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Rated: E · Book · Cultural · #1510442
Third part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1226--1775
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#626982 added December 31, 2008 at 8:37am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1226- 1250 in Hindi script

१२२६. जब तलक परमात्मा से आत्मा मिलती नहीं —१७ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १७ दिसम्बर २००७ को प्रेषित

जब तलक परमात्मा से आत्मा मिलती नहीं
कैद जन्म और मृत्यु की ये खत्म हो सकती नहीं

है नियन्ता वो ही इस सारे जगत व्यापार का
उस की इच्छा के बिना पत्ती कोई हिलती नहीं

सात्विक भोजन करो मन सात्विक हो जायेगा
जो गिज़ा नापाक हो इंसान को फलती नहीं

चाहे हानि-लाभ हो, जीवन-मरण, अपजस या जस
भाग्य में लिखी हो जो शय वो कभी टलती नहीं

है वही स्तिथप्रज्ञ कहलाता ख़लिश संसार में
कामना बन प्रेत जिस को है कभी छलती नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१६ दिसम्बर २००७

from santosh kumar <ksantosh_45@yahoo.co.in>
date Dec 17, 2007 12:56 PM
खलिश जी, कविता अच࣠छी है, किन࣠त࣠आपने आत࣠मा को प࣠ल࣠लिंग में प࣠रयोग किया है। हम लोग तो आत࣠मा को स࣠त࣠रीलिंग में मानते हैं। धन࣠यवाद। सन࣠तोष क࣠मार सिंह

0000000000000






१२२७. जब कभी दिल को मेरे छूने लगीं तनहाइयां

जब कभी दिल को मेरे छूने लगीं तनहाइयां
एक तुम्हारे ख्याल से बजने लगीं शहनाइयां

जिस जगह जन्मी हमारी उल्फ़तों की दास्तां
आई हैं फिर से तसव्वुर में वही अमराइयां

क्या हसीं लमहात थे नग़मात में भीगे हुए
उंगलियों को याद हैं वो ज़ुल्फ़ की नरमाइयां

था कभी मेरा मग़र मुझ से बगा़वत कर गया
जब से दिल पर पड़ गयी हैं आप की परछाइयां

इश्क कर के हम कदम पीछे हटा सकते नहीं
हों ख़लिश गो प्यार की राहों में सौ रुसवाइयां.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ दिसम्बर २००७



११२८. है मौत मेरा आशियां, अब ज़िन्दगी से काम क्या —१८ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १८ दिसम्बर २००७ को प्रेषित

है मौत मेरा आशियां, अब ज़िन्दगी से काम क्या
होने चला गु़मनाम मैं, अपना बताऊं नाम क्या

ग़ुरबत से बढ़ कर और कुछ तौहीन दुनिया में नहीं
अब और बाकी है बचा होना मुझे बदनाम क्या

ऐ दोस्त मैं कैसे कहूं नक्शेकदम पे मेरे चल
चलने का राहेपाक पर मुझ को मिला ईनाम क्या

चलता रहा मैं उम्र भर मंज़िल मग़र पायी नहीं
अब दौर है ये आखिरी, इस में करूं आराम क्या

ले ले ख़लिश आगोश में, ऐ मौत अब मैं आ रहा
क्यों मर्ज़ की परवाह करूं मैं फ़ालिज़-ओ-सरसाम क्या.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ दिसम्बर २००७

आशियां = घर, बसेरा, शरण स्थल
गु़रबत = ग़रीबी
नक्शेकदम = पद चिह्न
राहेपाक = पवित्रता का रास्ता
आगोश = आंचल, आलिंगन
फ़ालिज़ = लकवा, पक्षाघात
सरसाम = सन्निपात
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from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com>
date Dec 18, 2007 9:24 PM
¥š्रबत से ब् कर और क्छ तौहीन द्निया में नहीं
अब और बाकी है बचा होना म्ठे बदनाम क्या

चलता रहा मैं उम्र भर मंज़िल मग़र पायी नहीं
अब दौर है ये आखिरी, इस में करूं आराम क्या







