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Printed from https://writing.com/main/books/entry_id/626963-Poems--ghazals--no-1026--1050-in-Hindi-script
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Rated: E · Book · Emotional · #1510374
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
#626963 added December 31, 2008 at 6:09am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1026- 1050 in Hindi script

१०२६. दर-ए-दिल-ए-यार न मुझे कभी खुला मिला

दर-ए-दिल-ए-यार न मुझे कभी खुला मिला
जाने क्या खता हुई कि ये मुझे सिला मिला

अब तलक गुमान था हसीन इश्कगाह है
जब गया करीब संग-ए-मरमरी किला मिला

जो भी मेरे पास था सब उसे ही दे दिया
मुझ को उस से सिर्फ़ गम और कुछ गिला मिला

यूं तो वो निभा रहा है रस्म-ओ-फ़र्ज़ सब तरह
इक वफ़ा के फ़र्ज़ से यार बस हिला मिला

मेरे संग जब तलक रहा तो कुछ उदास सा
गै़र-बांह में ख़लिश फूल सा खिला मिला.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१४ सितम्बर २००७






१०२७. होता है खाली एक लफ़्ज़ पर मतलब दो-दो होते हैं—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १४ सितम्बर २००७ को प्रेषित

होता है खाली एक लफ़्ज़ पर मतलब दो-दो होते हैं
असलियत समझने की धुन में सब अकसर खाते गोते हैं

क्या झुकी पलक में राज़ छिपा क्या दिल की धड़कन कहती है
शायर बेचारे यही सोच कर चैन दिलों का खोते हैं

सुख दुख तो सब ने पाये हैं न वक्त टिका है दुनिया में
कुछ लोग मगर माज़ी का ग़म दरपेश पलों में ढोते हैं

ऐसे भी हैं मन्दिर मस्जिद जो रोज़ टेकते हैं माथा
सच्चे इंसान गुनाहों को दिल के अश्कों से धोते हैं

मुरली वाले ने अर्जुन को जब जंग हुई तो समझाया
जब ख़लिश जगें दुनिया वाले तब ज्ञानी मन से सोते हैं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१४ सितम्बर २००७



१०२८. लो जुदाई के सभी ग़म सह लिये—१५ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १५ सितम्बर २००७ को प्रेषित--RAMAS

लो जुदाई के सभी ग़म सह लिये
हम तुम्हारे प्यार के बिन रह लिये

तुम न थे पहलू में, शिकवे प्यार के
दर-ओ-दीवारों से रो कर कह लिये

दिन ढले तनहाइयों में रात की
बाढ़ आयी आंसुओं की, बह लिये

कोई क्या जाने कि हैं बैठे हुए
याद की परतों में कितनी तह लिये

न हुआ दीदार जीते जी ख़लिश
कब्र पे दो फूल आये वह लिये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१४ सितम्बर २००७






P १०२९. ज़िन्दगी क्या है? —१६ सितम्बर २००७ की कविता, ई-कविता को १६ सितम्बर २००७ को प्रेषित, १६ अप्रेल २००८ को पुन:प्रेषित


ज़िन्दगी क्या है?
एक डायरी
जिस का हम रोज़ एक पन्ना भरते हैं
और डायरी जब भर जाती है
उसे विधि-पूर्वक जला कर
एक नई डायरी की तलाश में उड़ जाते हैं.


ज़िन्दगी क्या है?
एक पौधा
जिसे हम दो कौंपलों की वय से
पेड़ बनने तक सींचते हैं
फूल चुगते हैं, फल खाते हैं
और जब वह सूख कर गिर जाता है
सब मिल कर उसे होम कर जाते हैं.

