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Rated: E · Book · Cultural · #1510442
Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775
#627001 added December 31, 2008 at 9:40am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1476- 1500 in Hindi script
१४७६. था बहुत मुझ को जवानी का ग़रूर

था बहुत मुझ को जवानी का ग़रूर
भूल बैठा था ज़माने के शऊर
शाख थी ऊंची जहां मैं चढ़ गया
एक दिन गिरना ही था मुझ को ज़रूर

दोस्त तेरी तो नहीं कुछ भी ख़ता
मांग कर माफ़ी न तू मुझ को सता
शुक्रिया कि रास्ते पर ला दिया
न मुझे मालूम था अपना पता

जाम चाहे एक कड़वा है पिया
दर्द सा महसूस करता है जिया
पर बहुत एहसान मेरा दोस्तो
क्या मेरी औकात है बतला दिया

ज़िंदगी कटती रही, कट जायेगी
और कितने दिन ख़लिश भरमायेगी
मौत आ तू ही गले लग जा मेरे
कब तलक यूं ही मुझे तड़पायेगी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१२ अप्रेल २००८




१४७७. सच ही कहा किसी ने दुनिया दो दिन का बस मेला है

सच ही कहा किसी ने दुनिया दो दिन का बस मेला है
पल दो पल का साथ सभी का इंसां बहुत अकेला है

आज मेरा दिल करता है मैं छोड़ चलूं इस दुनिया को
रम कर इस में पाया दुनिया माया जाल झमेला है

झूठा प्यार दिखा कर कोई झूठी आस बंधा जाता
सांझ हुयी दिन ढला आ गयी फिर चलने की बेला है

कौन किसी का ख्याल करे हैं मगन सभी अपनी धुन में
धक्का-मुक्की, भीड़-भड़क्का, दुनिया तो इक रेला है


ख़लिश उम्र भर ख़ूब कमाया लूटा-झपटा औरों से
आज चला है खाली हाथों पास न कोई धेला है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अप्रेल २००८



१४७८. तेरे चेहरे पे कोई नूर नया लगता है

तेरे चेहरे पे कोई नूर नया लगता है
तेरी नज़रों में कोई ख्वा़ब छिपा लगता है

आज है चाल में मदहोश जवानी की झलक
आज बचपन ने कोई मोड़ लिया लगता है

आज लहराती है ये ज़ुल्फ़ नये ख़म ले कर
राज कोई दिल में तेरे आज निहां लगता है

आज देखा जो तुझे मन में हुयी है हरकत
आज मौसम भी हुआ और जवां लगता है

दिल ये कहता है ख़लिश भूल के ग़म दुनिया के
साथ में तेरे चलूं अब न जिया लगता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अप्रेल २००८




१४७९. किसलिये जीता हूं ये दिल में सवाल आया है

किसलिये जीता हूं ये दिल में सवाल आया है
यूं ही कुछ मन में उदासी का ख़याल आया है

नहीं कुछ बात नहीं तुझ से ख़फ़ा तो मैं नहीं
मुझे तुम पे तो नहीं, ख़ुद पे मलाल आया है

मैंने कुछ भी तो नहीं तुम से कहा है फिर भी
कोई तो बात है चेहरे पे गुलाल आया है

आज क्यों प्यार की राहों में मिला है धोखा
पाक था प्यार मेरा क्यों ये बबाल आया है

बेवफ़ाई ही मिली प्यार में मुझ को है ख़लिश
दिल में ग़म जिस की नहीं कोई मिसाल आया है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अप्रेल २००८




१४८०. मेरी जां जब भी मेरे पास गुज़र जाती हो

मेरी जां जब भी मेरे पास गुज़र जाती हो
मेरे दिल पर कोई बिजली सी गज़ब ढाती हो

मैंने उल्फ़त की निगाहों से तुम्हें देखा है
तुम मुझे हुस्न परी कोई नज़र आती हो

मैंने जब जब भी तुम्हें दिल से भुलाना चाहा
दूर जा के भी खड़ी दूर से मुस्काती हो

क्या करूं कुछ भी नहीं दिल को मेरे सूझे है
रात दिन आ के मेरे ख्वाब में भरमाती हो

कोई तरक़ीब बता दो कि सुकून आ जाये
क्यों ख़लिश एक नज़र को भी यूं तड़पाती हो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अप्रेल २००८



