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Rated: E · Book · Emotional · #1510374
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
#626966 added December 31, 2008 at 6:13am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1076- 1100 in Hindi script




१०७६. मैं किसी से दिल लगाना चाहता हूं

मैं किसी से दिल लगाना चाहता हूं
उल्फ़तों में डूब जाना चाहता हूं

पाक असूलों पे ही चलता रहा
अब गुनाहों का बहाना चाहता हूं

खोल कर दिल मय पिला दे साकिया
आज हो जाना दीवाना चाहता हूं

पेश दुनिया में बहुत हैं ग़म भरे
एक नयी दुनिया बनाना चाहता हूं

छोड़ कर सहरा चमन में आ गया
संग तेरे घर बसाना चाहता हूं

अपनी दुनिया छोड़ आया हूं खलिश
तेरी दुनिया में समाना चाहता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२ अक्तूबर २००७










१०७७. मैं क्या हूं किस लायक हूं मैं सत्य खोजते डर लगता है--बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ३ अक्तूबर २००७ को प्रेषित


मैं क्या हूं किस लायक हूं मैं सत्य खोजते डर लगता है
जब कोई तारीफ़ करे तो शक अपने ही पर लगता है

यह सच है कि लोकाचार सिखाने वाले सब कहते हैं
करो प्रशंसा मुक्त कंठ से, न इस में कुछ कर लगता है

धूलि कणों की प्रखर प्रशंसा करता है मर्मज्ञ कोई तो
मेरा मन तब सहज कांपने पत्ते सम थर थर लगता है

हालांकि कवि सम्मेलन में दिखी परम्परा है ये अकसर
दाद मांगना मुझ को, करना भिक्षाटन दर दर लगता है

खलिश करे तारीफ़ कोई भी, अंतर में मत गर्व पालना
बेहतर है न लेना तोहफ़ा, झूठा तुम को गर लगता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३ अक्तूबर २००७

On 10/10/07, Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com> wrote:
आदरणीय महेशजी,

आज आपकी गज़ल का एक शेर रह रह कर याद आ रहा है:

हालांकि कवि सम्मेलन में दिखी परम्परा है ये अकसर
दाद मांगना मुझ को, करना भिक्षाटन दर दर लगता है

क्योंकि अब यह परम्परा कवि सम्मेलनों के म्छ से उतर कर बहुत आगे बढ़ने लगी है. आपके लेखन और दूरदर्शिता को सादर नमन.

राकेश खंदेलवाल








१०७८. आज देश की जुबां पे तेरा नाम आ गया

आज देश की जुबां पे तेरा नाम आ गया
तेरा बेटा आज मां वतन के काम आ गया

मैं जवान उम्र में शहीद हो गया तो क्या
आज मैं अमर हुआ कि पुण्यधाम आ गया

एहसान हैं बहुत मुझ पे मादरेवतन
सब नहीं तो कुछ सही चुका के दाम आ गया

ऐ सितारो आसमां के तुम से होगी दोस्ती
मेरी ज़िन्दगी की हो गयी है शाम, आ गया

बूढ़ी मां का ख्याल अब तो रखना तुम ही दोस्तो
पी के देशभक्ति का ख़लिश मैं जाम आ गया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
३ अक्तूबर २००७










१०७९. पहला कदम रखा था मौसमेबहार में

पहला कदम रखा था मौसमेबहार में
पाया मगर खिजाओं को ही इन्तज़ार में

यादों का सिलसिला अचानक थम के रह गया
लाया है माज़ी आज मुझे किस दयार में

न तीर न तलवार फिर भी घायल कर दिया
मासूम सी नज़र का हो गया शिकार मैं

राहें किधर गयीं ये मुझे ख्याल न रहा
पुरफ़ख्र बन के जा रहा था शहसवार मैं

कब मौत आ गयी ख़लिश न कुछ ख़बर हुई
ऐ ज़िन्दगी, खोया रहा तेरे खयाल में.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
४ अक्तूबर २००७









१०८०. मैं जीवन के झंझावातों में यूं घिरा निकल ना पाया—५ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ५ अक्तूबर २००७ को प्रेषित