ज़िन्दगी क्या है?
एक वस्त्र
जिसे हम धारण करते हैं
और जब वह मैला, जीर्ण हो जाता है
तो नया चोला पहन लेते हैं
पुराने को त्याग जाते हैं

चोला क्या है?
यह शरीर
हम क्या हैं?
यह आत्मा
और जीवन क्या है?
कुछ दिन-रातों का संगम
कुछ पल का अंतराल
जिस का अनन्त काल-चक्र में
कुछ भी अस्तित्व नहीं
जो असीमित काल-सागर में
एक बून्द के समान है
जिस का वज़ूद
है भी, नहीं भी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१६ सितम्बर २००७



















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from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com>
date Sep 16, 2007 5:53 PM

महेश जी,

१६ सितम्बर २००७ की रचना, ई-कविता को २००७ को प्रेषित एक सुन्दर व वैचारिक रचना है।

000000000

from Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com>
date Sep 16, 2007 6:41 PM



खलिश साहब:

आप की कविता और विशेष रूप से ये पंक्तियां अच्छी लगी :
>>
और जीवन क्या है?
कुछ दिन-रातों का संगम
कुछ पल का अंतराल
जिस का अनन्त काल-चक्र में
कुछ भी अस्तित्व नहीं
जो असीमित काल-सागर में
एक बून्द के समान है
जिस का वज़ूद
है भी, नहीं भी.
>>>

सादर

अनूप

0000000000000000000000







P १०३०. ज़िन्दगी एक मेरी बनी हादसा—१७ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १७ सितम्बर २००७ को प्रेषित


ज़िन्दगी एक मेरी रही हादसा
मेरा जीना रहा सिर्फ़ नाशाद सा

कोई भूला हुआ सुर उभरता रहा
कान में गूंजता बस रहा नाद सा

चाह कर भी मैं ज़ाहिर न कुछ कर सका
मन पे छाया रहा एक उन्माद सा

मैं ज़माने की चालों को समझा नहीं
मौत का भी इशारा लगा दाद सा

है ये क्या ज़िन्दगी रह गया हूं खलिश
कोई माज़ी की बीती हुई याद सा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१६ सितम्बर २००७






P १०३१. तुम मुझे भुला देना माटी जग में माटी बन आया था—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १७ सितम्बर २००७ को प्रेषित

तुम मुझे भुला देना, माटी जग में माटी बन आया था
पर देख यहां का रूप रंग मैं नाहक ही भरमाया था

मैं निराकार, उस निर्गुण का था एक अंश इस पृथ्वी पर
था आत्म रूप मैं, अजर-अमर, पर खुद को समझा काया था

तुम भी मैं हो, मैं भी तुम हूं, है वही आत्मा दोनों में
मानव तन था जब तक मेरा, यह भेद समझ न पाया था

जिस तरह गर्भ पर जेर और ज्यों धूल जमी हो दर्पण पर
इन्द्रियों और मन ने मिल कर बुद्धि पर डाला साया था

यह जन्म-मरण का चक्र निरन्तर यूं ही चलता आया है
तुम शोक नहीं करना इस का, यह तन तो केवल माया था.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ सितम्बर २००७




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from vikas vardhan soni <soni.vikasvardhan@gmail.com>
date Sep 17, 2007 2:59 PM

ख़लिश जी

इस संसार चक्र से ख़ुद को अलग करने की बात को बेहद खूबसूरती से यह पंक्तियाँ प्रकट करती हैं

"मैं निराकार, उस निर्गुण का था अंश एक इस पृथ्वी पर
था आत्म रूप मैं अजर अमर पर खुद को समझा काया था"

पढ़ के बहुत आनंद आया

विकास
००००००००००००








१०३२. आखों में बन के अश्क उन की याद आई आज – ईकविता, ७ मई २००८

आखों में बन के अश्क उन की याद आई आज
माज़ी की तमन्नाओं की फ़रियाद आई आज

महफ़िल भी उठ गयी कलाम खत्म हो चुका
न जाने किस दयार से ये दाद आई आज

जब मैं पलट रहा हूं ज़िन्दगी के वर्क को
क्यों इक घड़ी बीती हुई नाशाद आई आज

तसवीर थी कोई जिसे भूला हुआ था मैं
क्यों याद उस की मुद्दतों के बाद आई आज

मांगा ख़लिश जो मुफ़लिसी में पायीं ठोकरें
पर जश्न-ए-जनाजे को है इमदाद आई आज.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ सितम्बर २००७












