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Rated: E · Book · Cultural · #1510442
Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775
#626990 added December 31, 2008 at 9:22am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1301- 1325 in Hindi script

१३०१. बुलाया बहुत न वो इक बार आये —२० जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २० जनवरी २००८ को प्रेषित--RAMAS


बुलाया बहुत न वो इक बार आये
चले जा रहे है वो नज़रें चुराये

इशारे किये और संदेसे भी भेजे
उन्हें प्यार की राह हम ला न पाये

कभी उनके दिल से न आवाज़ आई
कई राग छेड़े, कई गीत गाये

चेहरे पे उनके शिकन भी न आयी
उन्हें दाग़ दिल के हज़ारों दिखाये

अग़र वो न आये तो जी न सकेंगे
ख़लिश कोई कैसे उन्हें ये बताये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ जनवरी २००८
[तर्ज़—वो जब याद आये, बहुत याद आये]






१३०२. तुम अगर मिल भी गये मुझ को सनम क्या होगा —१९ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २० जनवरी २००८ को प्रेषित

तुम अगर मिल भी गये मुझ को सनम क्या होगा
होगा वो ही तो जो तकदीर में लिखा होगा

लोग मिल के भी ज़माने में बिछुड़ जाते हैं
क्या भरोसा है कि ये मिलना हमेशा होगा

प्यार की राह में खु़शियां मैं चला था ले कर
न ये मालूम था संगीन तज़ुर्बा होगा

जिसे वादी-ओ-चमन सोच के चाहा था कभी
ये न एहसास था इक रोज़ बियाबां होगा

राहेउल्फ़त पे चले तब न ख़लिश जाना था
तेरी महफ़िल में कभी चाक गिरेबां होगा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ जनवरी २००८





१३०३. खोये रहते हो खयालों में ख़बर कुछ भी नहीं —१८ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २० जनवरी २००८ को प्रेषित

खोये रहते हो खयालों में ख़बर कुछ भी नहीं
दोस्त करते हैं नसीहत तो असर कुछ भी नहीं

किन्हीं ख्वाबों में तसव्वुर में मगन रहते हो
तुम्हें क्यों अपने ही दिल पर है ज़बर कुछ भी नहीं

इन्हीं सपनों के महल में जो जियोगे केवल
तो फिर होने में सौदाई कसर कुछ भी नहीं

एक इंसान को माहताब समझने वाले
है ये सच्चाई कि लफ़्ज़ों का समर कुछ भी नहीं

आसमान और सितारों से उतर आओ ख़लिश
क्या ज़माने की हकीकत की डगर कुछ भी नहीं.

* लफ़्ज़ों का समर = शब्द जाल से रचित फल

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ जनवरी २००८








१३०४. नारी भी इक इंसां है मत देवी उसे बनाओ तुम —२४ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २४ जनवरी २००८ को प्रेषित


नारी भी इक इंसां है मत देवी उसे बनाओ तुम
भला फ़रिश्तों जैसी क्यों उस से उम्मीद लगाओ तुम

उस के भी दिल में जज़्बे हैं, उन को पूरा होने दो
कह कर देवी मत उस को रस्मों की भेंट चढ़ाओ तुम

औरत को भी हक है चाहे जैसे जिये ज़माने में
बरबस मत आदर्शों के घेरे में उसे बिठाओ तुम

दुनिया की बगिया में इन रंगीं कलियों को खिलने दो
सज़ा मौत की खिलने से पहले मत इन्हें सुनाओ तुम

एक समय था सती सती बना कर उस की चिता सजाते थे
आज डाल केरोसिन बहुओं को मत ख़लिश जलाओ तुम.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ जनवरी २००८









१३०५. हम सोचते हैं किसलिये ये प्यार कर लिया —२२ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २२ जनवरी २००८ को प्रेषित--RAMAS


हम सोचते हैं किसलिये ये प्यार कर लिया
नाहक ही अपने दिल को यूं बीमार कर लिया

कब आशिकों पर हुयी है दुनिया ये मेहरबां
दुश्मन ये खामख्वाह सब संसार कर लिया

हमको मिला क्या प्यार में रुसवाई के सिवा
दामन पे अपने दाग़ ये बेकार कर लिया

हम जानते हैं वो न आयेंगे पलट के अब
जब याद आये ख़्वाब में दीदार कर लिया

देते उन्हें हम बेगुनाही का सबूत क्या
घबरा के ख़लिश ज़ुर्म का इकरार कर लिया.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ जनवरी २००८