मैं जीवन के झंझावातों में यूं घिरा निकल न पाया
आज चुकी आयु तो सोचा, मैंने क्या खोया क्या पाया

क्षणभंगुर जीवन था मेरा पलक झपकते सांझ हो गयी
कितने स्वप्न संजोये मन में, जीवन में कुछ न ला पाया

स्थितप्रज्ञ का लक्ष्य स्वयं ही अपने लिये चुना था मैंने
रहा ताकता मन चातक सा, नहीं चान्द तक मैं जा पाया

मन में युद्ध मचा था मेरे देवासुर संग्राम सरीखा
न ही जग से मुक्त हो सका, न ही मैं जग में आ पाया

धन्यवाद प्रभु, मुझे प्रेरणा और शक्ति का दान दिया है
ख़लिश तुम्हें न पाया चाहे, मार्ग तुम्हारा तो, हां, पाया.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००७








१०८१. आज कोई भी न मेरे पास है

आज कोई भी न मेरे पास है
किन्तु मेरा मन नहीं उदास है

चल दिया जिस राह तज संसार को
हर समय उस राह पर उल्लास है

साधना- पथ चल पड़ा, कब पूर्ण हो
सोचने का अब नहीं अवकाश है

आत्मा परमात्मा का एक दिन
तो मिलन होगा मुझे यह आस है

लक्ष्य मुझ को प्राप्त हो ही जायेगा
दृढ़ यही मन में ख़लिश विश्वास है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००७





१०८२. आंखों से मन के भाव कभी बह जाते हैं

आंखों से मन के भाव कभी बह जाते हैं
और अनायास ही एक गज़ल कह जाते हैं

मुस्काते तो हैं लोक लाज की खातिर हम
दिल पे पत्थर रख कर सौ ग़म सह जाते हैं

जो स्वप्न सुहाने बुनते हैं हम जीवन भर
वे पलक झपकते ही सारे ढह जाते हैं

जिन को जाना है नहीं रोक सकते उन को
हम एकाकी यादों के संग रह जाते हैं

दो ध्यान ख़लिश अर्थी की अंतिम शिक्षा पर,
जो रहने आये निश्चित है वह जाते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००७




१०८३. जब तनहाई में याद किसी की आती है –RAMAS—ईकविता २२ सितंबर २००८

जब तनहाई में याद किसी की आती है
दिल पर बर्फ़ीली लहर कोई छा जाती है

गुज़रे लमहे फिर से ताजा़ हो जाते हैं
फिर कोई तसव्वुर में सूरत मुस्काती है

माज़ी से आती है तसवीर खु़शी ले कर
जब जाती है तो और अधिक तड़पाती है

कुछ वक्त परेशानी के ऐसे होते हैं
जब सोई तमन्ना फिर मन में बल खाती है

वो गये तुझे भी दूर ख़लिश अब जाना है
कोई शय चुपके से आ कर याद दिलाती है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००७






१०८४. कोई तो मेरे मन की बात समझ पाता

कोई तो मेरे मन की बात समझ पाता
कोई तो होता जिस से कुछ होता नाता

थे सभी पराये जो आये और चले गये
मेरा अपना बन के भी तो कोई आता

हाथों में नहीं बनी थी मिलने की रेखा
वरना क्यों गीत बिरह के जीवन भर गाता

ऐसी भी सूरत काश कोई बन जाती कि
मुझ को सूनी राहों में कोई मिल जाता

कब तक मन में तुम ख़लिश तमन्ना पालोगे
अब खत्म हुआ जाता है जीवन का खाता.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००७



१०८५. यूं तो है विश्वास मुझे पर शंका एक उभर आती है

यूं तो है विश्वास मुझे पर शंका एक उभर आती है
क्यों लगता है तुम पर कोई परछाई सी मंडराती है

कभी कभी तुम बैठ मेरे संग भी जब तब मुस्का लेती हो
लेकिन ज़िक्र किसी का सुन कर क्यों रुख पर रौनक छाती है

मैं हूं द्रवित तुम्हारे दुख से मेरे सुख से तुम सुख पाओ
किसी पराये के दुख से क्यों मुख पर चिन्ता आ जाती है

