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Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225. |
११०१. चार दिन की ज़िन्दगी बाकी है अब—७ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २२ अक्तूबर २००७ को प्रेषित चार दिन की ज़िन्दगी बाकी है अब न मुझे मय और न साकी है अब न कोई रंगीनियां बाकी रहीं गर्द सहरा की बची खाकी है अब हम भी थे अपने महल के बादशाह खाक दर दर की मगर फ़ांकी है अब वार दें सब कुछ वतन के वास्ते फ़र्ज़ कुछ अपना भी इखलाकी है अब कर्ज़ जिस का न चुका पाया ख़लिश आंख में सूरत उसी मां की है अब. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००७ ११०२. Dekh liyaa sab kuchch jeevan me ab jeene kee aas nahee—draft sent to EK on 19 October Dekh liyaa sab kuchch duniyaa me ab jeene kee aas nahee Shaant huaa man ant samay hai, kinchit aaj udaas nahee JhooThaa ronaa, jhooThe aansoo, jhooThee cheekh-pukaaren hain Fark nahee gar antim belaa me koee bhee paas nahee Nahee gavaaraa mujh ko ban ke auron kaa mohataaj rahoon Ab mere jeene kaa makasad dikhataa koee khaas nahee Sab nikaal do mere tan se tube catheter aur suiyyaan Ban ke rahanaa chaahataa hoon main keval zindaa laash nahee Chaman aur saharaa dono me bhaTak chukaa kaafee ai dost Letaa hoon mai khalish aakhiree, aur likhee hai saans naheen. Khalish, 19 October 2007 ११०२. Saath gam bhee yahaan har khushee laayee hai—draft sent to EK on 20 October Saath gam bhee yahaan har khushee laayee hai Pyaar pal kaa hai sadiyon kee tanahaaee hai Har ghaDee jo khushee kaa rahe muntazir Yaa to naadaan hai yaa wo saudaaee hai Dil me hai aur par dikh rahaa aur hai Jo vafaa kar rahaa vo hee harazaaee hai Dharm ke naam par nafaraten baDh raheen Mazahabon ne ye saugaat dilavaaee hai Yeeshu mere, mere Raam, Allah mere Ye laDaaee tumhee ne to karavaaee hai Jal rahee hai ye duniyaa bachaa lo khalish Ab tumhaare hee dar pe ye sunavaaee hai. Khalish, 20 October 2007 ११०३. Main kisee kee nazar kaa naheen muntazir—draft sent to EK ,20 October 2007 Main kisee kee nazar kaa naheen muntazir Main duaa ke asar kaa naheen muntazir Baagabaanee hee karanaa meraa dharm hai Mai kisee bhee samar kaa naheen muntazir Ek lamahe me khvaahish jo pooree kare Kalpataru ke shazar kaa naheen muntazir Vo agar de to saharaa me bhee hai khushee Main suhaane safar kaa naheen muntazir Hai biyaabaaN me mujh ko sukoon-o-sabar Main tumhaare shahar kaa naheen muntazir Shai-e-ulfat se vaakif rahaa hoon khalish Ishk ke ab kahar kaa naheen muntazir. Muntazir = prateekshaa-rat Samara = phal Shazar = tree Khalish, 20 October 2007 ११०४. Aaj sare-aam zindagee kaa katl ho gayaa—draft sent to EK ,21 October 2007 Aaj sare-aam zindagee kaa katl ho gayaa Mere kaatilon kaa jo suraag thaa wo kho gayaa pyaar