१०३३. हमें अभी तक मिला न कोई, हमारे दिल को जो प्यार करता—१८ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १८ सितम्बर २००७ को प्रेषित



हमें अभी तक मिला न कोई, हमारे दिल को जो प्यार करता
जहां में होता कोई तो ऐसा, हमारा जो एतबार करता

बिता रहे हैं हम उम्र अपनी, किसी की आहट कभी तो आये
उसे मोहब्बत जो हम से होती हमारा भी इन्तज़ार करता

अगर मोहब्बत किसी को होती, क्यों मेरा चैन-ए-दिल वो मिटाता
क्यों टूट जाते रंगीन सपने, क्यों कोई फूलों को खार करता

कहने को हैं यूं तो दोस्त सब ही, कोई तो ऐसा गमख्वार होता
जो गम से हम को निज़ात देता, जो दिल से खंजर को पार करता

ख़लिश न किस्मत में ये लिखा था, होता कभी हमसफ़र भी कोई
तीर-ए-निगाह जो चलाता हम पे, मोहब्बतों के जो वार करता.

तर्ज़:
सलाम-ए-हसरत कबूल कर लो, मेरी मोहब्बत कबूल कर लो

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ सितम्बर २००७










१०३४. दिल में गम की शिद्दत होगी तो पैदा होगी गज़ल एक --बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १७ सितम्बर २००७ को प्रेषित


दिल में ग़म की शिद्दत होगी तो पैदा होगी गज़ल एक
कीचड़ में बीज पड़ेगा तो फिर पैदा होगा कंवल एक

सांसें आती और जाती हैं, परवाह नहीं करता इंसां
कोई सांस आखिरी आयेगी, ऐसा भी होगा अजल एक

जो करते हैं इंसान फ़िक्र, वो करें इबादत ग़र उस की
डूबी कश्ती तर जायेगी, होगा अल्लाह का फ़ज़ल एक

मत टलो बन्दगी से चाहे तुम रहो झौंपड़ी में भूखे
जब जाओगे उस के घर तो वो देगा तुम को महल एक

मत ख़लिश खजानों को जोड़ो, दौलत दो सभी गरीबों को
मौला के पास पहुंचने का है यही उपाय सहल एक.

अजल = मौत का समय

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१७ सितम्बर २००७

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from "R.P. Yadav" <rp_yadav2002@yahoo.com>
date Sep 18, 2007 12:01 PM



सम्मानीय डा. साहब

आप की हर गज़ल मे ईतनी गहराई होती है कि हम डुबते ही चले जाते है ।

सांसें आती और जाती हैं, परवाह नहीं करता इंसां
कोई सांस आखिरी आयेगी, ऐसा भी होगा अजल एक

प्रशसा के शब्द नही है इन पक्तियो के बारे मे लिखने हेतु । कास इसा हर सास को आखिरी सास समझ कर जिता तो जीवन कितना सार्थक हो जाता ।

बहुत बहुत धन्यबाद

RP Yadav
Lucknow

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१०३५. लबों पे मुस्कराहट है नज़र पर डबडबाती है—१९ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १९ सितम्बर २००७ को प्रेषित


लबों पे मुस्कराहट है नज़र पर डबडबाती है
वो आये हैं, इधर अब आखिरी ये सांस जाती है

मिले हैं उन से हम लेकिन खुशी के गीत क्या गायें
कहीं पर मरसिये की दूर से आवाज़ आती है

मिले वो वक्त-ए-रुखसत अब हमारी रूह न भटकेगी
सन्देसा मौत का ढलती हुई सी रात लाती है

हुआ है हिज्र के साये में कैसा वस्ल, न जाने
हैं कितने रंग जो बुझती हुई शम्म दिखाती है

ख़लिश स्याह रात है, ये सोच न सपनों से मुंह मोड़ो
उफ़ुक पर नये सवेरे की किरण इक मुस्कुराती है.