१३०६. मैं तुम्हारी कल्पना के जोर पर जीता रहा हूं — एक और गज़ल, ई-कविता को २२ जनवरी २००८ को प्रेषित


मैं तुम्हारी कल्पना के जोर पर जीता रहा हूं
पूर्ण लगता हूं मग़र घट एक मैं रीता रहा हूं

सिर्फ़ है खाली लिफ़ाफ़ा क्या करोगे खोल कर
मैं चमकता एक रंगीं बाहरी फ़ीता रहा हूं

एक कुर्ता है बदन पर राह के कांटों से वो भी
आये दिन फटता रहा है आये दिन सीता रहा हूं

मुफ़लिसी में मय मुयस्सर हो नहीं पायी कभी भी
जाम के बदले हमेशा अश्क मैं पीता रहा हूं

आज मुस्तकबिल की जानिब बढ़ रहा है ये ज़माना
मैं ख़लिश माज़ी का लमहा सिर्फ़ इक बीता रहा हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ जनवरी २००८





१३०७. तुम को मैंने अपना समझा ये कैसी नादानी थी —२३ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २३ जनवरी २००८ को प्रेषित


तुम को मैंने अपना माना ये कैसी नादानी थी
जिसे हकीकत रहा समझता वह तो एक कहानी थी

तुम ने जो बेकार जान कर पुर्ज़ा इक दिन फैंका था
मैंने सोचा वही तुम्हारे दिक की एक निशानी थी

आशिक तुम्हें बहुत हैं तुम को खोने की परवाह क्यों हो
मग़र लुटायी मैंने जो वो इक अनमोल जवानी थी

मैंने तो सोचा था भूल गया हूं वो किस्सा कब का
आंसू निकले आज देख कर गो तसवीर पुरानी थी

तर्क हुआ ये रिश्ता अपना कभी न अब मिलना होगा
लिखी आखिरी गज़ल आज है तुम को ख़लिश सुनानी थी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ जनवरी २००८





१३०८. हम को न पता था ये राहें चुक जायेंगी —२७ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २७ जनवरी २००८ को प्रेषित


हम को न पता था ये राहें चुक जायेंगी
मंज़िल न कभी हम को लेकिन मिल पायेंगी

सोचा न कभी पूछेंगी क्यों तुम संग चले
ताने दे कर राही को ही समझायेंगी

जब तर्क हुआ रिश्ता, न गुमां था हम को तब
कुछ धुंधली सी तस्वीरें यूं तड़पायेंगी

हम प्यार न करते ख़बर अग़र हम को होती
दिल में नश्तर यादें हर रात लगायेंगी

उन राहों को हम हरगिज़ भूल न पायेंगे
वो ख़लिश कोई भूला अहसास दिलायेंगी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ जनवरी २००८





१३०९. हर तरफ़ है उठा आज इक शोर सा खलबली इक अजब है शहर में मची —२६ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २६ जनवरी २००८ को प्रेषित


हर तरफ़ है उठा आज इक शोर सा खलबली इक अजब है शहर में मची
आज कहते हैं फिर एक बहू जल मरी, ज़ुल्म ससुराल के और सह न सकी

जिस घड़ी पैर ससुराल में था पड़ा उस घड़ी सास ताने सुनाने लगी
देख कर सास की वो घिनौनी शकल रह गयी देखती आंख उस की ठगी

रीत क्यों ये दहेजी चली आ रही गो कि कानून कितने बनाये गये
छप रही है ख़बर इस तरह आये दिन फिर चिता नई बहू की किसी घर सजी

ब्याह की रस्म निबटी भी न थी अभी रस्म लेने-ओ-देने की चालू हुयी
थी ख़ुशी खोखली वो बहू के लिये एक शहनाई कूच-ए-जहां की बजी

मौत की चीख सब ने सुनी अनसुनी कर गये सब अलमदार इखलाक के
सिलसिला यूं ही बेखौफ़ चलता रहा, चोट दिल में किसी के ख़लिश न लगी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ जनवरी २००८





१३१०. ग़र हमें हाथ न मिल सका आप का तो फ़रक क्या जहां में जिये न जिये —एक और गज़ल, ई-कविता को २५ जनवरी २००८ को प्रेषित


ग़र हमें हाथ न मिल सका आप का तो फ़रक क्या जहां में जिये न जिये
आप धड़कन में दिल की समाये हुए, नाम होठौं से चाहे लिये न लिये