१४८१. आओ एक बार गले से मैं लगा लूं तुम को

आओ एक बार गले से मैं लगा लूं तुम को
फिर से एक बार निगाहों में बिठा लूं तुम को

आखिरी वक्त ये मिलने का ख़तम होता है
कोई पैग़ाम निहां दिल में सुना लूं तुम को

आज के बाद न हो पायेगा मिलना फिर तो
आज की रात मैं बाहों में छिपा लूं तुम को

सांस जितनी थीं मिलीं, आज चुकी जाती हैं
आखिरी सांस है मैं सब से चुरा लूं तुम को

हाथ सीने पे ज़रा रख दो ख़लिश तुम मेरे
खेल रुकती हुयी धड़कन का दिखा लूं तुम को.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अप्रेल २००८



१४८२. यूं वक्तेउम्र गुज़र गया

यूं वक्तेउम्र गुज़र गया
एक था नशा जो उतर गया

कभी ख्वा़ब देखे मदभरे
कभी छा हवा में ज़हर गया

कभी साहिलों की सैर की
कभी डूब गहरे भंवर गया

अब कोई शय भाती नहीं
हो ऐसा मुझ पे असर गया

जब से मिला मौला ख़लिश
जीवन ही मेरा संवर गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अप्रेल २००८



१४८३. आज ख़त आखिरी तुम को ये सनम लिखा है

आज ख़त आखिरी तुम को ये सनम लिखा है
दिल के आंसू में डुबो कर के क़लम लिखा है

मेरी सूरत-ओ-मोहब्बत से तो आज़िज़ हो तुम
क्या अभी और भी किस्मत में सितम लिखा है

छोड़ के दर को तुम्हारे मुझे जाना है किधर
इसी चौखट पे मेरा आखिरी दम लिखा है

कोई दिन आयेगा जब याद करोगे मुझ को
गोया फ़िलहाल रहे तुम को भरम लिखा है

मेरी शिद्दत-ए-मोहब्बत की कसम तुम को ख़लिश
इन्हीं क़दमों में रहे मेरा क़दम लिखा है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ अप्रेल २००८




१४८४. कोई बात है आज शायर हुआ हूं

कोई बात है आज शायर हुआ हूं
कमज़ोर था आज कायर हुआ हूं

बहुत मात खायी है ख़ुद अपने दिल से
किसी की निगाहों का घायल हुआ हूं

दिल में है ताकत अधिक बाजुओं से
जज़्बात का आज कायल हुआ हूं

चाहे मुझे जब थिरक के नचा दे
किसी नाज़नी की मैं पायल हुआ हूं

हारा हुआ इक मुकदमा हूं उन के
दिल की अदालत में दायर हुआ हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१५ अप्रेल २००८





१४८५. मुझे दुनिया में जीने का बहाना कोई तो होता—RAMAS—ईकविता, १० अक्तूबर २००८

मुझे दुनिया में जीने का बहाना कोई तो होता
चलाता तीर मैं भी पर निशाना कोई तो होता

मुझे भी कोई अपना हमसफ़र राहों में मिल जाता
सफ़र के वास्ते मौसम सुहाना कोई तो होता

कोई होता तसव्वुर में तो ये तनहाई कट जाती
जलाता याद की शम्म, पुराना कोई तो होता

कोई अपना कभी होता तभी तो छोड़ कर जाता
न होता वस्ल, फ़ुर्कत का ज़माना कोई तो होता

चलो पूरी हुयी जैसे भी है ये उम्र चुकती है
रहेगा ग़म ख़लिश कि आशियाना कोई तो होता.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१६ अप्रेल २००८




१४८६. हद-बेहद दोनों चले, वाकी मति अगाध—ईकविता, १६ अप्रेल २००८

कविता क्या है?
विस्फोट हृदय के भावों का
इस तरह कि वह लयबद्ध रहे
हो छंद अग़र तो अच्छा है
तुक और मात्रा संग बहे
पर बहे तभी कविता होती
अन्यथा नाम कविता का हो
है शब्दों का कोरा जमघट

जब कहा कबीरा ने इक दिन
कि हद्द चले सो मानव है
बेहद्द चले सो है साधु
हद-बेहद वाला है अगाध
तब शायद उन के मन में भी
ये ख्याल कभी आया होगा
कवि रहे छंद की सीमा में
तो ही वह कवि कहलाता है
कुछ कवि ऐसे भी होते हैं
जो छंद-तंत्र से दूर रह
एक मुक्त राह अपनाते हैं
पर कविता सरित बहाते हैं
वे बेहद चलने वाले हैं
पर मंज़िल वे भी पाते हैं