११२९. मरते हैं दुनिया में लाखों कौन किसी को रोता है —२० दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २० दिसम्बर २००७ को प्रेषित

मरते हैं दुनिया में लाखों कौन किसी को रोता है
साथ निभा बिछुड़े कोई तो दिल में कुछ होता है

ज़ुल्म सितम बरपा हैं यूं तो इस बेदर्द ज़माने में
अपने जब दुख पाते हैं दिल चैन तभी तो खोता है

दुनिया में दुख मिलते हैं तो लोग शिकायत करते हैं
हर इंसां वो ही काटेगा कर्म-बीज जो बोता है

नया सवेरा आयेगा तब कूच कारवां कर देगा
वो पीछे रह जायेगा जो आंख मूंद कर सोता है

कर लेगा वह फ़िक्र ख़लिश जिस ने संसार बनाया है
चिन्ता का बोझा इंसां नाहक दुनिया में ढोता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ दिसम्बर २००७







११३०. ये बस्ती है इंसानों की इंसान मग़र कोई मिल न सका —१९ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १९ दिसम्बर २००७ को प्रेषित

ये बस्ती है इंसानों की इंसान मुझे पर मिल न सका
ये चमन भरा है फूलों से पर मेरा दिल ही खिल न सका

है वक्त एक ऐसी मरहम जो सब घावों को भरती है
मेरा था घाव मग़र ऐसा जुग बीते लेकिन सिल न सका

अंज़ाम मोहब्बत का ऐसा होगा मुझ को मालूम न था
सौ तरह निभाई वफ़ा मग़र शक उस के दिल से हिल न सका

थी लहर बहुत चंचल साहिल पर अपने से वो आ न सकी
कुदरत से था मज़बूर बहुत जा लहरों तक साहिल न सका

अब ख़लिश दोस्ती है ग़म से और तनहाई रास आई है
खु़शियां आईं और चली गईं मैं उन में हो शामिल न सका.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ दिसम्बर २००७








११३१. कितने शीशे देखे सब में अलग अलग परछाई थी —बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १९-१२-०७ को प्रेषित

कितने शीशे देखे सब में अलग अलग परछाई थी
सब में शायद नकली ही इक झलक मुझे दिख पायी थी

याद नहीं मैं खु़द क्या हूं अपनी ही फ़ितरत भूल गया
पूछा था इक बार किसी से, सिर्फ़ मिली रुसवाई थी

जीवन यूं ही बीत गया मैं चार कदम न चल पाया
सच है मंज़िल पाने की भी ख्वाहिश मन में आई थी

लिखा न था रेखाओं में कि मुझे हमसफ़र मिल जाये
किस्मत साथ भला क्यों देती वो भी तो हरजाई थी

जो भी दोस्त मिला धोखा उस ने ही ख़लिश दिया मुझ को
साथ निभाया जिस ने मेरा बस मेरी तनहाई थी.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ दिसम्बर २००७






१२३२. न मुझे परवाह किसी की न किसी से काम है

न मुझे परवाह किसी की न किसी से काम है
न मिली मंज़िल अभी तक न मुझे आराम है

राह लम्बी है अभी जीवन मग़र छोटा बहुत
हमसफ़र कोई नहीं बस साथ रब का नाम है

साथ मेरे दो कदम कोई चले या न चले
मैं अकेला कब रहा हूं साथ मेरा राम है

कौन जाने किस घड़ी उठ पाये न अगला कदम
वक्त काफ़ी कट गया अब ज़िन्दगी की शाम है


बस ख़ुदी का तोड़ना परदा बचा है इक ख़लिश
बीच मेरे और मौला के रहा इक गाम है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२० दिसम्बर २००७