आप जो न मिले टूट जायेगा दिल, आप से हम जुदाई न सह पायेंगे
प्यार करते हैं, होंगे फ़ना प्यार में, और कुछ हम जहां में किये न किये

जाम है एक देता नशा उम्र भर और दूजा नशा सिर्फ़ है रात का
जाम आंखों से हम को पिला दीजिये, जाम प्यालों से मय के पिये न पिये

शिद्दतें इश्क की इस कदर बढ़ गयीं आप हम को नज़र आ रहे चार सू
थामना है कलेजा तो हर हाल में, आप ने दर्द हम को दिये न दिये

कुछ हमारा भी हक है ख़लिश आप पर याद कीजे कभी आप थे हमसफ़र
ग़ैर पे आप मर जायेंगे इस तरह तो भले आप के हम हुए न हुए.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ जनवरी २००८







१३११. जो आंख से टपका है, पानी या लहू, क्या है —एक और गज़ल, ई-कविता को २८ जनवरी २००८ को प्रेषित


जो आंख से टपका है, पानी या लहू, क्या है
क्या रिश्ता-ए-बेटा है, रिश्ता-ए-बहू क्या है

क्यों अश्क बहाते हो, पूछे जो कभी दुनिया
ये मामला घर का है, सब से मैं कहूं क्या है

बेटे से, बहू से कुछ कहना भी नहीं मुमकिन
ये ज़िन्दगी भी जिस में,घुट घुट के रहूं, क्या है

मैं तनहा भी ख़ुश था घर बार नहीं था जब
दस्तूर कि मैं घर में तनहाई सहूं, क्या है

कोई ख़लिश बताये तो वो सफ़र कि मैं जिस में
बिन पाल की कश्ती में मझधार बहूं, क्या है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२८ जनवरी २००८



१३१२. जो दिल में दर्द बढ़ता है, गज़ल बन के निकलता है —एक और गज़ल, ई-कविता को २८ जनवरी २००८ को प्रेषित


जो दिल में दर्द बढ़ता है, गज़ल बन के निकलता है
कदम इंसां जो रखता है वही पीछे फ़िसलता है

कभी सोचा था दिल को मैं कभी न डूबने दूंगा
ज़खीरा ग़म का ऐसा है, सम्हाले न सम्हलता है

लगी है आग सीने में कि सारी जल गयीं ख़ुशियां,
जो शिद्दत हद से बढ़ जाये तो पत्थर भी पिघलता है

ज़ुबानेशायरी में तो सुना था पर हकीकत में
ये देखा आज ख़ुद इक बाग़बां कलियां मसलता है

दफ़न सब कर दिये अरमान मैंने तो ख़लिश कब के
बचा कर एक रखा था वही रह रह मचलता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२८ जनवरी २००८

0000000000000
Date: Mon, 28 Jan 2008 23:03:14 -0000
From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com> Add
खलिश जी
ग़ज़ल अच्छी लगी।
००००००००००००


१३१३. मैं सीधा-सादा शायर हूं, न अलंकार का ज्ञानी हूं

मैं सीधा-सादा शायर हूं, न अलंकार का ज्ञानी हूं
उपमाओं की पहचान नहीं कोरा उज्जड अज्ञानी हूं

जीवन यापन कर लेता हूं कुछ लिख लेता गा लेता हूं
हूं शून्य अंक जिस का अस्तित्व नहीं बिलकुल बेमानी हूं

जीवन भर हाथ न फैलाया अनुकम्पा है परमेश्वर की
देने को कुछ भी पास नहीं किस तरह कहूं मैं दानी हूं

कुछ रूप नहीं कुछ रंग नहीं कैसे मैं ख़ुद पर मान करूं
दिल के कोने में छिपी हुई मैं याद कोई अनजानी हूं

इक कदम बढ़ा न राहों पर मैं मंज़िल को पाता कैसे
लहरों से मुझ को काम नहीं जो ठहर गया वो पानी हूं

ग़म की शिद्दत जब बढ़ती है बह लेते हैं चश्मे मेरे
सूखा भी हूं गहरा भी हूं, मैं दरया इक तूफ़ानी हूं

फ़ाकामस्ती का शौक मुझे बंधन में कभी न बंध पाया
दिल में ख़ुद आग लगाता हूं मैं ख़लिश गज़ब का फ़ानी हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ जनवरी २००८




