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Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225. |
११७६. खो गया, मंज़िलों को मैं पा न सका --२४ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २४ नवम्बर २००७ को प्रेषित खो गया, मंज़िलों को मैं पा न सका छोड़ राहों को लेकिन मैं जा न सका मैं उगा ज़िन्दगी के चमन में मग़र रूप मेरा ज़माने को भा न सका सी लिये हौंठ दिल पे लगी चोट जब दर्द अपना किसी को दिखा न सका साज़ सांसें बनीं, रागिनी सिसकियां एक नग़मा लिखा पर सुना न सका मेरा मेहमान तो सामने था ख़लिश जाम हाथों में उस के थमा न सका. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २१ नवम्बर २००७ ११७७. ज़िंदगी शमशान बन के रह गयी --२३ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २३ नवम्बर २००७ को प्रेषित--RAMAS ज़िंदगी शमशान बनके रह गयी मौत का सामान बनके रह गयी जो भरी रहती थी रंगो-नूर से ज़ीस्त अब वीरान बनके रह गयी जिसका बरबादी ही बस अंज़ाम है उम्र वो तूफ़ान बनके रह गयी एक शय जो हुस्न से भरपूर थी बेहिसो-बेजान बनके रह गयी क्यों जिऊं अब रूह भी मेरी ख़लिश फ़ालतू मेहमान बनके रह गयी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ नवम्बर २००७ ११७८. इंदिरा प्रियदर्शिनि इंदिरा प्रियदर्शिनि मन्द स्मित सुहासिनि तुम मधुर सुभाषिणि वज्र सम कठोर थीं तुमने वह चुनी मगर राज नीति की डगर तुम जहां थीं शाह अगर सच है तुम भी चोर थीं पर तुम्हारी संस्था में था बस दमन लिखा भ्रष्ट राज नीति का मानो एक छोर थीं किन्तु तुम लड़ीं बहुत पाक से किया था युद्ध किया बंग देश मुक्त तुम सशक्त डोर थीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ नवम्बर २००७ ११७९. एक दाग मिल गया हज़ार दाग धुल गये (ज़ुल्म से निज़ात / इन्तकाम) एक दाग मिल गया हज़ार दाग धुल गये एक बन्द जो हुआ, दर हज़ार खुल गये सात फेरे क्या लिये कि मानो गाज़ गिर पड़ी ज़िन्दगी के सब हसीं हो चिराग गु़ल गये सास और ननद सभी मांगते दहेज़ थे न मिला तो वो बहू को जलाने तुल गये आग इन्तकाम की एक दिन भड़क उठी जब उसे लगा सभी ख्वाब मानो रुल गये इस के पेशतर कि मौत उस के पास आ सके उस के पस्त दिल में बंध हिम्मतों के पुल गये मौत अपने हाथ दे, निज़ात पायी ज़ुल्म से बेवा ज़िन्दगी में रंग और नूर घुल गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ नवम्बर २००७ ११८०. बहुत खूबसूरत हसीं लग रही हो --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २५-९-०७ को प्रेषित बहुत खूबसूरत हसीं लग रही हो सारे ज़माने को तुम ठग रही हो सुरमे का तिल गाल पर ज्यों लगा के गहना-ए-रुख पे लगा नग रही हो कमर में न पड़ जाये बल ऐ हसीना क्यों बेखबर सी भर डग रही हो दिल में तुम्हारे भी कोई तो होगा जो रात भर इस तरह जग रही हो ख़लिश जाम-ए-इश्क एक पी के तो देखो क्यों नाम-ए-उल्फ़त से भग रही हो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवम्बर २००७ ११८१. उम्र ज्यों चढ़ती गयी उम्र ज्यों चढ़ती गयी बेबसी बढ़ती गयी खोखली सी दास्तां ज़िन्दगी गढ़ती गयी आयु मुख पे हर बरस नयी शिकन मढ़ती गयी और जीने की हवस सांस से लड़ती रही हर कदम पर मौत भी राह में अड़ती रही ज़ीस्त यूं रुसवा हुई लाज से गड़ती रही दिल के आईने में ग़म हर ख़ुशी जड़ती रही इस चमन की हर कली बिन खिले झड़ती रही क्या करूं उलटी मेरी चाल हर पड़ती गयी. धार आंखों से ख़लिश बिन रुके झरती रही. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवम्बर २००७ ११८२. मौत का साया मुझे यूं छू गया मौत का साया मुझे यूं छू गया खौ़फ़ का सामान दे हर सू गया क्या हुई वादी की वो ठंडी हवा कौन है जो भर चमन में लू गया इस तरह मुझ से जुदा वो हो गया लूट कर दुनिया से रंग-ओ-बू गया गो वो आया ख्वाब में ही पर मेरे एक पल को हो के रू-ब-रू गया शुक्रिया तेरा कि लौटा है ख़लिश यूं लगा था उम्र भर को तू गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवम्बर २००७ ११८३. क्यों कहूं मैं मौत से डरता नहीं क्यों कहूं मैं मौत से डरता नहीं क्यों कहूं ग़म आंख से झरता नहीं एक मामूली बहुत इंसान हूं कोई हूं मैं पीर दम भरता नहीं देख कर रुखसार मैं कोई हसीं क्यों कहूं ये झूठ कि मरता नहीं बदसलूकी लोग करते हैं मग़र मैं गिला मन मैं कोई धरता नहीं दर्द उठता है मेरे दिल में ख़लिश दर्द का इज़हार मैं करता नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवम्बर २००७ ११८४. कोई तो होता मेरी तनहाई में कोई तो होता मेरी तनहाई में कुछ नशा होता मेरी अंगड़ाई में ज़िन्दगी बरबाद न होती मेरी काश कुछ होती वफ़ा हरजाई में यार मेरा हो गया जब से जुदा भर गया सहरा हसीं अमराई में कीजिये क्या दिख रहा है दिन-ब-दिन एक आलम मौत का रुसवाई में किस तरह खुशियां मनाऊं मैं ख़लिश सुर छिपा है दर्द का शहनाई में. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवम्बर २००७ ११८५. दिल में खयाल आये तो आते चले गये --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २७-९-०७ को प्रेषित दिल में खयाल आये तो आते चले गये हम काफ़िये पर काफ़िया लाते चले गये हद से बढ़ा जो ग़म तो गज़ल ख़ुद ही बन गयी मिसरे में हम रदीफ़ मिलाते चले गये यूं तो तरन्नुम में घुला था कोई दर्देदिल हर राह पर हम गीत इक गाते चले गये पुर-अश्क था कलाम का हर लफ़्ज़ इस तरह अशआर उन के दिल को लुभाते चले गये दिल का पयाम है गज़ल में थी उन्हें ख़बर सुन के ख़लिश वो और लजाते चले गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ नवम्बर २००७ P११८६. उन की जो याद आयी तो आती चली गयी --२६ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २६ नवम्बर २००७ को प्रेषित उन की जो याद आयी तो आती चली गयी दिल में हज़ार ख्वाब सजाती चली गयी मासूम नज़र में कोई तो राज़ था निहां नग़मा कोई भूला सा सुनाती चली गयी उन की शरारतों पे कभी हंस लिये कभी उन की जुदाई हम को रुलाती चली गयी जब जब भी याद आयी है रुखसत की वो घड़ी नश्तर मेरे सीने में लगाती चली गयी रहते हैं मेरे साथ वो हर दम ख़लिश उन की रूह रास्ता सहरा में दिखाती चली गयी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २६ नवम्बर २००७ ११८७. कविता खुद बन जाती है --२७ नवम्बर २००७ की कविता, ई-कविता को २७ नवम्बर २००७ को प्रेषित नहीं पास जब होता कोई बहुत अकेला होता हूं मन अतीत में उड़ जाता है, वर्तमान को खोता हूं ऐसे में कविता करता हूं मैं खुद से बतियाने को खुद अपने दिल को ही अपने दिल का हाल बताने को अपने दिल को अपने दुखड़े कभी सुना कर गाता हूं अनजाने ही ताल और लय के बंधन में बंध जाता हूं दिल के भाव उमड़ते हैं तो बांध तोड़ कर आते हैं नैन द्वार से आंसू बन कर सहसा ही बह जाते हैं उन कतरों की छाया कोरे कागज़ पर गिर जाती है बन के छ्न्द उभर आती है, कविता खुद बन जाती है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ नवम्बर २००७ ००००००००००००००००००००००० 0000000000000 from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com> date Nov 27, 2007 5:34 PM उन कतरों की छाया कोरे कागज़ पर गिर जाती है बन के