जब तुम पढ़ो बेखबर हो कर और मैं पूछूं किस का खत है
मुझ से नज़र मिलाने से क्यों नज़र तुम्हारी कतराती है

आज निकाह की साल गिरह पर ख़लिश बसा है डर सा मन में
कल क्या होगा यही सोच कर फ़ितरत मेरी घबराती है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००७











१०८६. मैंने केवल यह पूछा था किस ने भेजी है यह पाती

मैंने केवल यह पूछा था किस ने भेजी है यह पाती
चुप्पी लेकिन प्रिये तुम्हारी मन की शंका और बढ़ाती

हाथों में तसवीर गै़र की, बड़े शौक से देख रही हो
कैसे कह दूं इसे जला देने की मन में बात न आती

मेरे मन में जो ज्वाला है नहीं बुझाना उस को सम्भव
दिन दूनी और रात चौगुनी दावानल सी बढ़ती जाती

मैंने तो छल किया न कोई फिर मुझ से कैसा दुराव है
यही बात है रह रह कर जो मेरे अंतर को तड़पाती

क्रोध दु:ख और लाचारी से त्रस्त हुआ हूं ख़लिश आज मैं
ऐसे में न जाने क्या क्या बदहवास हालत करवाती.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
५ अक्तूबर २००७





१०८७. भरा हो पेट तो संसार जगमगाता है

भरा हो पेट तो संसार जगमगाता है
सताये भूख तो ईमान डगमगाता है

कोई पहलू में हो चाहता है हर जवां दिल ये
बुझे न प्यास तो इंसान तड़फ़ड़ाता है

चले जाओगे मुझ को छोड़ के मझधार में तुम
न जाने दिल में क्यों ये ख्याल कुलबुलाता है

बिछुड़ जाता है दिल का कोई टुकड़ा तो वही फिर
सितारा आसमां में बन के टिमटिमाता है

वफ़ा आ जाये शक के दायरे में तो जो शौहर
कदम चूमे है, भर गुस्से में तमतमाता है

ख़लिश हैं मुन्तज़िर दुनिया में प्यार के सब ही
मिले न प्यार तो दिल ग़म से कसमसाता है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अक्तूबर २००७


Bharaa ho pet to samsaar jagamagaataa hai

Bharaa ho pet to samsaar jagamagaataa hai
Sataaye bhookh to eemaan dagamagaataa hai

Koe pahaloo me ho chaahataa hai har javaan dil ye
Bujhe na pyaas to insaan tadafadaataa hai

Chale jaaoge mujh ko chhoD kar majhadhaar me tum
Na jaane dil me kyon ye khyaal kulabulaataa hai

Bichchud jaataa hai dil kaa koee tukadaa to vahee phir
Sitaaraa aasamaan me ban ke timatimaataa hai

Vafaa aa jaaye shak ke daayare me to jo shauhar
Kadam choome hai, bhar gusse me tamatamaataa hai

Khalish hain muntazir duniyaa me pyaar ke sab hee
Mile na pyaar to dil gam se kasamasaataa hai

Khalish
13 October 2007
००००००००००००००००००००००


mouli pershad <cmpershad@yahoo.com> to ekavita
Oct 14

बहुत खूब डॉ. साहब - क्या खूब कहा है - बिछड जाता है कोई दिल का टुकडा तो वही फिर
सितारा बन के वही फिर आस्मां में टिमटिमाता है...
भॆ वाह...........
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बहुत खूब खलिश जी.. कवि कुलवंत
0000000000000000000000000000






१०८८. कभी ऐसा भी हो जाता, मुझे भूले से मिल जाते--१८ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ अक्तूबर २००७ को प्रेषित

कभी ऐसा भी हो जाता, मुझे भूले से मिल जाते
मेरे भी दिल के वीराने में कोई फूल खिल जाते

नज़ारा वो भी क्या होता कि मन में बात सौ होतीं
मगर पा कर मुखातिब मानो मेरे हौंठ सिल जाते