na rahaa to aur zindagee me kyaa rahaa kyon zahar ke beej koee dostee me bo gayaa mai na koee thaa nabee, mere gunaah the hazaar ashk ke bahaav me, saare paap dho gayaa har kadam pe ab tumhaaree raah me na aaoongaa saaree umr ke liye aankh moond so gayaa. Koee din khalish magar yoon karoge yaad tum Ek hee habeeb thaa, zindagee se wo gayaa.. Nabee = paigambar, eshvar kaa doot Habeeb =dost Khalish 21 October 2007 ११०५. मैंने खुद अपने हाथों जीवन में आग लगाई है Maine khud apane haathon jeevan me aag lagaaee hai—draft sent to EK ,21 October 2007 Maine khud apane haathon, jeevan me aag lagaaee hai Kal tak raahon me saathee thaa, aaj bharee tanahaaee hai Ab na meraa maazee baakee na mustakabil dikhataa hai Aaj meree takadeer mujhe aise mnzar par laayee hai In raahon me chalate chalate sabhee alag ho jaayenge Milane vaalon kee kismat me hotee sadaa judaaee hai bhool rahe maaTee ke putale maut khaDee hai moDon par Rachane vale ne bhee dekho duniyaa khoob banaayee hai Kaun kahaan ruk jaaye ye oopar vale kee marzee hai Khud raahon me ruk jaayen to khalish bahut rusavaaee hai. Khalish, 21 October 2007 ११०६. Mai kisee kee yaad me khoyaa rahaa Mai kisee kee yaad me khoyaa rahaa Bekhudee ke haal me soyaa rahaa vo bichchuD ke paas na aayaa kabhee kyaa khabar ki miT gayaa vo yaa rahaa haath seene par mere us ne rakhaa ghaav par maano koee phoyaa rahaa Din-b-din kitane gunaah karataa gayaa Bekhabar anzaam se goyaa rahaa gir gaye jitane darakht the khalish ek nekee kaa shazar boyaa, rahaa shazar = Tree Khalish, 21 October 2007 ११०७. खुदकुशी चाह के भी न कर पाऊं मै--१७ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ अक्तूबर २००७ को प्रेषित खुदकुशी चाह के भी न कर पाऊं मैं अब कहां ये ज़िन्दगी ले जाऊं मैं न नरक में भी मिलेगा दाखिला क्यों वहां जा के हंसी करवाऊं मैं न है जन्नत, न ज़मीं मेरे लिये आस क्यों मन में खुशी की लाऊं मैं इस जहां से तो परेशां हूं मगर क्या सबब है, किस तरह समझाऊं मैं खुद ख़लिश अपना निशां मिलता नहीं नाम अपना पूछता कतराऊं मैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००७ ११०८. उस का मुझ से बस यही नाता रहा—८ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २२ अक्तूबर २००७ को प्रेषित-- उस का मुझ से बस यही नाता रहा प्यार की खूठी कसम खाता रहा पहले तो करता रहा गुस्ताखियां फिर दिखाने को वो शर्माता रहा तर्केउल्फ़त क्यों हुई इस का सबब बारहा खत लिख के समझाता रहा जो भी उस ने की थीं मेहरबानियां उन का वो एहसास करवाता रहा एकतरफ़ा सिलसिले चलते नहीं खत का आना भी खलिश जाता रहा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००७ ११०८. Us kaa mujh se bas yahee naataa rahaa Us kaa mujh se bas yahee naataa rahaa Har zafaa kar ke wo pachchataataa rahaa Pahale to karataa thaa wo gustaakhiyaan Phir dikhaane ko wo