\"Writing.Com
*Magnify*
SPONSORED LINKS
Printed from https://writing.com/main/books/entry_id/626962-Poems--ghazals--no-1001--1025-in-Hindi-script
Item Icon
\"Reading Printer Friendly Page Tell A Friend
No ratings.
Rated: E · Book · Emotional · #1510374
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
#626962 added December 31, 2008 at 6:07am
Restrictions: None
Poems / ghazals , no. 1001- 1025 in Hindi script



१००१. आंचल को गिराया गोरी ने या खुद ही है आंचल खिसका—२९ -८-०७ की गज़ल, ई-कविता को १-९-०७ को प्रेषित


आंचल है गिराया गोरी ने या खुद ही है आंचल खिसका
शैतान-ओ-खुदा के किस्से में इंसान भरेगा दम किस का

जो पर्दे में है छुपा हुआ उस को पोशीदा रहने दो
गर चौराहे पे बिखर गयी क्या मोल रहेगा ख्वाहिश का

फ़रहाद ने खोदी नहर, बनाई सड़क काट कर परबत को
मन में सच्चाई होगी तो अन्ज़ाम मिलेगा कोशिश का

उस को तो बस बेरहमी से एक तीर चलाना आता है
सैय्याद को क्या मालूम भला सीने में किस का दिल सिसका

जब पास रहेंगे दो दिल तो फिर प्यार के शोले भड़केंगे
नज़रों पे ख़लिश कुछ ज़ोर नहीं वो काम करेंगी आतिश का.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
१ सितम्बर २००७








१००२. गुस्ताखी आप से करें हम क्या मज़ाल है—३०-८-०७ का नगमा, ई-कविता को १-९-०७ को प्रेषित


गुस्ताखी आप से करें हम क्या मज़ाल है
दम पे हैं जीते आप के अपना ये हाल है

हम इश्क में डूबे हैं यूं कि आप की कसम
हर सू ही सूरत आप की अब देखते हैं हम
नज़रों ने आप की किया कैसा कमाल है
गुस्ताखी आप से करें हम क्या मज़ाल है

आयेंगे आप एक दिन तो पास में सनम
उस दिन के इंतज़ार में ही जी रहे हैं हम
अब आप का ही रात दिन मन में खयाल है
गुस्ताखी आप से करें हम क्या मज़ाल है

न आये आप तो बहुत बेज़ार होंगे हम
न झेल पायेंगे जुदाई का कभी सितम
ये मेरी ज़िन्दगी-ओ-मौत का सवाल है
गुस्ताखी आप से करें हम क्या मज़ाल है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ सितम्बर २००७

उक्त कविता का गज़ल रूप, अनूप जी की प्रेरणा से--

गुस्ताखी आप से करें हम क्या मज़ाल है
दम पे हैं जीते आप के अपना ये हाल है

हर सू ही सूरत आप की अब देखते हैं हम
नज़रों ने आप की किया कैसा कमाल है

आयेंगे आप एक दिन तो पास में सनम
अब आप का ही रात दिन मन में खयाल है

न झेल पायेंगे जुदाई का कभी सितम
ये मेरी ज़िन्दगी-ओ-मौत का सवाल है

मैय्यत पे जमा भीड़ पर कहना न यूं खलिश
इक शख्स के मरनें पे ये कैसा बवाल है.





सब के ही वास्ते, कोई दे या न दे
मैं दुआ दिल से करता चला जाऊंगा

दे न दे, शुक्रिया, सभी के लिये
मैं दुआ दिल से करता चला जाऊंगा



१००३. मैं बहारों से लड़ता चला जाऊंगा—१-९-०७ की गज़ल, २-९-०७ को प्रेषित


मैं बहारों से लड़ता चला जाऊंगा
और खिजाओं से मिलता चला जाऊंगा

खो गया जो उसे भूल कर झोलियां
जो मिला उस से भरता चला जाऊंगा

सब के ही वास्ते, कोई दे या न दे
मैं दुआ दिल से करता चला जाऊंगा

मेरा लुट जाये सब, पर ये मुमकिन नहीं
कि दुखों से मैं घिरता चला जाऊंगा

भूल हालात-ए-गर्दिश मैं अपने ख़लिश
अश्क औरों के हरता चला जाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ सितम्बर २००७