एद




P१२३३. आज क्या मुझ को हुआ कुछ भी समझ आता नहीं –RAMAS—ईकविता २३ सितंबर २००८

आज क्या मुझको हुआ कुछ भी समझ आता नहीं
था सभी रंगीन कल तक आज कुछ भाता नहीं

भूख भी लगती नहीं न नींद आती पास है
क्या बीमारी है मुझे ये कोई बतलाता नहीं

दिल ही दिल में घुल रहा हूं न कोई तदबीर है
दोस्तों को हाल दिल का मैं बता पाता नहीं

हो गयी मुद्दत बहुत मैं कर चुका हूं इन्तज़ार
खत मेरे दिलबर का कोई डाकिया लाता नहीं

न इधर और न उधर कैसा मुकामे-इश्क है
कुछ जवाब आये ख़लिश अब तो सहा जाता नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२० दिसम्बर २००७
०००००००००००००

Wednesday, 24 September, 2008 1:40 AM
From: "Sharad Tailang" sharadtailang@yahoo.com

भूख भी लगती नहीं न नींद आती पास है
क्या बीमारी है मुझे कोई ये बताता नहीं
………

जब चिकित्सक ही मरीज़-ए-इश्क हो जाएं शरद
हम सरीखे लोग ज़िन्दा किस तरह रह पाएंगे \

शरद तैलंग
=====================
Wednesday, 24 September, 2008 5:25 AM
From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com
खलिश जी,

"जब भी अकेला , बेहद अकेला , खुद को पाया है
तो बंद कमरे में जा, फिर खोल बाहों को फैलाया है ।"

:(

०००००००००००००००











१२३४. जब से वो मेरे ख्वाब में शम्म जला गये —बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २०-१२-०७ को प्रेषित, याहू मेल से

जब से वो मेरे ख्वाब में शम्म जला गये
इस ज़िन्दगी को ख्वाबगाह रंगीं बना गये

थी ज़िन्दगी में तीरगी उन से मिले बिना
आ के तसव्वुर में हमें हंसना सिखा गये

मिलने से उन से पेशतर थे हम बहुत तनहा
मिल के गये तो और तनहाई बढ़ा गये

उन का बहुत है शुक्रिया ग़म दे गये हैं वो
थे दर्द से अनजान, तड़पना सिखा गये

अशआर में इज़हार कर के प्यार का ख़लिश
चंद अश्क उन की याद में हम फिर बहा गये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२० दिसम्बर २००७
००००००००००००००००००

Date: Fri, 21 Dec 2007
From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com>
vaah .. bahut sundar.... khalish ji....

००००००००००००००००००००००००००००




१२३५. जी रहा हूं ज़िन्दगी बिन आस के —२१ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २१ दिसम्बर २००७ को प्रेषित

जी रहा हूं ज़िन्दगी बिन आस के
ढक रहा खुद को बिना लिबास के

यूं घुटन बरपा रही है ज़ीस्त में
जिस तरह कोई जिये बिन श्वास के

राह कांटों से मेरी भरपूर थी
देखता सपने रहा मधुमास के

प्रेम की सरिता निकट बहती रही
हौंठ थे सूखे सताये प्यास के

तक रहेंगी राह प्रियतम की ख़लिश
काग मत चुगना नयन तुम लाश के.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ दिसम्बर २००७

०००
Fri, 21 Dec 2007
From: "Rakesh Khandelwal" <rakesh518@yahoo.com
सुन्दर लगा आपकी रचना का यह रूप.

सादर बधाई स्वीकारें
राकेश




१२३६. मेरी ज़िन्दगी की ख़ता है क्या, मुझे किसलिये ये सज़ा मिली

मेरी ज़िन्दगी की ख़ता है क्या, मुझे किसलिये ये सज़ा मिली
मुंसिफ़ मुझे ये बताये तो, है गुनाह क्या कि कज़ा मिली

मेरा यार ऐसा बदल गया कि बना है मेरा ही मुद्दई
मैं गया था उस के पास तो ये जान कर कि रज़ा मिली

जिसे मैं चमन सूचा किया, पाया उसे सहरा फ़कत
ढूंढी हसीं वादी मग़र, वीरान मुझ को फ़िज़ा मिली