sharamaataa rahaa Tark-e-ulfat kyon huee is kaa sabab Baarahaa khat likh ke samajhaataa rahaa Jo bhe kee theen us ne meharabaaniyaan Un kaa wo ehasaas karavaataa rahaa ekatarafaa silasile chalate naheen Khat kaa aanaa bhee khalish jaataa rahaa. Khalish, 20 October 2007 एद ११०९. चुपके- चुपके वो मेरे दिल के क़रीब आता रहा—१३ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २४ अक्तूबर २००७ को प्रेषित--RAMAS चुपके- चुपके वो मेरे दिल के क़रीब आता रहा पास आ कर प्यार का नग़मा कोई गाता रहा वो मुलाकातों का मौसम इस तरह रंगीन था रोज़ जूड़े में लगाने गुल नये लाता रहा दौर साकी और मय का चल रहा था बेझिझक जाम पर वो जाम मुझसे इश्क में पाता रहा यूं नहीं कि शक मुझे फ़ितरत पे उसकी न हुआ हंस के, मैं नादान हूं, वो मुझको समझाता रहा एक दिन आंखें खुलीं तो जा चुका था पास से तब हुआ मालूम मुझको झूठ वो नाता रहा अब ये आलम है ख़लिश उल्फ़त गयी, चाहत गयी चोट वो दिल पे लगी सारा नशा जाता रहा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००७ *** from mouli pershad <cmpershad@yahoo.com date Oct 24, 2007 11:33 PM भई वाह गुप्ता जी, क्या बात कही चोट वो दिल पे लगी सारा नशा जाता रहा... आप की गज़ल का नशा सारी रात सुलाता रहा!! 000000000000000000 १११०. जब कभी दिल में मेरे वो आ गये—१२अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २४ अक्तूबर २००७ को प्रेषित जब कभी दिल में मेरे वो आ गये शम्म बन तारीकियों पर छा गये काम न आयी मेरी कोशिश कोई मुझ को अपने प्यार में उलझा गये तप रही थी गर्दिशों में ज़िन्दगी सहरा में वो बदलियां बरसा गये वो भी था इक वक्त हम अनजान थे राह में चलते हुए टकरा गये चार आंखें एक लमहे में मिलीं राज़ उल्फ़त के हमें समझा गये रफ़्ता रफ़्ता आ गये यूं पास हम फ़ासले दोनों के दरमियां गये गैर की बाहों में देखा तो खलिश आज ये जाना कि धोखा खा गये. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००७ ११११. करेंगे इन्तज़ार हम तो, तुम्हें आना है, आ जाओ—९ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २२ अक्तूबर २००७ को प्रेषित करेंगे इन्तज़ार हम तो, तुम्हें आना है, आ जाओ जो न आओ, खता क्या है, जरा इतना बता जाओ वही तुम हो, वही हम हैं, मगर ये दूरियां क्यों हैं न रोकेंगे, चले जाना, जरा सूरत दिखा जाओ तुम्हारी याद में जीते हैं ख्वाबों के सहारे हम तराने जो सुनाते थे, जरा फिर से सुना जाओ अगर आना नहीं मुमकिन तो फिर हम जी न पायेंगे सनम अपने ही हाथों से चिता में लौ लगा जाओ तुम्हें फ़ुरसत सुना है आजकल है और की खातिर ख़लिश हूं मुन्तज़िर झोली में कुछ लमहे गिरा जाओ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २२ अक्तूबर २००७ १११२. मत पास मेरे आओ, तुम भी जल जाओगे—१० अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २३ अक्तूबर २००७ को प्रेषित मत पास मेरे आओ, तुम भी जल जाओगे मेरे दिल के ग़म में तुम भी ढल जाओगे हैं संग आज दोनों, पर डर ये लगता है कि औरों की माफ़िक तुम भी कल जाओगे बिछुडेंगे जब हम तुम न जाने क्या होगा घावों पर नमक मेरे तुम भी मल जाओगे कुछ रुकी रुकी सी है धड़कन मेरे दिल की मुझ से कहती है कि तुम भी छल जाओगे बस ख़लिश फ़िक्र मुझ को पल पल यह खाती है तुम इस पल मेरे हो, दूजे पल जाओगे. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ अक्तूबर २००७ १११३. देव-दैत्य युद्ध में कौन है जिता रहा—११ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २३ अक्तूबर २००७ को प्रेषित देव-दैत्य युद्ध में कौन है जिता रहा एक सहाय सारथी, वह परम पिता रहा आज मन में वह बसा, है अखन्ड शान्ति अब वह मिला न था तो मैं, पूर्ण रिक्त था रहा कौन है समझ सका ऐसे माया जाल को है वही जो सृष्टि को बना के फिर मिटा रहा शून्य को हूं जा रहा, शून्य से हुआ प्रकट एक अन्तराल में कुछ समय बिता रहा आज हूं ख़लिश मगर कल नहीं रहूंगा मैं सज रही है पास जो, देख मैं चिता रहा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २३ अक्तूबर २००७ एद १११४. कारवां भी न रहा और गुबार न रहा—१४ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २४ अक्तूबर २००७ को प्रेषित--RAMAS कारवां भी न रहा और गुबार न रहा ज़िन्दगी हमें तेरा ऐतबार न रहा एक जो था हमसफ़र, वो भी अब बिछुड़ गया ग़मगुसार न रहा, राज़दार न रहा मुफ़लिसी जो आ गयी, ख़त्म महफ़िलें हुयीं दोस्तों में मेरा नाम अब शुमार न रहा जान ली हकी़कतें दास्ताने-इश्क की बू-ए-ज़ुल्फ़ का हमें अब खु़मार न रहा साया बेवफ़ाई का इस तरह लिपट गया मेरा प्यार भी ख़लिश मेरा प्यार न रहा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ अक्तूबर २००७ १११५. आज दुनिया से वक्त-ए-रुखसत है, आज दिल में खयाल आया है—१५ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २४ अक्तूबर २००७ को प्रेषित आज दुनिया से वक्त-ए-रुखसत है, आज दिल में खयाल आया है मैंने क्या ज़िन्दगी में खोया है, मैंने क्या ज़िन्दगी में पाया है मेरे दिल की कभी तमन्ना थी, हमसफ़र कोई बन गया होता मुद्दतें हो गयीं नज़ारे को, रूप आंखों में पर समाया है याद पर बस कभी नहीं चलता, जाने किस पल उभर के आ जाये कोई पुर्ज़ा किसी के ख़त का है, आज आंखों में अश्क लाया है चाहे ज़ाहिर में तुम मुकरते हो, मेरे दिल को यकीं नहीं आता सोचता हूं कि तुम ने चाहत को, है कोई बात जो छिपाया है तुम अगर प्यार न करो मुझ से, मेरे दिल को ख़लिश न ठुकराना और सह पायेगा न ये घातें, हर कदम पे ये चोट खाया है. तर्ज़: याद में तेरी जाग जाग के हम, रात भर करवटें बदलते हैं दिल में चुपचाप तेरी उल्फ़त के धीमे धीमे चिराग जलते हैं महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २४ अक्तूबर २००७ महेश जी, आपकी रचना सं० १११५ एक बेहतरीन गज़ल है। पूरी गज़ल सही बहर में मालूम देती है, सिवाय एक शे'र के। "चाहे ज़ाहिर में तुम मुकरते हो, मेरे दिल को नहीं यकीं है मगर" के स्थान पर "चाहे ज़ाहिर में तुम मुकरते हो, मेरे दिल को नहीं यकीं लेकिन" या (मेरी पसन्द से) "चाहे ज़ाहिर में तुम मुकरते हो, मेरे दिल को यकीं नहीं आता" कर के देखें। वैसे तो मैं अरकान बता कर अपनी बात नहीं कह सकूंगा पर जो फिल्मी तर्ज़ आपने सुझाई है वह भी थोड़ी अलग है। गुस्ताखी माफ हो तो एक शे'र (मतला) अपनी एक