लेकिन क्या कहिये उन को जो
हद बेहद दोनों चलते हैं
रखते हैं पूरा छंद-ज्ञान
और गज़ल कुंडली लिखते हैं
पर जब मन में इक बाढ़ उठे
और तोड़े छंदों के बन्धन
तो भी बहाव की मर्यादा
का वो निबाह तो करते हैं
और मुक्त छंद में लिखते हैं

वे हद्द चलें, बेहद्द चलें
या हद-बेहद का हों संगम
पारंगत सभी विधाओं के
वे पूर्ण कवि कहलाते हैं
वीणापाणि के चरणों में
लिख लिख आहुति चढ़ाते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१६ अप्रेल २००८




१४८७. मेरे साजन गये परदेस –ईकविता, १७ अप्रेल २००८

मेरे साजन गये परदेस
मैं इस पार, वह उस पार
जाने कौन ज़रिया है
न जाने कौन ताकत है
कि दिल में टीस उठती है
तो लगता है मुझे ऐसा
कि मन है एक, दो तन हैं
व्यथा जाती है साजन तक
उन्हें वापस बुलाती है

कभी ऐसा भी होता है
फड़कती आंख है मेरी
या फिर हिचकी सी आती है
तो यह विश्वास होता है
कि उन को आ रही है याद
मेरी भी किसी पल में

ये क्या है सिर्फ़ पागलपन?
किसी विक्षिप्त मन की कोई तथ्यहीन सी हरकत?
महज़ अज्ञानवश नारी के दुर्बल मन की अलामत?
तसव्वुर और माज़ी में ही जीने की महज़ कोशिश?
कि जो दरपेश है उस से नज़र को फेरने का फ़न?

मैं नारी हूं मुझे शायद नहीं है ज्ञान से परिचय
मग़र मैंने सुना है जो बहुत पंडित हुए कविजन
वे कहते आये हैं कि प्यार सच्चा इस तरह पलता
कि तन दो एक मन की कल्पना चरितार्थ होती है

न जाने वे भी केवल झूठ ही कहते रहे थे क्या
न जाने प्रेम से प्लावित हृदय से मात्र अठखेली
सदा करते रहे थे वाल्मीकि और कालिदास!

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ अप्रेल २००८




१४८८. चलना मुमकिन नहीं अग़र तो आज यहीं हम रुक जायें –RAS--ईकविता, १९ अप्रेल २००८

चलना मुमकिन नहीं अग़र तो आज यहीं हम रुक जायें
बढ़ने से बेहतर है कदमों को पीछे हम लौटायें

अपनी अपनी फ़ितरत है और ख्वाहिश भी अपनी अपनी
निकल पड़े राहों पर तो क्या लाज़िम है मंज़िल पायें

रुसवाई के डर से क्योंकर कै़द करें आज़ादी को
कल तक अनजाने थे, फिर से आज अजनवी कहलायें

बन तो गये हमसफ़र बनें क्यों दोनों इक दूजे पर बोझ
सफ़र नहीं मुमकिन जब नभ में काले बादल गहरायें

दिल को समझा लेंगे कह कर दो दिन साथ तुम्हारा था
तर्क मोहब्बत करने का इलज़ाम किसी पर क्यों लायें

होगी तब तकलीफ़ बहुत जब इस दिल के टुकड़े होंगे
लेकिन अपनी खातिर जंज़ीरें क्यों तुमको पहनायें

चलते हैं हम शाद रहो तुम ख़लिश जहां भी जिस के संग
नहीं करेंगे रुसवा तुम को वादा हम करते जायें.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ अप्रेल २००८


१४८९. तुम हमें भुला देना कह कर आये हैं हम को समझाने

तुम हमें भुला देना कह कर आये हैं हम को समझाने
हम क्या ज़वाब दें उन को ये वो जानें उन का दिल जाने

आसानी से कह बैठे वो मौला हाफ़िज़ हम चलते हैं
जैसे कि पता नहीं उन को इस दिल में हैं सौ अफ़साने

उन को तो लगता था जैसे दो चार दिनों की उल्फ़त है
मालूम नहीं उन को शायद इक पाक मोहब्बत के मा’ने