१००४. हर तरफ़ धूप है हर तरफ़ आग है—३१-८-०७ की गज़ल, २-९-०७ को प्रेषित


हर तरफ़ धूप है हर तरफ़ आग है
तान फ़न, ताकता विष भरा नाग है

कोई बैठा है तख्तों पे ताजों सजा
लड़खड़ाता किसी का यहां भाग है

बादशाह के लिये, मुफ़लिसों के लिये
एक जैसा मगर मौत का राग है

धर्म के नाम पर आज मंथन मचा
और उठता ज़हर से भरा झाग है

बुश-ओ-ब्लेयर जहां से चले जायेंगे
जो न जायेगा वो एक बस दाग है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१ सितम्बर २००७






१००५. इनायत इतनी हो जाये, मुझे यह सिफ़्त मिल जाये— २-९-०७ की गैर-मुरद्दफ़ गज़ल, ई-कविता को ३-९-०७ को प्रेषित


इनायत इतनी हो जाये, मुझे यह सिफ़्त मिल जाये
हर इक इंसान में मौला मुझे तू ही नज़र आये

खयालों में रहे तू इस तरह दिन रात हर लमहा
मेरी गर्दिश के खारों में तू बन के फूल मुस्काये

मुझे मन्ज़ूर है मौला लिखी तकदीर जो तूने
तू ही सहरा दिखाता है चमन भी तू ही दिखलाये

मैं अपने फ़र्ज़ तो करता रहूं पर बू-ए-मैं न हो
मुझे एहसास हो जो भी करूं वो तू ही करवाये

मैं राह-ए-ज़िन्दगी से इस यकीं के साथ गुज़रा हूं
बिगड़ जाये खलिश जब बात उस को तू ही सुलझाये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ सितम्बर २००७






१००६. मिलें वो किस तरह सीने में थी बस इक ललक यारो —३-९-०७ की गज़ल, ३-९-०७ को प्रेषित



मिलें वो किस तरह सीने में थी बस इक ललक यारो
यूं ही भटका किये पाने को उन की इक झलक यारो

खुदी को भूल कर ढूंढा किये वीराना-ओ-बस्ती
वो हम से पूछते हैं थे कहां तुम अब तलक यारो

सजा के ख्वाब रंगीं है बनाई इश्क की दुनिया
ज़मीं दिखती नहीं दिखता है बस हम को फ़लक यारो

कई इलज़ाम पाये हैं बुरा हो इस मोहब्बत का
रहे खामोश लब आंखें मगर आईं छलक यारो

तमन्ना हो जो उन की जान भी दे दें ख़लिश पल में
इशारा तो करे हलकी झुकी उन की पलक यारो.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ सितम्बर २००७
























P१००७. नज़रों में तुम हो नज़ारों में तुम हो—५-९-०७ की गज़ल, ५-९-०७ को प्रेषित

नज़रों में तुम हो नज़ारों में तुम हो
तुम्हीं चान्द में हो, सितारों में तुम हो

नहीं दूसरा है ज़माने में कोई
मेरे वास्ते इक हज़ारों में तुम हो

तुम्हारे ही दम पे ये दुनिया है मेरी
सहरा में तुम हो बहारों में तुम हो

आंसू तुम्हीं से, तबस्सुम तुम्हीं से
शबनम में तुम हो, शरारों में तुम हो

तुम्हीं से जवां हैं वो यादों के लमहे
ख़लिश तुम सदा में, पुकारों में तुम हो.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
३ सितम्बर २००७