१३१४. न मुझे लिपटे कोई, न गुल न ख़ुशबू चाहिये —३० जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को २९ जनवरी २००८ को प्रेषित


न मुझे लिपटे कोई, न गुल न ख़ुशबू चाहिये
सिर्फ़ तनहाई मुझे दुनिया में हर सू चाहिये

लुट गया मेरा गुलिस्तां, आज सहरा में है घर
दोस्त जो मुझ पे हो मेहरबान अब क्यूं चाहिये

हर कोई लड़की समझती हुस्न की मलिका है वो
है यही दरकार शौहर एक गबरू चाहिये

कोई लैला सी वफ़ा भी तो दिखाये आजकल
प्यार करने को सभी को एक मजनू चाहिये

इश्क की कर के इबादत न मिला दुनिया में कुछ
जो इबादत में रहे मौला की वो रूह चाहिये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ जनवरी २००८






१३१५. थी मेरे दिल में तमन्ना पा सकूं तुम को कभी

थी मेरे दिल में तमन्ना पा सकूं तुम को कभी
इश्क के अहसास तक मैं ला सकूं तुम को कभी

प्यार के अरमान तो इस दिल में आये बारहा
पर न ये मुमकिन हुआ जतला सकूं तुम को कभी

मैं हकीकत की ज़मीं पर तुम फ़लक पर हो मग़र
मुझ में वो शिद्दत नहीं पिघला सकूं तुम को कभी

काश कर सकता तुम्हें रंगीन तोहफ़े मैं नज़र
हो न पाया ये कि मैं बहला सकूं तुम को कभी

ग़म तुम्हारा देख कर रोया किया मेरा ज़िग़र
पर ख़लिश न हो सका सहला सकूं तुम को कभी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ जनवरी २००८




१३१६. मत सुनाओ तुम मुझे पुर-दर्द अपनी दास्तां —८ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ८ फ़रवरी २००८ को प्रेषित


मत सुनाओ तुम मुझे पुर-दर्द अपनी दास्तां
आंसुओं के छोड़ जायेगी मेरे दिल पे निशां

और का ग़म देख कर फिर याद आता है मुझे
जल गया छोटा सा जो था इक बनाया आशियां

देख कर रंगीं इशारे मैं भी मचला था कभी
कत्ल कर बैठा हूं अपनी हसरतें सारी जवां

संगदिल हैं इस ज़मीं के लोग क्या रोयेंगे वो
साथ मेरे आज कितना रो रहा है आसमां

दिल हुआ छलनी कभी का हो चुके टुकड़े बहुत
सह न पाऊंगा ख़लिश अब और ये ग़म का समां.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ जनवरी २००८

०००००००००००००

From: "Himanshi Khare" <himanshikhare@yahoo.com>
Date: Sat, 9 Feb 2008 11:00:58 -0800 (PST)
आप का जवाब नहीं.
आपसे बहुत सी बातें
सीखना चाहती हूँ.
पर .......
हिमान्शी



१३१७. यादों के अंगारे मेरे दिल में शोले भड़काते हैं —६ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ६ फ़रवरी २००८ को प्रेषित


यादों के अंगारे मेरे / दिल में शोले भड़काते हैं
तनहाई में रोता हूं जब / दुनिया वाले सो जाते हैं

वो चला गया पर बसा हुआ है अभी तसव्वुर में मेरे
जो बीत गये दिन वो दिल में / बरबस ही आंसू लाते हैं

ऐ मुझे सताने वाले तू / भूला असूल है कुदरत के
औरों को दुख देने वाले / कब दुनिया में सुख पाते हैं

झुठलाना किसी हकीकत को / मुमकिन कैसे हो पायेगा
दुनिया का है दस्तूर यही / जाने वाले कब आते हैं

तुम जीने का अंदाज़ ख़लिश / उन से जा कर सीखो जो कि
ऊपर से तो मुसकाते हैं / दिल ही दिल में ग़म खाते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२९ जनवरी २००८

०००००००००००००००

From: "Om Dhingra" <ceddlt@yahoo.com>
Date: Wed, 6 Feb 2008 08:11:48 -0800 (PST)

Khalish ji,
Gazal achi hai.Tanhi me rota hu jab dunia wale sojate hai.
Kisi shair ne likha hai "Main chupke chupke rota hu jab sara
alam sota hai"Ap ki kae gazalen dil ko chu gai hai.