किस्मत में नहीं लिखा था कि दिन चार ख़ुशी से जी लेते
हम गा लेंगे तनहाई में बरबाद वफ़ाओं के गाने

क्या ख़लिश हमें लाज़िम है क्यों हम भीख मोहब्बत में मांगें
लो तर्क हुआ रिश्ता उन से थे सिर्फ़ हवस के दीवाने.
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ अप्रेल २००८



१४९०. कभी कभी पति पत्नी में भी विकट दरारें पड़ जाती हैं–ईकविता, २१ अप्रेल २००८


कभी कभी पति पत्नी में भी विकट दरारें पड़ जाती हैं
बरछी भाले सज जाते हैं और तलवारें कढ़ जाती हैं

सात वचन जो कभी लिये थे सात दिवस भी टिक न पाये
और दहेज अधिक लाने का पति पत्नी को पाठ पढ़ाये
पत्नी भी है पढ़ी लिखी न सास ससुर से दबने वाली
बात बात पर उन को पहले दिन से ही वो आंख दिखाये

ऐसी हो शुरुआत तो राहें किस मंज़िल को जा पायेंगी
उन के दांपत्य जीवन में ख़ुशियां कैसे आ पायेंगी

किसी समय पत्नी कहती थी डोली में तुम मुझ को लाये
इस चौखट के बाहर जाऊं केवल तब जब अर्थी जाये
आज ज़माना बदल गया है नारी में शक्ति जागी है
मेरी मानो या तलाक ले लूंगी घुड़की नित्य सुनाये


ये तो इक दिन होना ही था कब तक वह अंकुश को सहती
आज मुखर हो पायी है वह कुंठा तो मन में थी रहती

पति अग़र सीमायें लांघे उस पर हैं कानूनी बंधन
लेकिन सामाजिक बंधन में बंध कर पत्नी करती क्रन्दन
कानूनी फन्दों ने कितने पुरुषों को घेरा है अब तक
नारी की सामर्थ्य शक्ति को करना ही होगा अभिनन्दन

युगों युगों से पीड़ा सह कर नारी फिर भी मुस्काती है
इसीलिये तो संस्कृति की नारी रक्षक कहलाती है

कौन गल्त है कौन सही है, विश्लेषण में क्या रखा है
नारी को किस तरह दबाया इतिहासों में लिखा रखा है
पिछली पीढ़ी के ज़ुल्मों का कुछ तो असर भुगतना होगा
इस समाज को नारी ने ही तो अक्षुण्ण बना रखा है

पति-पत्नी की भाग्य रेख तो लिखने वाला और है कोई
पर विडम्बना है कि भुगतने वाला प्राणी और है कोई.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ अप्रेल २००८



१४९१. कसम प्यार में तो सभी हैं खाते, कहां हैं कसमें निभाने वाले–ईकविता, २१ अप्रेल २००८


कसम प्यार में तो सभी हैं खाते, कहां हैं कसमें निभाने वाले
मर जायेंगे है आसान कहना, कहां हैं पर जां लुटाने वाले

हीर और रांझा की जो मिसालें देते हैं कोई पूछे उन्हीं से
कहां हैं सपनों में प्रेमिका की बिन देखे सूरत बनाने वाले

लैला मजनू के प्यार का कोई हो ज़िक्र तो कोई इतना बता दे
कहां हैं जो छोड़ें खाना पीना, दम तोड़ कर के मर जाने वाले

शीरी-ओ-फ़रहाद थे प्यार करते लेकिन हैं कितने फ़रहाद जैसे
अफ़वाह सुन के नहीं रही वो, कुदाली ख़ुद पे चलाने वाले

सोहनी महीवाल की दास्तां पे ख़लिश ये पूछे कहां बचे हैं
कच्चे घड़े के घुलने पे खुद को चढ़ती नदी में डुबाने वाले.


