श्री ज़ावेद अख़्तर

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२७ जून २००८
०००००००००००००००

Friday, June 27, 2008 3:09 PM
From: "anand krishna" anandkrishan@yahoo.com
waah khalish jee,
bahut badhiyaa anugeet hai, ekdum maulik kaa saamarthy aur saushthav liye.

sadbhaav sahit-
anandkrishan, jabalpur
mobile : 09425800818
०००००००००००००






१६२५. दीपक हूं मैं आज जल रहा, जाने कब बुझ जाना है—ईकविता, २७ जून २००८


दीपक हूं मैं आज जल रहा, जाने कब बुझ जाना है
वास्तव में मैं जलता हूं यह झूठा एक बहाना है

मैं क्या हूं इक निरी विडम्बना, सिर्फ़ सकोरा माटी का
ठेस लगे तो टूट-फूट कर माटी में मिल जाना है

मैं कहता हूं जलता हूं रौशन करता हूं मैं जग को
सच तो यह है बाती को जलने का काज निभाना है

इससे भी है बात गूढ़ यह मूलत: जलता है तेल
उसका काम स्वयं जल कर बाती की लाज बचाना है

सुबह हुआ स्नेह चुक जाता है, बाती, माटी बचे रहें
श्रेय मुझे मिल जाता है यह भोला बहुत ज़माना है

बाती, तेल, सकोरा माटी का, सब गोरखधन्धा है
तीनों को जब लौ मिल जाये दीपक तभी कहाना है

ख़लिश कहे तुम भेद सुनो यह, तन है एक सकोरा बस
मन है स्नेह, बुद्धि है बाती, लौ हरि नाम बताना है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२७ जून २००८
© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
Dr M C Gupta has granted Writing.Com, its affiliates and its syndicates non-exclusive rights to display this work.
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