000000000

from vikas vardhan soni <soni.vikasvardhan@gmail.com
date Sep 6, 2007 11:28 PM
बेहद खूबसूरत रचना है ख़लिश जी
विकास
0000000000

from sunita sharma <shanoo03@yahoo.com
date Sep 7, 2007 1:23 AM
खलिश जी बहुत अच्छी लगी आपकी रचना बहुत-बहुत बधाई...
सुनीता(शानू)

००००००००००००००

from Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com>
date Sep 7, 2007 12:55 AM
खलिश साहब:
बहुत सहज सी और प्यारी सी गज़ल है ।
बधाई
अनूप

०००००००००००

from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com>
date Sep 7, 2007 10:04 PM
बहुत खूब
कहाँ ढूंढते हम हुए दर बदर थे
मेरी सोच की जब दरारों में तुम हो.
देवी

000000000000

from Praveen Parihar <p4parihar@yahoo.co.in
date Sep 7, 2007 5:52 AM
खलिश जी,
बहुत अच्छी कविता है।
यंहा कई दिनों पहले लिखी चार पंक्तिया कहना चाहूगाँ ।

जीवन में अपने सिर्फ तुमको पाया,
तुम्ही को पाकर फ़िरदोस पाया,
अभी से पहले बेहोश था मैं
तुम्ही को पाकर ये होश पाया।
प्रवीण परिहार
००००००००००००

From: "dr.kavita vachaknavee" 7 Sep 07 01:29 AM
Subject: [ekavita] khalish ji


नज़रों में तुम हो नज़ारों में तुम हो
तुम्ही चान्द में हो, सितारों में तुम हो

ये पंक्तियाँ विशेष पसंद आईं।
~कविता

००००००००००००००००
















एद
दिल में तो बसाया था उनको, मेरी दुनिया में आ न सके
दूरी हर दिन बढ़ती ही गई, वो आ न सके, हम जा न सके.

दुनिया की नज़र में साथ रहे पर दो दिल साथ नहीं धड़के
इक उम्र बिताई संग उनके, इक प्यार का लमहा पा न सके

हैं लाख सितम झेले हमने पर लब से उफ़ भी क्यों निकले
वो बहुतों पर करते थे करम, हम उनको वफ़ा सिखला न सके

न अपने से फ़ुर्सत उनको, न अपने खाम-खयालों से
हम दिल के दाग़ उन्हें अपने चाहा तो बहुत, दिखला न सके

क्यों तर्के-मोहब्बत हुई ख़लिश ये राज़ हमें मालूम नहीं
वो शायर हैं पर मैय्यत पर मर्सिया तलक भी गा न सके.

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ सितम्बर २००७






P१००८. दिल में तो बसाया था उनको, मेरी दुनिया में आ न सके—६-९-०७ की गज़ल, ६-९-०७ को प्रेषित--RAMAS

दिल में तो बसाया था उनको, मेरी दुनिया में आ न सके
दूरी हर दिन बढ़ती ही गई, वो आ न सके, हम जा न सके

दुनिया की नज़र में साथ रहे पर दो दिल साथ नहीं धड़के
इक उम्र बिताई संग उनके, इक प्यार का लमहा पा न सके

हैं लाख सितम झेले हमने पर लब से उफ़ भी क्यों निकले
वो बहुतों पर करते थे करम, हम उनको वफ़ा सिखला न सके

न अपने से फ़ुर्सत उनको, न अपने खाम-खयालों से
हम दिल के दाग़ उन्हें अपने चाहा तो बहुत, दिखला न सके

क्यों तर्के-मोहब्बत हुई ख़लिश ये राज़ हमें मालूम नहीं
वो शायर हैं पर मैय्यत पर मर्सिया तलक भी गा न सके.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ सितम्बर २००७