उफ़ुक =क्षितिज

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१८ सितम्बर २००७










१०३६. मेरे घर आयेंगे सजना--बिना तिथि कीकविता, ई-कविता को १९ सितम्बर २००७ को प्रेषित


मेरे घर आयेंगे सजना
बनेगा फुलवारी अंगना
खिलेगा क्यों मेरा अंग न
मगन हो नाचूंगी

गये जब से प्रीतम परदेस
न पाती न कोई सन्देस
मिटे सारे मेरे अब क्लेश
सखिन संग नाचूंगी

करूंगी मैं सोलह सिंगार
करेंगे प्रीतम मुझ से प्यार
न मानूंगी मैं उन से हार
पिया संग नाचूंगी

सजन का लूंगी मैं मन लूट
पिलाऊंगी अंखियन से घूंट
कि चाहे जाये पायल टूट
मैं इतना नाचूंगी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ सितम्बर २००७






१०३७. आई दिवाली दीप जले, मेरे मन घोर अन्धेरा—२० सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ सितम्बर २००७ को प्रेषित


आई दिवाली दीप जले, मेरे मन घोर अन्धेरा
मेरी मन रजनी का जाने कब है लिखा सवेरा

बाट तकूं पल पल साजन की धीर धरूं मैं कैसे
नागिन सोचे कब आयेगा ले कर बीन संपेरा

मन का मरम कहूं मैं किस से पीर सही न जाये
सूरत देख के सखियां पूछें हाल हुआ क्या तेरा

जब तक पी के दरसन पाऊं चैन न मन में आये
प्रीत की मारी बन बन डोलूं, साया हुआ घनेरा

बीती जाये बाली उमरिया पर साजन न आये
चुक जाये कब ख़लिश न जाने इस जीवन का फेरा.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ सितम्बर २००७








१०३८. यूं तो कुकुरमुत्ते खिलें बरसात में हज़ार—२१ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २५ सितम्बर २००७ को प्रेषित

यूं तो कुकुरमुत्ते खिलें बरसात में हज़ार
मोती बने है एक ही, बून्दें हैं बेशुमार

गफ़लत न कर, भगवान के हैं रूप अनेकों
बन के भिखारी वे चले आयेंगे तेरे द्वार

भरमाये रहेगा ये माया जाल कब तलक
मत रम यहां इंसान, ये संसार है असार

यमदूत ले के आयेंगे जब काल का फन्दा
वो ही बचायेगा जिसे बैठा है तू बिसार

दुनिया है कर्मक्षेत्र, बोयेगा सो काटेगा
नेकी जो करेगा ख़लिश, हो जायेगा भव पार.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ सितम्बर २००७




१०३९. रहा हमेशा खिंचा खिंचा वो, कसूर तो भी था मेरे दिल का

रहा हमेशा खिंचा खिंचा वो, कसूर तो भी था मेरे दिल का
निभाई थी दुश्मनी हमेशा, वो दोस्त, गो, भी था मेरे दिल का

कबर पे मेरी बस आप ही ने चढ़ाये फूल और बहाये आंसू
तभी ये जाना कि चुपके चुपके ख्याल आप को भी था मेरे दिल का

दिया था दिल तो उसे मगर फिर इशारा मुझ से हुआ न कोई
छिपाया उस ने हमेशा मुझ से, दीवाना वो भी था मेरे दिल का

चराग-ए-दिल जो जला के देखा तभी तो मैंने ये राज़ जाना
चराग के ही तले छिपा था, अन्धेरा जो भी था मेरे दिल का

सहेजा है मैंने दर्देदिल को, ज्यों इस से बढ़ के नहीं है दौलत
जो शिद्दतेगम से खून आंसू बना है सो भी था मेरे दिल का.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ सितम्बर २००७





१०४०. मेरे महबूब तुझे मुझ से मोहब्बत न सही, मैं तेरे इश्क में दीवाना हुआ जाता हूं—२२ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २६ सितम्बर २००७ को प्रेषित