चारागरों ने बता दिया न दवा है मेरे मर्ज़ की
अफ़सोस है लेकिन मुझे, थी पुर-ज़हर जो गिज़ा मिली

एक उम्र का था फ़ासला तबदील दुनिया यूं हुई
मंज़िल को जब पाया ख़लिश मुझे सिर्फ़ एक खिज़ां मिली.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ दिसम्बर २००७





१२३७. हर वक्त महफ़िलों में यूं जमती रही गज़ल —बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २१-१२-०७ को प्रेषित

हर वक्त महफ़िलों में यूं जमती रही गज़ल
प्यालों की गूंज में सदा छनती रही गज़ल

सोचा दिमाग से तो लफ़्ज़ लब पे रुक गये
दिल में खयाल बारहा चुनती रही गज़ल

ग़र शायरी का शौक है मत भूलिये हज़ूर
बिन काफ़िये के हर समय पिटती रही गज़ल

शिद्दत बढ़ी जो दर्द की ये हो गया कमाल
हर एक दिल के दाग से रिसती रही गज़ल

शौकेकलम ने कर दिया ऐसा ख़लिश कमाल
मिसरे पे एक एक नित बनती रही गज़ल

बिटिया से प्यार कीजिये, टंकण न दीजिये
शृंगार के बल पर ख़लिश टिकती रही गज़ल.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ दिसम्बर २००७





१२३८. जिस दिल को कुछ दरकार नहीं उस दिल की अमीरी क्या कहिये —२२ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २२ दिसम्बर २००७ को प्रेषित


जिस दिल को कुछ दरकार नहीं उस दिल की अमीरी क्या कहिये
हो के फ़कीर भी शाह है वो उस दिल की फ़कीरी क्या कहिये

मंदिर में रोज़ करे पूजा और शीश झुकाये मस्जिद में
जो न हिंदू न मुस्लिम हो, अंदाज़ कबीरी क्या कहिये

बचपन में तो थी नादानी और उम्र जवानी की खो दी
न चेता देख बुढ़ापे का भी वक्त अखीरी क्या कहिये

दौलत तो बहुत बटोरी पर बेकार बिता दी उम्र सभी
अब मौत सुनाये दरवाज़े पर खड़ी नफ़ीरी क्या कहिये

रोने-धोने से क्या होगा अब ख़लिश कूच की बेला है
कुछ पल में आया चाहता है फ़रमान नज़ीरी क्या कहिये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ दिसम्बर २००७
०००००००००००००

From: "mouli pershad" <cmpershad@yahoo.com>
Date: Fri, 21 Dec 2007 21:45:20 -0800 (PST)

ameeri aur fakeeri ka acchaa santulan; kya kahiye!

०००००००००००००००००००००००००
From: "Anoop Bhargava" <anoop_bhargava@yahoo.com
Date: Sat, 22 Dec 2007 17:51:13 -0800 (PST)

खलिश जी:

अच्छा लगा ये शेर ...

मंदिर में रोज़ करे पूजा और शीश झुकाये मस्जिद में
जो न हिंदू न मुस्लिम हो, अंदाज़ कबीरी क्या कहिये

अनूप
0000000000000000000
from mouli pershad <cmpershad@yahoo.com>
date Dec 23, 2007 8:45 PM
गज़ल प्कर निकला वाह! क्या कहिए
मक्ता पढ़कर लगा˜खलिश जी ऐसा मत कहिए









१२३९. ग़म दे गये हमको मग़र वो जानते नहीं --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २१-१२-०७ को प्रेषित--RAMAS

ग़म दे गये हमको मग़र वो जानते नहीं
मतलब निकल गया तो अब पहचानते नहीं

हमको सता रहे हैं कि उनको ख़बर है हम
लेने की इंतकाम कभी ठानते नहीं

पत्थर दिलों को हाल क्यों दिल का सुनाइये
खामोश ही रहते हैं हम बखानते नहीं

उन का करम अपने ही घर से हो गये बेघर
राहों की वरना खाक ऐसे छानते नहीं

अफ़सोस का इज़हार वो क्यूंकर करें ख़लिश
गलती कोई उनसे हुई वो मानते नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ दिसम्बर २००७