उन्हें पाते अगर हम सामने होते ख़फ़ा तो भी
हमारे सब इरादे सख्त से भी सख्त हिल जाते

वो महफ़िल में जो आ जाते निभा कर वायदा अपना
कोई बिजली चमकती, काम से लाखों के दिल जाते

ख़लिश अच्छा हुआ मेरे शहर आ के भी न आये
पुरानी याद उठती और दिल के घाव छिल जाते.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अक्तूबर २००७

Kabhee aisaa bhee ho jaataa mujhe bhoole se mil jaate

Kabhee aisaa bhee ho jaataa mujhe bhoole se mil jaate
Mere bhee dil ke veeraane me koee phool khil jaate

Nazaaraa vo bhee kyaa hotaa ki man me baat sau hoteen
Magar paa kar mukhaatib maano mere hoth sil jaate

unhe paate agar ham saamane, hote khafaa to bhee,
hamaare sab iraade sakht se bhee sakht hil jaate

wo mahafil me jo aa jaate nibaah kar vaayadaa apanaa
koee bijalee chamakatee, kaam se laakhon ke dil jaate

khalish achchaa huaa mere shahar aa ke bhee na aaye
puraanee yaad uthatatee aur dil ke ghaav chchil jaate.

Khalish, 13 October 2007








१०८९. ज़िन्दगी जाने कहां पर लायी है

ज़िन्दगी जाने कहां पर लायी है
सब तरफ़ इक आलमेतनहाई है

आज कोई भी नहीं मेरा यहां
मुझ से मिलने में हुई रुसवाई है

चाहे तू जितना सितम दे ले मुझे
उफ़ न हो, मैंने कसम ये खाई है

है बहुत कहने को पर किस से कहूं
दुनिया में मेरी नहीं सुनवाई है

हूं ख़लिश मुर्दा ज़माने के लिये
ये हकीकत जान पे बन आयी है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१३ अक्तूबर २००७


Zindagee jaane kahaan par laayee hai

Zindagee jaane kahaan par laayee hai
Sab taraf ik aalam-e-tanahaaee hai

Aaj koee bhee naheen meraa yahaan
Mujh se milane me huee rusavaaee hai

Chaahe too jitanaa sitam de le mujhe
Maine uf na ho, kasam ye khaaee hai

Hai bahut kahane ko par kis se kahoon
Meree duniyaa me naheen sunavaaee hai

Mar chukaa hoon main zamaane ke liye
Ye hakeekat jaan pe ban aaee hai.

Khalish, 13 October 07


१०९०. मेरे साथ मेरा साया अब तलक था चल रहा





Mere saath meraa saayaa ab talak thaa chal rahaa—sent to EK

Mere saath meraa saayaa, ab talak thaa chal rahaa
Saanjh ho gayee to na vo, saath ek pal rahaa

Dostee-o- dushmanee me fark ab rahaa nahee
Ban ke dost har koee dost ko hee chchal rahaa

Thak gayaa hoon chalate chalate zindagee kee raah me
Aaj maano har kadam pe dam meraa nikal rahaa

Koee bhee chchupaa ke raaz jis se na kabhee rakhaa
Us ke dil me shak mere vaaste hai pal rahaa

rah gayaa hai kyaa khalish zindagee me ab meree
na hee aaj hai meraa, na hee meraa kal rahaa.

Khalish, 18 October 2007


१०९१. थक गया हूं कर के सारी उम्र सिर्फ़ इंतज़ार


थक गया हूं कर के सारी उम्र सिर्फ़ इंतज़ार
हो गया यकीन अब न आयेगी कभी बहार

किस से मैं गिला करूं और किसलिये करूं
ढूंढना फ़िज़ूल है ज़ालिमों के दिल में प्यार

मैंने उस के वास्ते अपना सब लुटा दिया
फिर भी मेरा हो सका जाने किसलिये न यार

वक्त सब गुज़र गये, रात दिन बदल गये
अब तलक गया नहीं उस की याद का खुमार

जिन में रूप है न रंग, दिल को न लुभा सकें
मेरा नाम उन गु़लों में हो गया ख़लिश शुमार.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ अक्तूबर २००७