छ्न्द उभर आती है कविता खुद बन जाती है. यह पंक्तियां सबसे अच्छी लगीं। रिपुदमन ०००००००००००००००० ११८८. जब जब मैं पथ हीन हुआ हूं बोध कराया तुम ने ही --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २७-९-०७ को प्रेषित जब जब मैं पथ हीन हुआ हूं बोध कराया तुम ने ही राहें धोखा देती हैं अहसास दिलाया तुम ने ही गर्व अधिक हो गया कभी तो तुम्हीं धरातल पर लाये मन में जब अवसाद हुआ तो धीर बंधाया तुम ने ही जब काले घन कभी निराशा के मेरे मन पर छाये आशा का संचार किया, सुख स्वप्न दिखाया तुम ने ही अपने ही अपनों को किंचित प्रेम प्रताड़ित करते हैं अपनापन अपने ढंग से बहु बार जताया तुम ने ही तुम न होते तो क्या होता जीवन तो कट ही जाता मधुरस मेरे जीवन में पर ख़लिश बहाया तुम ने ही. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ नवम्बर २००७ ०००००००००००००० from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com> date Nov 27, 2007 9:34 PM खलिश जी, हर बार कहने में संकोच भी होता है �¤"र कहना संभव नहीं हो पाता, पर सत्य है कि हर बार आनंद आता है। इस बार भी पढ़ा �¤"र सुखद अनुभूति हुई। मंगल कामनाएं। रिपुदमन पचौरी ००००००००००००००००००० from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com> date Nov 27, 2007 10:08 PM Khalishji namaskar lagta hai aapki kalam me jadu hai.ek se ek kavitayein aur gazalein.sabse pahle mai aapki gazalein padhti hun fir aur kusum ०००००००००००००००००००० ११८९. वही कहूंगा जो कहना है कोई टोक न पायेगा वही कहूंगा जो कहना है कोई टोक न पायेगा मेरी अभिव्यक्ति पर ताला कोई ठोक न पायेगा जिव्हा पर पहरे हैं लेकिन नहीं लेखनी मौन हुयी जब तक सांस चलेगी लिखना कोई रोक न पायेगा मुझे नहीं ग़म आज़ादी की खातिर सब कुछ लुट जाये लेशमात्र भी मेरे मन में कोई शोक न पायेगा धर्मयुद्ध में पांडु वंश ने पाया अपना खोया राज दुर्योधन ने कहा सुई की जितनी नोक न पायेगा कदम चूम कर बेइंसाफ़ी सह जिस ने जीवन काटा क्या कहिये परलोक ख़लिश वह यह भी लोक न पायेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ नवम्बर २००७ ११९०. दाद तुम्हारी ग़र न पाता –१६ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १६ दिसम्बर २००७ को प्रेषित दाद तुम्हारी ग़र न पाता तो कविता मैं कर न पाता भटक रहा था मैं राहों में तुम न मिलते, घर न पाता अर्ध-बिन्दु पलकों से लटका, दर्द न बढ़ता, झर न पाता फंसा रहे जो मोह सलिल में भव सागर से तर न पाता जिसे ग़रीबों से है नफ़रत वो अल्लाह का दर न पाता जो लालच से भरा है, उस का पेट कभी भी भर न पाता. ख़लिश रहा जो उलझा जग में चैन कभी वो नर न पाता. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ नवम्बर २००७ ११९१. चल रहा हूं राह बिन, मेरी कोई मंज़िल नहीं --९ दिसंबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ८ दिसंबर २००७ को प्रेषित--RAMAS चल रहा हूं राह बिन, मेरी कोई मंज़िल नहीं नाव है मझधार में दिखता कोई साहिल नहीं दोस्त दुश्मन बन गये, दुश्मन किसी के कब हुए ज़िंदगी में है तन्हाई, अब कोई महफ़िल नहीं आज पत्थर मारने को आये हैं ये दोस्त जो कोई तो कहता, नहीं, मैं भीड़ में शामिल नहीं फ़ैसला मुंसिफ़ करेगा क्या, मुझे मालूम है बिक गये हैं सब गवाह, पहचानते कातिल नहीं दर्द सहने की मिली है सिफ़्त मौला से मुझे चोट खाके चुप रहे ऐसा ख़लिश हर दिल नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ नवम्बर २००७ ०००००००००००००० from mouli pershad <cmpershad@yahoo.com> date Dec 8, 2007 10:56 PM acchi gazal hai. uss geet ki yaad dila dee Sathi na koi manzill, diya hai na koi mehfil pathar ke aashanaa miley, pathar ke devata miley Sheeshe ka dil liye , jaaooon kahaaan ११९२. खुद को इक पहचान कलम से मिलती है --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २७-९-०७ को प्रेषित खुद को इक पहचान कलम से मिलती है शाहों की भी शान कलम से हिलती है जादू कलम करे शायर की महफ़िल में सब सुनने वालों की तबियत खिलती है सुन कर कोई गज़ल दर्द से भरी हुई भूली चोट ज़िगर की कोई छिलती है हो तकदीर फटी इंसां के दामन की सम्बल जो मिल जाये कलम का सिलती है चलता हूं अब करना ख़लिश मुआफ़ मुझे किस से होती नहीं जहां में गलती है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ नवम्बर २००७ ११९३. मैंने अपने दिल से पूछा क्यों तू मुझे सताता है --२८ नवम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २८ नवम्बर २००७ को प्रेषित मैंने अपने दिल से पूछा क्यों तू मुझे सताता है क्यों तू चांद सितारे लूंगा ख्वाहिश ये जतलाता है दो रोटी पाना मुश्किल है दिल क्या तुझे नहीं मालूम जो चाहे वो न मिल पाये तो रोने लग जाता है क्या जाने क्यों बात बात पर दिल तू उतरे आंखों में लगता है तेरा अश्कों से जनम जनम का नाता है दिल कहता है कुर्बां हो जा पर दिमाग कहता है रुक दोनों में से किस की मानूं इंसां समझ न पाता है दिल मुस्काया फिर बोला सुन ख़लिश ज़रा इतना तो सोच सीने में दिल है तब ही तो सब को गज़ल सुनाता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ नवम्बर २००७ 00000000000000 from Praveen Parihar <p4parihar@yahoo.co.in date Nov 29, 2007 12:50 PM खलिश जी, बहुत बढीया । वैसे "दिल तो है दिल का एतबार क्या किजिए।" प्रवीण 00000000000000000000 ११९४. किसलिये नज़दीक दिल के आ रहे --७ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ७ दिसम्बर २००७ को प्रेषित किसलिये नज़दीक दिल के आ रहे क्यों तराने प्यार के तुम गा रहे देख कर के मेरे दिल की कशमकश दूर से ही क्यों खड़े मुसका रहे न बुलाते हो न आते पास हो क्यों अदाओं से हमें भरमा रहे तुम न होगे तो जियेंगे किस तरह सोच कर ये बात हम घबरा रहे तोड़ दो इस को ख़लिश एकबारगी दिल रहे न दिल का ये धोखा रहे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २७ नवम्बर २००७ 000000000000 त࣠म न होगे तो जियेंगे किस तरह सोच कर ये बात हम घबरा रहे खूबसूरत अंदाज़ है महेशजी. सादर ====================================== ११९५. वो दिन दूर नहीं धरती पर ऐसा दिन भी आयेगा --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २८-९-०७ को प्रेषित वो दिन दूर नहीं धरती पर ऐसा दिन भी आयेगा इंसां सांसें लेते भी इस धरती पर घबरायेगा दम सा घुटता पायेगा वो बहुत प्रदूषित वायु में प्यास बुझाने को पानी मिलना मुश्किल हो जायेगा भरी मिलावट होगी इतनी खाने की सब चीज़ों में क्या खाये, क्या न खाये वह निर्णय न कर पायेगा इंसां आज मशीन हुआ है दिल में गर्मी नहीं रही ईंधन अधिक जला कर जग की गर्मी और बढ़ायेगा महा-प्रदूषण काल खड़ा मुंह बाये, नहीं पर चेत रहा ऐसे नादां इंसां को अब कौन ख़लिश समझायेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ नवम्बर २००७ ११९६. मैंने माना कि नहीं शक्ल मेरी है नायाब, मैंने कब दावा किया मुझ से हसीं कोई नहीं --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को २८-९-०७ को प्रेषित मैंने माना कि नहीं शक्ल मेरी है