मेरे महबूब तुझे मुझ से मोहब्बत न सही, मैं तेरे इश्क में दीवाना हुआ जाता हूं
क्यों करूं आज ज़माने के असूलों से गिला, आज मैं खुद से ही बेगाना हुआ जाता हूं

मैंने जो इश्क किया झूठ रहा होगा वो, तेरी राहों में भला खार मुझे क्यों मिलते
प्यार कर के भी मुझे प्यार की मन्ज़िल न मिली, मैं फ़कत प्यार का अफ़साना हुआ जाता हूं

प्यार की राह मुझे रास न आई अब दिल मुझ से कहता है कि दुनिया से किनारा कर लूं
क्या है ग़म क्या है खुशी सब हैं बराबर अब तो, सारे एहसास से वीराना हुआ जाता हूं

मेरा माज़ी ही निशानी है मेरी उल्फ़त की, मेरा हिस्सा है जिसे आज यहां छोड़ चला
मुझे मालूम है ज़िन्दा हूं फ़कत यादों से, उन्हीं यादों से मैं अनजाना हुआ जाता हूं

मैंने सब रस्मोरिवाज़ों को परख के देखा, आज इंसां से भरोसा ही मेरा बीत गया
क्या करूं अब भी ख़लिश ग़र है ज़माने को गिला, आज फ़ितरत से वहशियाना हुआ जाता हूं.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१९ सितम्बर २००७

तर्ज़:
“एक शहन्शाह ने दौलत का सहारा ले कर, हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक”














१०४१. क्या करूं मैं ज़िन्दगी जब रास न आये मुझे —२३ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २६ सितम्बर २००७ को प्रेषित--RAMAS


क्या करूं मैं ज़िन्दगी जब रास न आये मुझे
जी रहा हूं किसलिये, बस ग़म यही खाये मुझे

जो चले जाते हैं वो आते नहीं हैं लौटकर
याद आकर क्यों किसी की रोज़ तड़पाये मुझे

आज हूं दुनिया में तनहा, कोई भी मेरा नहीं
काश कोई पास आ हौले से छू जाये मुझे

अब फ़िज़ाओं में, खिज़ाओं में, न कोई फ़र्क है
ज़िन्दगी अब क्यों सुहाने ख़्वाब दिखलाये मुझे

वक्त रहते अलविदा आओ तुम्हें कह दूं ख़लिश
दिख रहे हैं दूर से अब मौत के साये मुझे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ सितम्बर २००७










१०४२. कोई भी जाना नहीं चाहता, यहां आने के बाद —२४ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २६ सितम्बर २००७ को प्रेषित


कोई भी जाना नहीं चाहता, यहां आने के बाद
और वापस भी नहीं आता यहां, जाने के बाद

मत करो उन का भरोसा जो दिखायें सब्ज़ बाग
लूट लेना है बहुत आसान बहकाने के बाद

दोस्त तो मुझ को सलाहें दिन-ब-दिन देते रहे
एक मैं ही था न समझा लाख समझाने के बाद

भूल जाना चाहता हूं अपने सारे दर्द-ओ-ग़म
कोई पकड़ा दे मुझे पैमाना पैमाने के बाद

मर्ज़ मुझ को ही नहीं है एक दुनिया में ख़लिश
और भी दीवाने होंगे मुझ से दीवाने के बाद.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ सितम्बर २००७








१०४३. हासिल कर लेगा इल्म अगर, इंसां आलिम कहलायेगा —२५ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २७ सितम्बर २००७ को प्रेषित


हासिल कर लेगा इल्म अगर, इंसां आलिम कहलायेगा
एहसास रूहानी जब होगा, इंसान वली बन जायेगा

हैं भरीं कुतुबखानों में यूं तो इल्म की ज़िल्दें मोटी सी
दरकार रहेगी न इन की वो वक्त कभी तो आयेगा

हैं लाख तमन्नायें ऐसी जो आज लुभाती हैं तुझ को
जब उस की तमन्ना होगी तो तू इन सब से कतरायेगा

मालिक की जब मेहर होगी, गरमी हो चाहे सरदी हो
सोना हो चाहे मिट्टी हो, तू फ़र्क न इन में पायेगा

न आज भरोसा कल का है, अगले लमहे पर जोर नहीं
तू लगा ख़लिश दिल को रब में, कब तक यूं ही भरमायेगा.