Thak gayaa hoon kar ke saaree umr sirf intazaar

Thak gayaa hoon kar ke saaree umr sirf intazaar
Ho gayaa yakeen mujh ko ab na aayegee bahaar

kis se main gilaa karoon, kisaliye gilaa karoon
Dhoondhaanaa fizool hai zaalimon ke dil me pyaar

Maine us ke vaaste apanaa sab lutaa diyaa
Phir bhee jaane kisaliye, meraa ho sakaa na yaar

Vakt sab guzar gaye, raat din badal gaye
Ab talak gayaa nahee us kee yaad kaa khumaar

Roop thaa na rang thaa, lubhaa sake na koee dil
Meraa naam un gulon me ho gayaa khalish shumaar.

Khalish, 18 October 2007







१०९२. Pyaar to kiyaa magar pyaar mai na paa sakaa—sent to EK

Pyaar to kiyaa magar pyaar mai na paa sakaa
Koee bhee na mere dil ke aaine mai aa sakaa

Aap kee nigaah kaa payaam bhee ajeeb thaa
Na main paas aa sakaa, na main door jaa sakaa

Dard aisaa thaa bharaa zindagee kee nazm me,
Aur kee to kyaa kahoon, khud ko na sunaa sakaa

aap pe jo paD gayee, kaid ho gayee nazar
Dekhataa hee rah gayaa, na palak giraa sakaa

Na main paa sakaa use rachaa hai jis ne ye jahaan
Apanee hastee ko khalish, na kabhee miTaa sakaa

Khalish, 18 October 2007








१०९३. likhanaa chaahataa hoon kyaa likhoon mere dil me ahasaas naheen—sent to EK

likhanaa chaahataa hoon kyaa likhoon, mere dil me ahasaas naheen
chalanaa chaahataa hoon manzil, pane kee lekin aas naheen

Darataa hoon naazuk hai koee toD na de mere dil ko
denaa to chaahataa hoon, lene vale kaa vishvaas naheen

chalaa-chalee kee belaa hai alavidaa tumhe mere ai dost
kuchch hee lamahe baakee hain ab khul kar aatee saans naheen

fark naheen main chchoDoon duniyaa, yaa duniyaa chchoDe mujh ko
gam kyon karoon ki vakt-e-rukhasat koee mere paas naheen

khalish vaseeyat padhane kee jaldee kyaa hai mere farzand
saans abhee chalatee hai meree, abhee huaa main laash naheen.

Khalish, 18 October 2007





१०९४. Ek din duniyaa se yoon ghabaraa gayaa—sent to EK

Ek din duniyaa se yoon ghabaraa gayaa
chchoD ke duniyaa falak par aa gayaa

ab zamaane ke sitam se door hoon
ban ke taaraa main jahaan pe chchaa gayaa

kis tarah khaane ko do rotee mile
mujh ko jeete jee yahee gam khaa gayaa

bhookh taDapaatee thee mujh ko aaye din
roz kaa yah gam mere dil kaa gayaa

khil rahaa hoon aasamaan me ab khalish
kyaa huaa duniyaa se jo murjhaa gayaa


khalish, 18 October 2007







१०९५. Mere dil me sirf itanaa hee khayaal aataa rahaa—sent to EK

Mere dil me sirf itanaa hee khayaal aataa rahaa
Dost meraa dushmanee kis vazah nibhaataa rahaa

Mai to us ko apanaa hee samajhaa kiyaa thaa umr bhar
Mujh se us kaa zindagee bhar gair kaa naataa rahaa

Nekiyaan kar ke bhee milatee hai zamaane me badee
Aise hee andaaz se mai dil ko samajhaataa rahaa

Jab bhee maine dil lagaayaa choT hee khaaee sadaa
Phir lagaaoongaa na dil, jhooThee kasam khaataa rahaa

Raah-e-ulfat par chalaa to mai khalish pur-shauk thaa
Bevafaaee dekh kar dil kaa sukoon jaataa rahaa.