नायाब, मैंने कब दावा किया मुझ से हसीं कोई नहीं सब कुछ ही मिले मुझ को मुकम्मिल हो जाऊं, मैंने दिल में ये तमन्ना तो कभी बोई नहीं ज़िन्दगी का है फ़लसफ़ा कि ग़मों की शुरुआत होती आई है किसीदिल की दबी ख्वाहिश से मेरे दिल में भी तमन्ना थी कोई मिल जाये, न मिला तो मेरी तासीर कभी रोई नहीं सिर्फ़ ख़ुशियां ही रहें ये तो नहीं हो सकता, यहां तबदील बहुत वक्त हुआ करता है कोई शय जब भी बदलती है दिलाती है यकीं, मेरी तकदीर रवां है ये कभी सोई नहीं मुझे दुनिया से गिला है न मेरी किस्मत से, ग़म मिले या कि ख़ुशी दोनों मुनासिब हैं मुझे मैंने तकलीफ़ ज़माने में बहुत देखी है, कौन सी है वो मुसीबत जो कभी ढोई नहीं रोज़ के ग़म-ओ-खु़शी से है परेशां इंसां, इसी माहौल में इक उम्र गुज़र जाती है तेरा अहसान ख़लिश मुझ पे है मेरे मौला, तू ने रूह को जो खुशी दी वो कभी खोई नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ नवम्बर २००७ ११९७. मेरी कोई बात ज़माने को गवारा न हुई मेरी कोई बात ज़माने को गवारा न हुई खु़शी इक बार मिली मुझ को दोबारा न हुई उस से बिछुड़ा तो बचीं चन्द सिरफ़ यादें थीं कोई भी याद मेरे दिल का सहारा न हुई जिस की सूरत कभी नज़रों में बसा करती थी भीगी आंखों का कभी मेरी नज़ारा न हुई उस ने सच ही तो कहा था कि ख़ुदा हाफ़िज़ हो मेरी कश्ती थी भंवर में, वो किनारा न हुई जिस से बांधी थी कभी दिल की हर इक उम्मीद मेरी किस्मत का ख़लिश वो ही सितारा न हुई. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ नवम्बर २००७ ११९८. मेरे दिल पे भी कभी एक नशा छाया था –५ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ५ दिसम्बर २००७ को प्रेषित मेरे दिल पे भी कभी एक नशा छाया था मेरी नज़रों में कभी एक हसीं साया था दिल की धड़कन मेरी आखों में चमकती थी कभी कोई मेहमान कभी दिल में मेरे आया था सारी कायनात कभी रंग में दिखती थी सजी मेरे जीवन का चमन झूम के लहराया था आज कुछ भी न रहा लुट के तन्हा बैठा हूं इश्क के ख्वाब ने कुछ ऐसा गजब ढाया था क्या कोई फूल सदा खिल के रहा डाली पे क्यों न ये ख्याल कभी दिल में ख़लिश आया था. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ नवम्बर २००७ ११९९. मैंने सोचा कि मोहब्बत के बिना जी लूंगा –३ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ३ दिसम्बर २००७ को प्रेषित मैंने सोचा कि मोहब्बत के बिना जी लूंगा वक्त के तार से मैं चाक ज़िगर सी लूंगा वक्त बीता तो बढ़ा मेरा अकेलापन भी मैंने ठाना कि मैं इस से भी निबट ही लूंगा मुझे अहसास था तनहाई सतायेगी अग़र चली जायेगी जो हाथों में सुराही लूंगा मुझे अपने पे भरोसा था उसे भूला हूं याद आएगी तो मैं जाम उठा पी लूंगा मैंने जाना न ख़लिश चोट बड़ी गहरी है नाम महबूब का बेहोश हुआ भी लूंगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ नवम्बर २००७ १२००. कुछ बात है हैं सामने शरमा रहे हैं वो –१ दिसम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १ दिसम्बर २००७ को प्रेषित कुछ बात है, हैं सामने, शरमा रहे हैं वो नाज़-ओ-अदाओं से हमें भरमा रहे हैं वो हलके से मुसकरा दिये जो देख कर उन्हें न जाने क्या ख़ता हुई गरमा रहे हैं वो क्या जाने क्या है उन के दिल की असलियत का राज़ इक पल चमक रहे थे, अब नरमा रहे हैं वो इस दिल का हाल किस तरह उन को बताइये दिल में हमारे इक हसीं अरमां रहे हैं वो नज़रों से कुछ पयाम तो है आ रहा ख़लिश इज़हार अपने प्यार का फ़रमा रहे हैं वो. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ नवम्बर २००७ |