१२४०. सोचा था उन से मिल के हम उन के ही हो जायेंगे

सोचा था उन से मिल के हम उन के ही हो जायेंगे
ये न था मालूम कि हम अपने से भी खो जायेंगे

प्यार किया जिस दिन से हम ने चैन नहीं पाया इक पल
सोचा था ज़ुल्फ़ें सुलझाते सपनों में सो जायेंगे

दिल का जरा लगाना था कि ग़म की इक बरसात हुई
कैसे मुमकिन होगा इतने सारे ग़म ढो जायेंगे

दुश्मन भले ज़माना हो तुम हम से ख़फ़ा नहीं होना
नाज़ुक दिल ग़र टूट गया तो चुपके से रो जायेंगे

तुम ही एक सहारा हो अब ख़लिश हमारी नैय्या के
तुम ने भी ठुकराया तो हम किस के दर को जायेंगे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२१ दिसम्बर २००७




१२४१. ऊपर नीचे दायें बायें देख नहीं कुछ पाता हूं --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २२-१२-०७ को प्रेषित


ऊपर नीचे दायें बायें देख नहीं कुछ पाता हूं
अपने ख्यालों की गाड़ी को चाहे जिधर बढ़ाता हूं

काव्य-शास्त्र के सिद्धांतों से मुझ को क्या लेना देना
सहज भाव से अभिव्यक्ति फिर भी अपनी कर जाता हूं

मिसरे शेर रदीफ़ काफ़िया खुद ही जुड़ते जाते हैं
गज़ल कभी मैं सोच सोच कर हरगिज़ नहीं बनाता हूं

सारा जग मेरी कविता की क्यों सराहना किया करे
जो मेरी सुन लेते हैं मैं उन को गान सुनाता हूं

दुनिया के ग़म हर लूंगा ऐसा दावा तो नहीं किया
मेरी आंखों में आंसू हैं केवल यही जताता हूं

कोई गलती हो जाये तो ख़लिश माफ़ तुम कर देना
केवल जिज्ञासु हूं ख़ुद को नहीं समझता ज्ञाता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ दिसम्बर २००७






१२४२. मैंने सब को अपना समझा पर कोई मेरा न हुआ—२४ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २४ दिसम्बर २००७ को प्रेषित

मैंने सब को अपना समझा पर कोई मेरा न हुआ
नफ़रत ही पायी है उस से जिसे प्यार से कभी छुआ

दुनिया अगर पराया समझे मुझे नहीं फिर भी ग़म है
ऊपर वाला अपना कर ले, मौला से है यही दुआ

इच्छा है दु:खों की जननी, धन संग्रह फिर क्यों कीजे
मैंने अपनी प्यास बुझाने को खोदा है रोज़ कुआ

मनचाहा मिल जाये हम को क्यों हम ऐसा जतन करें
सोचें कुछ और होता कुछ है, जीवन है बस एक जुआ

करो कर्म शुभ अंत समय तक, फल की इच्छा मत रखो
अकर्मण्य ग़र जिया कोई तो जीता भी है ख़लिश मुआ.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ दिसम्बर २००७













१२४३. किस तरफ़ जाऊं मुझे कुछ भी समझ आता नहीं —२३ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २३ दिसम्बर २००७ को प्रेषित--RAMAS

किस तरफ़ जाऊं मुझे कुछ भी समझ आता नहीं
है शहर अनजान कोई राह दिखलाता नहीं

हर मुसीबत में जिसे मैंने सहारा था दिया
दोस्त वो भी अब मुझे तदबीर बतलाता नहीं

जोड़कर तिनके-पे-तिनका था बनाया आशियां
आज मेरे घर से ही मेरा रहा नाता नहीं

है बहुत कहने को यूं तो किसलिये किससे कहूं
फ़ायदा कहने से क्या है, कुछ कहा जाता नहीं