खोई-खोई गज़ल का पेश करता हूं जो शायद आपकी गज़ल की बहर में ही है। यह मुख्तसर गज़ल मैंने १९८६ में लिखी थी जब मैं शिकागो शहर के पास रहता था। अब सिर्फ दो शे'र याद आ रहे हैं, सांझ के फैलते धुँधलकों में जब समूचा शहर उभरता है आप की सेज तो सलामत थी आपका जिस्म क्यों सिहरता है उम्र की सब हदों को लाँघा है, फिर भी दिल पर यकीं नहीं आता नीम-इंसान सा झिझकता है, बर-रू-ए-मर्ग कैसा डरता है नीम-इंसान - अधूरा व्यक्ति बर-रू-ए-मर्ग - मौत के सामने - घनश्याम ००००००००००००००० Ed वो इस तरह मेरे क़रीब आता चला गया अहसास दूरियों का कराता चला गया दिल में न कुछ ज़गह थी मेरे वास्ते लेकिन बाहर से प्यार फ़ख़्त दिखाता चला गया मानिंद इक नाज़ुक परी- सी दिख रही थी वो किस्मत पे अपनी खूब इठलाता चला गया नायाब हीरा इश्क में हासिल मुझे हुआ ये राज़ ज़माने को बताता चला गया जो एक दिन टूटा भरम पाया ख़लिश मैंने एक बेवफ़ा पे दिल को लुटाता चला गया. १११६. वो इस तरह मेरे क़रीब आता चला गया—१६ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ अक्तूबर २००७ को प्रेषित --RAMAS वो इस तरह मेरे क़रीब आता चला गया अहसास दूरियों का कराता चला गया दिल में न कुछ ज़गह थी मेरे वास्ते लेकिन बाहर से प्यार फ़ख़्त दिखाता चला गया मानिंद इक नाज़ुक परी- सी दिख रही थी वो किस्मत पे अपनी खूब इठलाता चला गया नायाब हीरा इश्क में हासिल मुझे हुआ ये राज़ ज़माने को बताता चला गया जो एक दिन टूटा भरम पाया ख़लिश मैंने एक बेवफ़ा पे दिल को लुटाता चला गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ अक्तूबर २००७ एद १११७. मौत का करता रहा मैं इंतज़ार--१९ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ अक्तूबर २००७ को प्रेषित--RAMAS मौत का करता रहा मैं इंतज़ार कर गयी वादा न आयी एक बार ज़िंदगी की असलियत भी देख ली हर खुशी में ग़म छिपे मानो हज़ार प्यार की दुनिया में ऐसा खो गया मैं खिज़ां को ही समझ बैठा बहार देख कर यूं हुस्न को चकरा गया हो गया मैं एक ज़ालिम का शिकार बेवफ़ाई को न पहचाना ख़लिश इश्क का जब तक रहा मुझ पे खुमार. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ अक्तूबर २००७ ००००००००००००००० Ghanshyam Gupta to ekavita Oct 25 महेश जी, आपकी रचना सं० १११७ के मतले "मौत का करता रहा मैं इन्तज़ार वादा कर के भी न आयी बार बार" को देखते ही ग़ालिब की मशहूर गज़ल का ये उम्दा, उस्तादाना, और पहेलीनुमा शे'र याद आ गया: मौत की राह न देखूं कि बिन आये न रहे तुमको चाहूं कि न आओ तो बुलाये न बने यूं सुगम-संगीत गायकी के आधुनिक कलाकारों द्वारा इस गज़ल की व्यावसायिक प्रस्तुतियों में यह शे'र शायद ही मिले पर ग़ालिब ने स्वयं अपने ख़तूत में इस पर तब्सिरा किया है (जिसे ४० बरस पहले पढ़कर ही इस मंद-बुद्धि को इसका कुछ अर्थ, या सिर-पैर, पता लगा था)। - घनश्याम ००००००००००००००००००० १११८. यहां कौन है जो मुझ को अपनायेगा--२० अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ अक्तूबर २००७ को प्रेषित यहां कौन है जो मुझ को अपनायेगा भूले राही को जो राह दिखायेगा फ़ुरसत नहीं किसी को अपने ग़म से है औरों की खातिर क्यों अश्क बहायेगा