इल्म = विद्या
आलिम = विद्वान
वली = महात्मा
कुतुबखाना = पुस्तकालय

तर्ज़:
कुछ और ज़माना कहता है, कुछ और है ज़िद्द मेरे दिल की
मैं बात ज़माने की मानूँ, या बात सुनूँ अपने दिल की

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ सितम्बर २००७





१०४४. जब भी मैं तनहा होता हूं, एहसास ये दिल में आता है—२६ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २७ सितम्बर २००७ को प्रेषित


जब भी मैं तनहा होता हूं, एहसास ये दिल में आता है
अपना है जहां में कोई नहीं, बस नाम का सब से नाता है

जिस की है नज़र में सब दुनिया तू उसे भुलाए बैठा है
इंसां की नज़र का दीवाना बन कर इंसां भरमाता है

इंसान तो इल्म का पुतला है, उस ने ही बनाये हैं मज़हब
फिर भी करता है लाख गुनाह, वो रोक न खुद को पाता है

असली दौलत है रूहानी, उस पर तो कभी रीझा ही नहीं
दौलत के ज़खीरे पर बैठा, नाहक ही शान दिखाता है

है वक्त अभी भी होश में आ, वरना पीछे पछतायेगा
कर ले मौला को याद ख़लिश, ये जीवन बीता जाता है.

तर्ज़:
कुछ और ज़माना कहता है, कुछ और है ज़िद्द मेरे दिल की
मैं बात ज़माने की मानूँ, या बात सुनूँ अपने दिल की

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ सितम्बर २००७




१०४५. ऐ ज़माने बेरहम, ढाये हैं तूने सितम, मैं हुआ बरबाद—२७ सितम्बर २००७ का नगमा, ई-कविता को २७ सितम्बर २००७ को प्रेषित


ऐ ज़माने बेरहम
ढाये हैं तूने सितम
मैं हुआ बरबाद

आस सारी मिट गयी
आज मेरी हो गयी
ज़िन्दगी नाशाद

ये भी कोई ज़िन्दगी है जी रहा हूं जो यहां
आज दुश्मन बन गया है मेरा ये सारा जहां
न यहां पर दोस्ती है, न मोहब्बत का निशां
मैं हुआ बरबाद

मैंने सोचा था यहां हैं गुल, मिले पर खार ही
चाह कर कुछ कर न पाया, मैं रहा बेकार ही
सांस तो चलती रही पर मैं रहा बीमार ही
मैं हुआ बरबाद

छोड़ कर दुनिया को यारो अब चला जाता हूं मैं
फिर न आऊंगा पलट के ये कसम खाता हूं मैं
जाते जाते इक तराना बस यही गाता हूं मैं
मैं हुआ बरबाद


ऐ ज़माने बेरहम
ढाये हैं तूने सितम
मैं हुआ बरबाद


आस सारी मिट गयी
आज मेरी हो गयी
ज़िन्दगी नाशाद.


तर्ज़:
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझ पे दिल कुर्बान
तू ही मेरी आरज़ू, तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान

तेरे दामन से जो आयें उन हवाओं को सलाम
चूम लूं मैं उस हवा को जिस पे आये तेरा नाम

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ सितम्बर २००७







१०४६. आज आप की निगाह झुक गयी है किसलिये

आज आप की निगाह झुक गयी है किसलिये
बात आ के होंठ पर रुक गयी है किसलिये

अब तलक तो चल रहे थे दोनों बन के हमसफ़र
आप की ये दोस्ती मुक गयी है किसलिये

कर के चान्द को गवाह खाई थी जो आप ने
वो कसम वफ़ा की आज चुक गयी है किसलिये

ताजमहल जिस की बन रहा था कल तलक मिसाल
हो वो दास्तान नाज़ुक गयी है किसलिये

कौन है जो आप को आज और मिल गया
आस प्यार की ख़लिश फुंक गयी है किसलिये.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ सितम्बर २००७