• पंजाब की उपरिलिखित चार प्रेम कथाओं के बारे में पढ़ें:

http://in.hindi.yahoo.com/Literature/Romance/0702/08/1070208044_1.htm
http://in.hindi.yahoo.com/Literature/Romance/0705/03/1070503027_1.htm
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshowpics/msid-2765070.cms
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshowpics/msid-2765071.cms

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ अप्रेल २००८
००००००००००००
From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com
Date: Mon, 21 Apr 2008 10:16:30 -0700 (PDT)

कभी मफ़्तूं ने भी कहा था
दिलों मे उल्फ़ते बाहम का दम तक जोश होता है
मरे का तो जनाज़ा भी बवाले दोश होता है

कसमे-मुहब्बत निभाने के लिए बधाई
०००००००००००००००००




१४९२. अब राजा भोज नहीं कोई, साहित्यकारों को पूछे –ईकविता, २१ अप्रेल २००८


अब राजा भोज नहीं कोई, साहित्यकारों को पूछे
सरकार नये युग की है ये बस चाटुकारों को पूछे

जब फ़िल्मों और क्रिकेट के हीरो वेतन लेंगे दस करोड़
लेखक की परवाह कौन करे, उन के शाहकारों को पूछे

इन्फ़ोर्मेशन टेक्नोलोजी और मेनेजमेंट की दुनिया में
कौन हिन्दी संस्कृत पढ़ने वाले इन बेचारों को पूछे

जिन के ग्रंथों को पुरस्कार थे दिये कभी सम्मानित कर
कोई तो हो उन वयोवृद्ध असहाय बिमारों को पूछे

हो गया समाज रोगी है, अपनी मूल संस्कृति भूला है
है कौन ख़लिश जो बूढ़े चेतक और सवारों को पूछे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ अप्रेल २००८
०००००००००००००००००
From: "Prem Sahajwala" <pc_sahajwala2005@yahoo.com
Date: Mon, 21 Apr 2008 11:06:50 -0700 (PDT)

यह पंक्तियाँ सचमुच हृदय को छू जाती हैं -

जिन के ग्रंथों को पुरस्कार थे दिये कभी सम्मानित कर
कोई तो हो उन वयोवृद्ध असहाय बिमारों को पूछे

प्रेम सहजवाला
०००००००००००००००००





१४९३. करीब जा के मैं क्या करूंगा

करीब जा के मैं क्या करूंगा
घूंघट उठा के मैं क्या करूंगा

जो चान्द अब तक था आसमां पे
ज़मीं पे पा के मैं क्या करूंगा

वे बस चुके हैं कभी के दिल में
दिल से लगा के मैं क्या करूंगा

जब मिल चुके हैं दो दिल हमारे
नज़रें मिला के मैं क्या करूंगा

ख़लिश जानते हैं वो राज़ेदिल को
गज़ल सुना के मैं क्या करूंगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ अप्रेल २००८


१४९४. न मेरे दिल में अब आरज़ू है

न मेरे दिल में अब आरज़ू है
न मेरी बाकी अब जुस्तज़ू है

किसी भी ज़ानिब नज़र उठाऊं
मेरी निगाहों में तू ही तू है

तुझे याद करते ही जान निकले
दिल में मेरे बस ये एक खू है

हर एक शय में ऐ मेरे मौला
तेरी खुदाई की एक बू है

ख़लिश भुला दे गुनाहेइंसां
खुदा की इस में ही आबरू है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ अप्रेल २००८



१४९५. जिस ने मेरे दिल को तोड़ा गै़र नहीं अपना ही था

जिस ने मेरे दिल को तोड़ा गै़र नहीं अपना ही था
गै़रों में तो क्या दम था अपनापन इक सपना ही था

दिल में चोट लगी थी मेरे दुनिया को अठखेली थी
मेरे आंसू कौन देखता जग को तो हंसना ही था

सज़ा ज़माने से पायी है, बिना इज़ाज़त प्यार किया
गुनाह किया जो उस का मुझ को प्रायश्चित करना ही था

सूली आज चढ़ेंगे लेकिन दिल में है अफ़सोस नहीं
मरे इश्क में हमें फ़ख्र है, इक दिन तो मरना ही था

आज नहीं तो कल जी लेंगे संग तुम्हारे उस जग में
इस जग से तो कूच एक दिन ख़लिश हमें करना ही था.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ अप्रेल २००८



१४९६. बहुत करते हैं जो बातें न वो वादे निभाते हैं – RAS--ईकविता, २३ अप्रेल २००८

बहुत करते हैं जो बातें न वो वादे निभाते हैं
जो कश्ती को चलाते हैं वही कश्ती डुबाते हैं

नहीं संकोच के कायल रहे हैं आज के नेता
प्रशस्ति पत्र अपने आप ही सब को सुनाते हैं

जो अपने को बताते थे कि हम हैं देश के सेवक
मिले मौका तो अपने देश को ही बेच खाते हैं

जो बातें कर रहे हैं आज इंसां से मोहब्बत की
वही तलवार गरदन पे ग़रीबों की चलाते हैं