SudhaOmDhingra

००००००००००००००





१३१८. मैंने सूरज से अधिक हुस्न जवां देखा है —३१ जनवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ३० जनवरी २००८ को प्रेषित


मैंने सूरज से अधिक हुस्न जवां देखा है
मैंने गर्दिश का लकीरों में निशां देखा है

मैंने देखी है थिरकती हुई ज़ुल्फ़ों की महक
मैंने सांसों के तड़पने का समां देखा है

मैंने चेहरों पे तबस्सुम की किरण देखी है
मैंने अश्कों का बहुत दौरेरवां देखा है

अजनबी है वो मग़र लगता है पहचाना सा
कोई मंज़र है कहीं मैंने जहां देखा है

जरा जज़्बात सम्हालो न हो हैरान ख़लिश
उसे ख्वाबों के सिवा और कहां देखा है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३० जनवरी २००८

००००००००००००००
From: "ramadwivedi" <ramadwivedi@yahoo.co.in>
Date: Wed, 30 Jan 2008 17:16:30 -0000
--- वाह क्या बात है खलिश जी,बहुत सुन्दर...खासकर ये पंक्तियां ...बधाई...

मैंने सूरज से अधिक हुस्न जवां देखा है
> मैंने गर्दिश का लकीरों में निशां देखा है
>
> मैंने देखी है थिरकती हुई ज़ुल्फ़ों की महक
> मैंने सांसों के तड़पने का समां देखा है
>
डा. रमा द्विवेदी
००००००००००००००००००



१३१९. तुम गये हो वर्ष साठ हो गये —१ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ३० जनवरी २००८ को प्रेषित


तुम गये हो वर्ष साठ हो गये
चाहने वाले तुम्हारे खो गये

थी कभी तस्वीर पहले पृष्ठ पर
आज तो अख़बार से भी लो गये

सूखती सी दिख रहीं वो क्यारियां
बीज जिन में प्यार के तुम बो गये

सल्तनत बर्तानिया की फैंक दी
दाग़-ए-गु़लामी-ए-भारत धो गये

पेशतर इस के कि बदहाली-ए-हिन्द
देखते, बापू समाधि सो गये.

--बापू की साठवीं पुण्य तिथि पर
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३० जनवरी २००८




१३२०. हर तरफ़ अब गर्दिशों का राज है —२ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ३१ जनवरी २००८ को प्रेषित


हर तरफ़ अब गर्दिशों का राज है
बेसुरा अब ज़िंदगी का साज़ है

किस तरह अपनी बयां हस्ती करूं
जैसे बिन ऊंचाई का परवाज़ है

मेरे दिल में आ के कोई देख ले
ज़िंदगी मेरी खुला इक राज़ है

फट गया दामन मग़र है पाक ये
जो किया है उस पे फ़ख्रोनाज़ है

जी चुका काफ़ी ख़लिश अब लौट आ
आ रही इक दूर से आवाज़ है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३० जनवरी २००८










१३२१. किसलिये तुम आज यूं खामोश हो —३ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ३१ जनवरी २००८ को प्रेषित--RAMAS


किसलिये तुम आज यूं खा़मोश हो
थक गये हो या हुए मदहोश हो

कौनसा रिसने लगा है ज़ख्म फिर
कर रहे किस बात का अफ़सोस हो

कौन सह पायेगा ये दर्दो-सितम
इससे तो बेहतर है दिल बेहोश हो

बाजुओं में जब नहीं ताकत रही
किसलिये सीने में कोई जोश हो

दिल में क्या है राज़ कुछ बतलाओ तो
आज क्यूं हमसे ख़लिश रूपोश हो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३० जनवरी २००८



१३२२. आज क्यों मु्झ से हुए नाराज़ हो —४ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ३१ जनवरी २००८ को प्रेषित


आज क्यों मु्झ से हुए नाराज़ हो
एक तुम ही तो मेरे हमराज़ हो

थक गया हूं आज मैं कर के उम्मीद
दे रहे क्यों आज न आवाज़ हो

धूल हूं मैं तो तुम्हारे पांव की
एक तुम ही तो मेरे सरताज हो

ज़िन्दगी तुम बिन अधूरी है मेरी
पंख मैं हूं तुम मेरे परवाज़ हो

है अधूरा गीत ये तुम बिन ख़लिश
राग मैं तुम राग का आगाज़ हो.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३० जनवरी २००८