फ़ितरत से लाचार बशर की आदत है मरे कोई तो ग़म में डूबा जायेगा सोता हो तो उसे जगाना मुमकिन है पर जगते इंसां को कौन जगायेगा खलिश सभी दुनिया से जायेंगे इक दिन कौन भला ये सच किस को समझायेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ अक्तूबर २००७ १११९. सामने मेरे वो जब भी आयेगा--२१ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ अक्तूबर २००७ को प्रेषित सामने मेरे वो जब भी आयेगा संग अपने सौ गिले भी लायेगा लाख खुशियां वस्ल की होंगी मगर आंख से वो अश्क भी बहायेगा किस तरह तनहाई में गुज़रे हैं दिन वो बहुत रो कर हमें सुनायेगा हम छिपा लेंगे उसे आगोश में ये समां देखा न हम से जायेगा बाद इस के और क्या होगा ख़लिश ये बयां करते हुए कतरायेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ अक्तूबर २००७ ११२०. नज़्म और गीत में क्या फ़र्क होता है--२२ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ अक्तूबर २००७ को प्रेषित नज़्म और गीत में क्या फ़र्क होता है ज्यों इक गुलाब, इक केवड़े का अर्क होता है मतलब तो इस से है कि मिठाई में स्वाद हो बेकार चान्दी- सोने का तो वर्क होता है बीवी के हुस्न को मिलेगा चाटने से क्या शादी में प्यार न हुआ तो नर्क होता है जिस में न हो पाकीज़गी प्यार और वफ़ा की रिश्ता मियां-ओ- बीवी का वो तर्क होता है करता है खून जो असूल और दीन-ओ-धर्म का उस का ख़लिश दुनिया में बेड़ा गर्क होता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २५ अक्तूबर २००७ ११२१. मुझ पे किसी का कर्ज़ था जो न अदा हुआ--२३ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २८ अक्तूबर २००७ को प्रेषित मुझ पे किसी का कर्ज़ था जो न अदा हुआ है बोझ सीने पे मेरे अब तक लदा हुआ इंसान तो जाता है पर यादें नहीं जातीं इस दर्द को सहना है किस्मत में बदा हुआ वो दिल की हर धड़कन में है कुछ इस तरह निहां शीशा-ए-दिल पे नाम है मानो खुदा हुआ गम गल्त करने को पिया था जाम पहली बार अब याद का ही नाम मुझे मयकदा हुआ हर सांस में आता है मुझ को याद वो ख़लिश क्यों न हुआ कि नाम ही उस का खु़दा हुआ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ अक्तूबर २००७ 0000000000000 Praveen Parihar <p4parihar@yahoo.co.in> to ekavita, Oct 29 खलिश जी, हर सांस में आता है मुझ को याद वो ख़लिश क्यों न हुआ कि नाम ही उस का खु़दा हुआ. बहुत-बहुत बढीया । प्रवीण परिहार 00000000000000 from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com> hide date Nov 1, 2007 2:40 AM महेश जी, गज़ल का मतला बहुत खूबसूरत है। निम्न शे'र भी बहुत सुन्दर लगा। वो दिल की हर धड़कन में है कुछ इस तरह निहां शीशा-ए-दिल पे नाम है मानो खुदा हुआ ०००००००००००००० From Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com date Nov 1, 2007 3:27 AM खलिश साहब: घनश्याम जी ठीक कहते हैं । एक शेर यूँ ही बैठे बैठे , ज़रा ठीक करना पड़ेगा " >गले मिला और बांह में लिपट के रो दिया >इस तरह कम्बख्त वो मुझ से जुदा हुआ । सादर अनूप 00000000000000000 ११२२. मन्ज़िल है बहुत दूर राह पाना नहीं मुमकिन--२४ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २८ अक्तूबर २००७ को प्रेषित मन्ज़िल है बहुत दूर राह पाना नहीं मुमकिन है दर्द गहरा और थाह पाना नहीं मुमकिन दिल में बसाई थी वही एक मोहिनी सूरत अब और किसी को भी चाह पाना नहीं मुमकिन जीना है अब तनहाई के ही साये में मुझे अब रेशमी ज़ुल्फ़ों की छाहं पाना नहीं मुमकिन आज उस की याद में पढ़ी जो नज़्म, है इरशाद उस के लबों से वाह पर पाना नहीं मुमकिन ता-ज़िन्दगी ये मुझ को तड़पाती रहीं ख़लिश यादों का साथ अब निबाह पाना नहीं मुमकिन. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ अक्तूबर २००७ ११२३. मैं तो रहा खामोश रोया दिल मगर बहुत--२५ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २८ अक्तूबर २००७ को प्रेषित मैं तो रहा खामोश रोया दिल मगर बहुत अश्कों में दिल का दर्द था शामिल मगर बहुत आंसू बहे, पाया उन्हें जब मुद्दतों के बाद दिल का कंवल मेरे रहा था खिल मगर बहुत कहने को यूं तो दिल में थे अरमां तड़प रहे थी वज़ह कुछ कि लब रहे थे सिल मगर बहुत ये सच है उन की बात पे मुसका रहा था मैं घाव इस दिल के रहे थे छिल मगर बहुत सुन के गज़ल सुर में सधी, बिन काफ़िया ख़लिश थी दाद उन को दे रही महफ़िल मगर बहुत. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २८ अक्तूबर २००७ P११२४. जब चला दुनिया से मैं मुझ को खयाल आता रहा--२६ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २९ अक्तूबर २००७ को प्रेषित जब चला दुनिया से मैं मुझ को खयाल आता रहा एक मुसाफ़िर का सिरफ़ मेरा यहां नाता रहा नाते-रिश्ते और वादे खोखले निकले सभी दोस्ती का झूठ था एहसास, भरमाता रहा न मिली दुनिया की दौलत, न मिला मुझ को खुदा खोज में उस की हमेशा दिल को भटकाता रहा मस्जिदों में न मिला, वो मन्दिरों में न मिला वह मिलेगा दिल के अन्दर,कोई समझाता रहा अलविदा दुनिया ख़लिश, इतनी सी है बस दास्तां आया था गुमनाम और गुमनाम ही जाता रहा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ अक्तूबर २००७ Ed ज़िन्दगी एक आस बन कर रह गयी खोखला अहसास बन कर रह गयी याद थी इक बेवफ़ा के प्यार की इक ठगा विश्वास बन कर रह गयी रात तो आयी मिलन की थी मगर सर्द एक उच्छ्वास बन कर रह गयी कैफ़ियत क्या कैस की कीजे बयां इक फटा लिबास बन कर रह गयी मौत आयी तो शकल उस की ख़लिश आखिरी इक सांस बन कर रह गयी. ११२५. ज़िन्दगी एक आस बन कर रह गयी --२७ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २९ अक्तूबर २००७ को प्रेषित –RAMAS-R ज़िन्दगी एक आस बनकर रह गयी खोखला अहसास बनकर रह गयी याद थी इक बेवफ़ा के प्यार की इक ठगा विश्वास बनकर रह गयी रात तो आयी मिलन की थी मग़र सर्द एक उच्छ्वास बनकर रह गयी कैफ़ियत क्या कैस की कीजे बयां इक फटा लिबास बनकर रह गयी मौत आयी तो शकल उसकी ख़लिश आखिरी इक सांस बनकर रह गयी. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २९ अक्तूबर २००७ ००००००००००००००० Anoop Bhargava to ekavita 9:29 pm, 29 October anoop_bhargava@yahoo.com खलिश साहब: अच्छी लगी ये गज़ल , विशेष रूप से ये शेर : >मौत आयी तो शकल उस की ख़लिश >आखिरी इक सांस बन कर रह गयी. सादर अनूप 00000000000000000000 |