जो सब से कह रहे हैं सादगी की ज़िन्दगी बेहतर
वो अपने हाथ से न एक तिनका भी उठाते हैं

मैं जितना भी ये चाहूं याद मुझ को न कभी आयें
वो उतना ही पलट कर के मेरे ख्वाबों में आते हैं

ख़लिश उन को ही मिलता है सुकूं सच्चा ज़माने में
जो अपना दिल ख़ुदा से न कि इंसां से लगाते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ अप्रेल २००८




१४९७. वो मेरे मन की बातों को जाने कैसे पढ़ लेते हैं

वो मेरे मन की बातों को जाने कैसे पढ़ लेते हैं
फिर उन बातों के उत्तर भी पल भर में वो गढ़ लेते हैं

हैं एक जिसम दो दिल ये तो मिलता है लिखा किताबों में
जामा-ए-असली में ख्यालों को कैसे वो मढ़ लेते हैं

शायद कोई जादूगर हैं वो या कोई तिलस्मी ताकत है
जिस के बल पर वो किले हवा में लाख खड़े कर लेते हैं

करते हैं हम को प्यार बहुत बस यही अदा तो ज़ालिम है
गलती हम से हो जाये मग़र इलज़ाम वो ही सर लेते हैं

दिल में हम कितने गुस्सा हों, न मिलने की कसमें खायें
पर दिल का ख़लिश गु़बार सभी वो पल भर में हर लेते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ अप्रेल २००८



१४९८. ख़म ज़ुल्फ़ में जो पड़ गया वो हो गये बेचैन

ख़म ज़ुल्फ़ में जो पड़ गया वो हो गये बेचैन
नज़रें जो हम से मिल गयीं तो झुक गये दो नैन

तारीफ़ क्या उन की करें तासीर ही उन की
ऐसी है कि रौशन करे वो स्याह अंधेरी रैन

हम देखते ही रह गये देखा जो एक बार
न रात को है नींद न दिन को हमें है चैन

लब फूल से नाज़ुक हैं तो आवाज़ क्या होगी
जाने मिलेंगे कब हमें सुनने को उन के बैन

है प्यार अब उन से ख़लिश मज़हब कोई भी हो
क्रिस्तान या मुस्लिम हों वो हों बौद्ध चाहे जैन.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ अप्रेल २००८


१४९९. यूं मौन रहो न महाकवि तुम –RAS-- ईकविता, २३ अप्रेल २००८

यूं मौन रहो न महाकवि तुम

क्यों आज लेखनी सुप्त हुयी
वह क्यों कुंठित अभिशप्त हुयी
क्योंकर दामिनि अशक्त हुयी
दुन्दुभि बजाओ अब कवि तुम

जग आज ताकता है तुम को
इतिहास आंकता है तुम को
छ्न्द आज मापता है तुम को
शब्दों को छू लो उठ कवि तुम

तुम नहीं तो कौन प्रकाश करे
कांटों को कौन पलाश करे
और पतझड़ को मधुमास करे
लेखनी उठाओ हे कवि तुम

कर दो नीरव में कोलाहल
सूखे में तुम कर दो बादल
तुम निरीह स्वरों में भर दो बल
कुछ गान सुनाओ तो कवि तुम

यूं मौन रहो न महाकवि तुम

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ अप्रेल २००८
००००००००००००
Thursday, 24 April, 2008 2:03 AM
From: "Kavi Kulwant" kavi_kulwant@yahoo.com
महेश जी आप तो शायरी के साथ साथ गीतों के भी मर्मज्ञ हैं...
कवि कुलवंत
०००००००००००००




१५००. मत करो शिकायत काम करो

मत करो शिकायत काम करो

यह कुछ लोगों की आदत है
जो राज तंत्र की ताकत है
उस में न कहें लियाकत है
क्यॊ मग़र स्वयं न काम करो

औरों की आलोचना करें
बिन कारण ही भर्त्सना करें
कुछ अपने हाथों से न करें
क्यों न तुम कम आराम करो

बैठे बैठे बातें करना
रंगीन मुलाकातें करना
बस औरों पर घातें करना
क्यों इन पर नहीं विराम करो

जो अपने पैरों चलते हैं
रस्ते उन के ही फलते हैं
जो हाथों को ही मलते हैं
उन सा न कोई काम करो

मत करो शिकायत काम करो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ अप्रेल २००८





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