छा रहा है सब तरफ़ मौसम उदासी का ख़लिश
अब ख़ुशी का कोई भी नग़मा मुझे भाता नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ दिसम्बर २००७






१२४४. सब को जाना है दुनिया से मालूम हकीकत है सब को –एक और गज़ल, ई-कविता को २३-१२-०७ को प्रेषित

सब को जाना है दुनिया से, मालूम हकीकत है सब को
जो सच है वो मत झुठलाओ, बस एक नसीहत है सब को

घंटे चौबीस बिताते हैं सब यूं ही तफ़री करने में
बस एक इबादत मौला की ही लगे फ़ज़ीहत है सब को

ये मौत रहमदिल है वाकई जिस लमहे यह आ जाती है
आज़ाद दुखों से करती है क्यों लगे मुसीबत है सब को

मैं दो लमहों का मेहमां हूं जो कर दूं बयां कभी ऐसा
मेरे दिमाग की क्यों लगती नासाज़ तबीयत है सब को

झूठी है सभी दोस्ती ये, सब प्यार मोहब्बत झूठी है
हूं अमर ख़लिश कह देता हूं ग़र लगे ग़नीमत है सब को.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ दिसम्बर २००७






१२४५. मिले प्यार के बदले आंसू क्यों न मन में टीस उठे—काव्य-पल्लवन प्रतियोगिता के लिये “टीस” विषय पर २४ दिसम्बर २००७ को प्रेषित गज़ल

मिले प्यार के बदले आंसू क्यों न मन में टीस उठे
झुका दिया चरणों में तो फिर कैसे अब यह शीश उठे

नहीं बढ़ा इक हाथ किसी भूखे ने जब मांगी रोटी
पत्थर मारो कहा किसी ने हाथ तुरत चालीस उठे

हुए घुटाले राज महल में, पंछी को न ख़बर हुई
एक चोर रोटी ले भागा, तुरत पालिकाधीश उठे

महामहिम मायावी मां का बेटा होगा महासचिव
सुन कर पितामहों के कर भी देने को आशीष उठे

भरी सभा में ख़लिश वीर जब आंख बंद कर के बैठे
ले कर कलम हाथ में अपने क्यों न फिर वागीश उठे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२४ दिसम्बर २००७
००००००००००००००००००

Shailesh Jamloki का कहना है कि -
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश जी,
- आपकी कविता भी सारी कवितों मै सबसे अच्छी के श्रेणी मै से एक मै आती है
-आपकी सोच लगता है रजा महाराजा के ज़माने मै ले जाती है.. पर सच आज भी वही है
"नहीं बढ़ा इक हाथ किसी भूखे ने जब मांगी रोटी
पत्थर मारो कहा किसी ने हाथ तुरत चालीस उठे"
- पूरी कविता मै एक सी सौम्यता और लय बरक़रार रहती है
-बहुत अछे शब्दों का प्रयोग किया है...जैसे वागीश ,पालिकधीश
बधाई सुन्दर रचना के लिए
सादर
शैलेश

०००००००००००००००००००००००००००००००००००००






१२४६. मन में पीर बहुत है लेकिन पलकों तक हम लाएं क्यों —२५ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ दिसम्बर २००७ को प्रेषित


मन में पीर बहुत है लेकिन पलकों तक हम लाएं क्यों
तुम ने दर्द दिया है हम ये होठों से बतलाएं क्यों

नींव मोहब्बत की होती है चुप रह कर ग़म सहने में
नाहक अश्क बहा कर एक हकीकत को झुठलाएं क्यों

दिल में सच्चा प्यार अग़र हो ज़ाहिर ख़ुद हो जाता है
लफ़्ज़ों में दिल के राज़ों को बिना वज़ह जतलाएं क्यों

आशिक को परवाह नहीं समझे तहज़ीब मोहब्बत की
तो फिर हम आदाबेमोहब्बत खु़द उस को सिखलाएं क्यों

चुप रहना, कुछ न कहना ही ख़लिश प्यार की फ़ितरत है
दिल पे घाव दिये जो तुम ने तुम को ही दिखलाएं क्यों.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ दिसम्बर २००७