१०४७. मेरे दिल से आ रही है आज ये आवाज़ सी

मेरे दिल से आ रही है आज ये आवाज़ सी
लग रही है आज मेरी दिलरुबा नाराज़ सी

खोल दो सारी गिरह हम से छिपाना किसलिये
कौन सी दिल में कशिश है अनकहे अन्दाज़ सी

कौन है ऐसी तमन्ना जो दबाये न दबे
तोड़ दिल के सख्त पहरे आ रही जांबाज़ सी

या कोई ख्वाहिश है ऐसी जो नही होती बयां
कट गये हों पंख जैसे इक दबी पर्वाज़ सी

इक बला सी बन गयी है आप की चुप्पी ख़लिश
आंख मिचौनी से, ज़ाहिर और निहां, राज़ सी.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२२ सितम्बर २००७








१०४८. तुम्हारे दिल को मेरे गम की कुछ परवाह तो होती—२८ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को २८ सितम्बर २००७ को प्रेषित

तुम्हारे दिल को मेरे गम की कुछ परवाह तो होती
न सच्चा प्यार होता तो भी झूठी चाह तो होती

जियेंगे कब तलक यूं ही कभी हंसते कभी रोते
निज़ात-ए-ग़म-ए-उल्फ़त की हमें कुछ राह तो होती

तुम्हारे वास्ते हम ने लगा दी जान की बाजी
मगर दिल में तुम्हारे क्या है, हम को थाह तो होती

मेरे दिल में चिताएं जल रही हैं मेरे ख्वाबों की
कभी निकली लबों से उन के कोई आह तो होती

बड़ी उम्मीद से हम ने गज़ल अपनी सुनाई है
ख़लिश कुछ दाद तो मिलती, कि वाह-ओ-वाह तो होती.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ सितम्बर २००७







१०४९. शम्म फिर दिल में मोहब्बत की जलाऊं कैसे

शम्म फिर दिल में मोहब्बत की जलाऊं कैसे
है वफ़ा में जो तेरी दाग, भुलाऊं कैसे

बड़ी शिद्दत से सनम मैंने तुझे चाहा था
चाक दिल अपना सनम तुझ को दिखाऊं कैसे

मैंने चुपचाप सहे जो भी सितम तू ने दिये
पर ज़फ़ाओं का सितम लब पे न लाऊं कैसे

देख के ग़ैर की बाहों में भरी महफ़िल में
खुद को, मेरी है, ये अहसास दिलाऊं कैसे

राज़ पोशीदा रहे तो ही ख़लिश बेहतर है
जो ये लिखी है गज़ल सब को सुनाऊं कैसे.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ सितम्बर २००७







१०५०. दो कदम साथ चले तुम तो भला क्या कम है

दो कदम साथ चले तुम तो भला क्या कम है
दिल है नादान इसे तर्केवफ़ा का ग़म है

प्यार कर के न निभा पाये अगर तुम तो ज़रूर
मेरे अन्दाज़-ए-मोहब्बत में कोई तो खम है

न हुए मेरे नहीं इस की शिकायत मुझ को
दिल मेरा तोड़ दिया बस दिल में यही मातम है

तुम तो खोये ही रहे गैर के सपनों में सदा
तुम ने देखा ही नहीं आंख मेरी कुछ नम है

तुम रहो शाद ख़लिश तुम को दुआ देता हूं
अब तो नाशाद तनहाई ही मेरा आलम है.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
२३ सितम्बर २००७


© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
Dr M C Gupta has granted Writing.Com, its affiliates and its syndicates non-exclusive rights to display this work.
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