Khalish, 19 October 2007


१०९६. Dil me khud hee ham ne yoon aag lagaa lee hai—sent to EK

Dil me khud hee ham ne, yoon aag lagaa lee hai
Un ko paa lene kee, ik aas jagaa lee hai

Ham Dar ke zamaane se bhoolenge nahee un ko
Soorat un kee dil me is tarah samaa lee hai

Ye balaa mohabat kee naa lage rakeebon ko
Ghar, daulat se bhee gaye aur naukaree gavaa lee hai

Is pyaar ke toofaan me kashtee na Dubo lain ham
Kyon pyaar me marane kee ye kasam uThaa lee hai

Maranaa hee laazim hai ab khalish mohabbat me
Shoharat ik majanoo kee bin baat kamaa lee hai.

Khalish, 19 October, 2007



१०९७. Wo sitam mujh pe kiye jaataa rahaa—sent to EK

Wo sitam mujh pe kiye jaataa rahaa
Par juDaa us se meraa naataa rahaa

Mujh pe us ko ho sakaa na aitabaar
Main vafaaon kee kasam khaataa rahaa

Ek din to vo samajh legaa mujhe
Bin vajah main khud ko samajhaataa rahaa

Dard se auron ke vo anajaan thaa
kyon use main ghaav dikhalaataa rahaa

door vo jitanaa gayaa mujh se khalish
pyaar us par aur bhee aataa rahaa.

Khalish 19 October 2007


१०९८. Ghazal se kyon judaa hon ham, bhalaa maano buraa maano—sent to EK

Ghazal se kyon judaa hon ham, bhalaa maano buraa maano
Naheen likhanaa hogaa ye kam, bhalaa maano buraa maano

Zaraa zulfon ko chchoone do, bahut se pech hain in me
Hame sulajhaane do ye kham, bhalaa maano buraa maano

Chalenge chaand ke us paar par is paar to jee len
Jaraa pahaloo me to aao, bhalaa maano buraa maano

Khinche hain aap kyon ham se, naheen hain gair to ham bhee
Mohabbat bhee hai ek zam-zam, bhalaa maano buraa maano

Liyaa hai ek bosaa hee, koee jannat naheen looTee
Khalish aankhen na keeje nam, bhalaa maano buraa maano.

Khalish, 20 October 2007











१०९९. कौन सी मन्ज़िल पे ला दिया तुम ने—६ अक्तूबर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २२ अक्तूबर २००७ को प्रेषित


कौन सी मन्ज़िल पे ला दिया तुम ने
ज़ाम नशे का पिला दिया तुम ने

लूट कर मेरा भरोसा क्या मिला
ज़हर भूले से खिला दिया तुम ने

कल तलक तो थे मेरे आगोश में
किन गुनाहों का सिला दिया तुम ने

थी कमाई ज़िन्दगी भर की मेरी
क्या किया, ईमां हिला दिया तुम ने

मौत के साये में जीता था खलिश
एक निगाह से जिला दिया तुम ने.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ अक्तूबर २००७


kaun see manzil pe laa diyaa tum ne

kaun see manzil pe laa diyaa tum ne
zaam nashe kaa pilaa diyaa tum ne

loot kar meraa bharosaa kyaa milaa
zahar bhoole se khilaa diyaa tum ne

mere hee aagosh me the kal talak
zurm kyaa jis kaa silaa diyaa tum ne

thee kamaaee zindagee bhar kee meree
kyaa kiyaa eemaaN hilaa diyaa tum ne

maut ke saaye me thaa jeetaa khalish
ek nazar se jilaa diyaa tum ne.

Khalish, 21 October 2007








११००. Shak mere dil me yahee aataa rahaa—sent to EK

Shak mere dil me yahee aataa rahaa
jhooTh hee wo pyaar jatalaataa rahaa

pyaar kee kasame bahut khaayeen magar
zulf auron kee wo sahalaataa rahaa

na muyassar theen use do roTiyaan
khud ko daulatamand batalaataa rahaa

thee usoolon se use yoon dushmanee
pyaar kee har rasm jhuThalaataa rahaa

jaan kar us kee hakeekat ab khalish
ishk kaa saaraa nashaa jaataa rahaa.

Khalish, 20 October 2007



© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
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