१२४७. दिल में आग लगी है कैसे कहूं देन ये है किस की –एक और गज़ल, ई-कविता को २५-१२-०७ को प्रेषित


दिल में आग लगी है कैसे कहूं देन ये है किस की
कुछ तो मिला प्यार में उस से बहुत मेहरबानी उस की

दिल की आग बुझाने आंसू नयन कोर से ढुलका जब
ठंडी आह मिली चिर से कर रही प्रतीक्षा थी उस की

दोनों दिल की ओर चले तो अन्य सहेली दूजी एक
बोली मैं भी साथ चलूंगी, संग हुई नन्ही सिसकी

तीनों को जाते देखा तो पहले मन में कुछ झिझकी
सकुचाती सकुचाती उन के संग हो गयी फिर हिचकी

दिल भी रोया, आंसू रोये, आह और सिसकी रोईं
हिचकी ने दी ताल ख़लिश और सरित बही करुणा रस की.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२५ दिसम्बर २००७
00000000000000000000000
From: "kusum sinha" <kusumsinha2000@yahoo.com>
Date: Tue, 25 Dec 2007 11:48:56 -0800 (PST)
Subject: Re: [ekavita] साथी / १२४७. दिल में आग लगी है कैसे कहूं देन ये है किस की –एक और गज़ल, ई-कविता को २५-१२-०७ को प्रेषित
mahesh guptaji
namaskar
Aapki to har kavita geet ya gazal sab lajwab hai.bahut
khub bahut sundar badhai
kusum

00000000000000000000

From: "vinaykant joshi" <vinaykantjoshi@yahoo.co.in>
Date: Tue, 25 Dec 2007 17:02:43 +0000 (GMT)

क्या बात है, बहुत खूब, आपके त्वरित हुनर को सलाम
विनय

दिल भी रोया, आंसू रोये, आह और सिसकी रोईं
हिचकी ने दी ताल ख़लिश सरिता निकली करुणा रस की.

00000000000000

From: "anand krishna" <anandkrishan@yahoo.com>

Date: Tue, 25 Dec 2007 17:45:24 -0800 (PST)
khalish jee
bahut sundar gazal hai. iski poori yojnaa hi bilkul
nai aur paramparaa se hat kar hai. aapne iskaa bhali
bhaanti nirwaah kiyaa hai.ye cheez sirf abhyaas se
nahin balki deergh anubhav se aati hai. gazal men
vyakt bhaav bhi umr ke jagrook anubhavon se pallavit
hote hain. badhai.
aapke upnaam "khalish" par mujhe ek sher yaad aayaa
hai jo bahut pahle poojya anchaljee (dr.rameshwar
shukla "anchal"- chhayaavadottar hindi kavitaa ke
mahaan rachnaakaar) ne sunaayaa tha. ijaazat hai-?
sher hai-
jawaani jaa chuki lekin KHALISH mohabbat ki-
jahaan mahsoos hoti thi, wahin mahsoos hoti hai.

saadar-
anandkrishan
jabalpur
mobile : 09425800818

0000000000000000000

From: "Devi Nangrani" <devi1941@yahoo.com>
Date: Wed, 26 Dec 2007 01:16:17 -0000
Subject: [ekavita] Re: साथी / १२४ॊ ?. दिल में आग लगी है कैसे कहूं देन ये है किस की –ए क और गज़ल, ई-क???ित
Maheshji

aapki yeh gazal nihayat hi lubhavani aur bhavon ke saath ankhmichouli
kheli hui si anubhuti hai.