१३२३. भुला दी वो कसम जो प्यार में खायी कभी हम ने —५ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ५ फ़रवरी २००८ को प्रेषित--RAMAS


भुला दी वो कसम जो प्यार में खायी कभी तुमने
भुला बैठे हैं देखे प्यार में जो भी हसीं सपने

नहीं है चैन दिल को, थक गयीं आंखें न वो आये
नहीं मुमकिन हैं ये ग़म से भरे अब रात दिन कटने

भरोसा कीजिये किस पे, निभाता कौन है वादे
पराये हो गये हैं जो बनाये थे कभी अपने

अजब दीवानगी छायी है दिल पे क्या बयां कीजे
लगे हैं याद में उन की कभी रोने कभी हंसने

हैं कूदे आग में ख़ुद ही, शिकायत कीजिये किससे
करो मत प्यार समझाया बहुत हमको ख़लिश सबने.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३० जनवरी २००८

००००००००

From: "Himanshi Khare" <himanshikhare@yahoo.com
Date: Tue, 5 Feb 2008 20:19:50 -0800 (PST)

khalish ji, apki gajal ka jawab nahi. mera dard apne
bayan kar diya.
himanshi.









१३२४. क्या हुआ मुझ को समझ आता नहीं--७ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ७ फ़रवरी २००८ को प्रेषित--RAMAS


क्या हुआ मुझको समझ आता नहीं
और ग़म मुझसे सहा जाता नहीं

हैं सभी हासिल मुझे रंगीनियां
दिल मेरा लेकिन सुकूं पाता नहीं

क्यों कहूं मैं प्यार से परहेज़ है
प्यार मेरे पास मंडराता नहीं

चश्म खाली हो चुके हैं अब मेरे
ग़म भी आंखों में नमी लाता नहीं

जा रहा हूं छोड़ कर सबको ख़लिश
अब रहा दुनिया से कुछ नाता नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ फ़रवरी २००८

०००००००००००००

From: "Rakesh Khandelwal" <rakesh518@yahoo.com>
Date: Thu, 7 Feb 2008 05:00:43 -0800 (PST)

महेशजी,
खूबसूरत ख्याल है

हैं सभी हासिल मुझे रंगीनियां
दिल मेरा लेकिन सुकूं पाता नहीं
सादर
राकेश

0000000000000000

From: "Devi Nangrani" <devi1941@yahoo.com
Date: Fri, 08 Feb 2008 15:14:14 -0000
Subject
Sunder matle se aagaz gazal ka bahut bhaya

क्या हुआ मुझ को समझ आता नहीं
दquot;र ग़म मुझ से सहा जाता नहीं
main soch rahi thi title padkar jaane khalish ji ko kya hua
hai!!!!!!!!!

aapki gazal likhne ki khoobi , uska kathya evam shaili bahut sunder
hai.
Devi Nangrani

०००००००००००००





१३२५. ये दरोदीवार अब अनजान हैं मेरे लिये--९ फ़रवरी २००८ की गज़ल, ई-कविता को ९ फ़रवरी २००८ को प्रेषित--RAMAS


ये दरो-दीवार अब अनजान हैं मेरे लिये
ग़ैर दुनिया के हुए इंसान हैं मेरे लिये

आज सहरा का समां भी लग रहा रंगीन-सा
हो गये बेमा’ना सब अरमान हैं मेरे लिये

बेचते हैं दीन और ईमान अपना सब यहां
ये ज़माना सिर्फ़ इक दूकान है मेरे लिये

भेजता हूं ख़त मग़र आता नहीं कोई जवाब
अजनबी सी हो गयी संतान है मेरे लिये

शिद्दते-ग़म बढ़ चुकी है इस कदर दिल में मेरे
आह भी इक बन गयी तूफ़ान है मेरे लिये

कोई मुझको देख कर झूठे ही मुस्का दे अग़र
है यही अहसान दुनिया में बहुत है मेरे लिये

पीठ में खंजर चुभोये दोस्तों ने इस तरह
दुश्मनी अब दोस्त की पहचान है मेरे लिये

क्यों न कर लूं तर्क अब मैं ज़िन्दगी से वास्ता
हर नया दिन नये ग़मों की खान है मेरे लिये

सोचता हूं अलविदा ले लूं ख़लिश संसार से
इक यही बस रास्ता आसान है मेरे लिये.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ फ़रवरी २००८


© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
Dr M C Gupta has granted Writing.Com, its affiliates and its syndicates non-exclusive rights to display this work.
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