दिल में आग लगी है कैसे कहूं देन ये है किस की
कुछ तो मिला प्यार में उस से बहुत मेहरबानी उस की

har sher ek nagina hai. shubhkamnaon ke saath
Devi
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१२४८. अग़र आप की न निगाहें सराहतीं, था वो कौन जिस के लिये हम संवरते —२६ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २६ दिसम्बर २००७ को प्रेषित


अग़र आप की न निगाहें सराहतीं, था वो कौन जिस के लिये हम संवरते
रहती हमेशा ही गुमसुम ज़ुबां ये, तनहाई में ही सभी दिन गुज़रते

न राहों में होती मुलाकात तो भी, किसी भी तरह ज़िन्दगी बीत जाती
सांसों में लेकिन न होती रवानी, ख़ुदा की कसम हम न जीते न मरते

न होती तमन्ना न उम्मीद कोई कि हम मंज़िलों तक कभी जा सकेंगे
न हम को दिया कोई राह में दिखाता, बहुत डगमगाते, कदम डर के धरते

मिले आप दिल को सुकूं आ गया है, बनी एक सहरा थी ये ज़िन्दगानी
अग़र आप इस को न गुलशन बनाते तो सपने हमारे ज़मीं पर बिखरते

ख़लिश शुक्रिया किस तरह हम जतायें, सलामेनिगाह आप को भेजते हैं
हम पे इनायत बहुत आप की है, न हम आप के बिन कभी यूं निखरते.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२६ दिसम्बर २००७







१२४९. हर तरफ़ ज़िन्दगी मुस्कराने लगी

हर तरफ़ ज़िन्दगी मुस्कराने लगी
सांस में कोई ख़ुशबू समाने लगी

कोई मंज़र पुराना नज़र आ गया
दास्तां कोई फिर याद आने लगी

ख्वाब दिल को कोई इस तरह छू गया
फिर हवा कोई सरगम सुनाने लगी

आस सहरा में फिर से हरी हो गयी
बाग वादी के फिर से दिखाने लगी

एक पल को तसव्वुर में सूरत दिखी
रात भर को ख़लिश फिर सताने लगी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२६ दिसम्बर २००७








१२५०. नींद पराई रही आज भी लगा रहा यादों का डेरा —२७ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २७ दिसम्बर २००७ को प्रेषित


नींद पराई रही आज भी लगा रहा यादों का डेरा
न जाने कब रात चुक गई न जाने कब हुआ सवेरा

मैंने जीवन की राहों पर जब भी अपना कदम बढ़ाया
बीते हुए दिनों की छाया ने राहों में किया अंधेरा

हृदय-वीण से भूले बिसरे राग बहे तो डसने आयीं
अनगित यादें मेरा मन ही मानो इक बन गया संपेरा

एक इशारा हुआ कहीं से टूटे बन्धन सभी अचानक
नयनों से सरिता बह निकली, मन-नभ को मेघों ने घेरा

मन के प्रेमपटल पर चित्रित जिसे किया था बड़े चाव से
आज उसी की चिता जलाई, पलटा ख़लिश भाग का फेरा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२६ दिसम्बर २००७
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Date: Thu, 27 Dec 2007 05:34:46 -0800 (PST)
From: "Rakesh Khandelwal" <rakesh518@yahoo.com> [For the revised poem]
महेश जी,

सुन्दर भाव हैं

कोई भूला राग छेड़ कर जब भी मन ने बीन बजाई
स्मृतियों ने दंश लगाये मन जैसे बन गया संपेरा

लेकिन मन शब्द दोनों पंक्तियों में अखरता है. कॄपया इस पर ध्यान दें और भी खूबसूरत हो सकता है

सादर,

राकेश
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Date: Thu, 27 Dec 2007 06:24:24 -0800 (PST)
From: "Rakesh Khandelwal" <rakesh518@yahoo.com
आदरणीय
इस ख़ूबसूरत प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें
सादर
राकेश
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Date: Thu, 27 Dec 2007 16:10:58 -0000
From: "pachauriripu" <pachauriripu@yahoo.com>

khalish jee, bahut sundar likhaa hai ... Ripudaman

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From: "Anoop Bhargava" <anoop_bhargava@yahoo.com>
Date: Thu, 27 Dec 2007 10:01:53 -0800 (PST)

महेश जी:

अच्छे अशआर हैं ।

सादर

अनूप

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