१००९. वक्त की धार से लड़ सका न कोई—८-९-०७ की गज़ल, ई-कविता को ८-९-०७ को प्रेषित

वक्त की धार से लड़ सका न कोई
भाग की रेख को पढ़ सका न कोई

आखिरी सांस तक आ गये हैं कदम
बान्ध को तोड़ कर बढ़ सका न कोई

मौत का सा समां छा गया ज़ीस्त पर
पर ज़मीं में कभी गड़ सका न कोई

कोई तसवीर तूफ़ां उठा कर गयी
चौखटों में उसे मढ़ सका न कोई

ज़िन्दगी भर छवि एक मन में रही
शिल्प में पर उसे घड़ सका न कोई

याद आती रही, याद जाती रही
कंगनों में उसे जड़ सका न कोई

फूल यूं ही खिला और मुरझा गया
चाह कर शाख से झड़ सका न कोई



पुष्प सौन्दर्य की चाहे भगवान की
भैंट खिल के मग़र चढ़ सका न कोई

थे सिकन्दर सरीखे ख़लिश अनगिनत
काल की राह में अड़ सका न कोई.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००७

०००००००००

from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com>
date Sep 8, 2007 5:17 PM
राकेश जी के द्वारा दिये गये रूपक का प्रयोग करूं तो कहना होगा कि महेश जी आप इस रचना के साथ १००८ की उपाधि से आगे बढ़ गये हैं। रचना सं० १००९ प्रभावषाली है। कुछ हल्के-फुल्के बदलाव से और सुंदर बन सकती है, पर ऐसा तो लगभग सदैव ही होता है। बधाई।

पिछले दिनों और भी कई अच्छी रचनाएं ई-कविता पर पढ़ने को मिली हैं। सब का अभिनंदन। आशा है यह काव्य-सरिता यूं ही तरंगित हो बहती रहेगी।
- घनश्याम


Ed
मेरे दिल पर दस्तक देने याद पुरानी आयी है
गर्दिश-ए-सहरा में फिर से आज बही पुरवाई है

यादों से ही जीता हूं मरते दम याद रहेंगी ये
दिल के वीराने पर छायी यादों की परछाईं है

ये मेरे दिल का हिस्सा हैं इनसे कैसे अलग़ रहूं
इन यादों की खातिर मैंने सारी उम्र गंवायी है

कुछ यादें हैं चाहने पर भी नहीं पलट कर आयेंगी
कुछ ऐसी हैं दानिश्ता ही जिनसे आंख चुरायी है

याद ख़लिश इस मौके पर मैं बहुत ढूंढ कर लाया हूं
बरसी का दिन है और दिल की महफ़िल खास सजाई है.






१०१०. मेरे दिल पर दस्तक देने याद पुरानी आई है—RAMAS—ईकविता १८ सितंबर २००८

मेरे दिल पर दस्तक देने याद पुरानी आयी है
गर्दिश-ए-सहरा में फिर से आज बही पुरवाई है

यादों से ही जीता हूं मरते दम याद रहेंगी ये
दिल के वीराने पर छायी यादों की परछाईं है

ये मेरे दिल का हिस्सा हैं इनसे कैसे अलग़ रहूं
इन यादों की खातिर मैंने सारी उम्र गंवायी है

कुछ यादें हैं चाहने पर भी नहीं पलट कर आयेंगी
कुछ ऐसी हैं दानिश्ता ही जिनसे आंख चुरायी है

याद ख़लिश इस मौके पर मैं बहुत ढूंढ कर लाया हूं
बरसी का दिन है और दिल की महफ़िल खास सजाई है.

दानिश्ता = जान बूझ कर

महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
८ सितम्बर २००७





१०११. याद के काफ़िले इस तरह से बढ़े एक तूफ़ान तनहाई में आ गया

याद के काफ़िले इस तरह से बढ़े एक तूफ़ान तनहाई में आ गया
सैकड़ों मर्सिये, लाख शहनाइयां, एक नगमा अजब सा कोई गा गया

जिन लिबासों में यादों को रखा था वो रेशमी, मखमली, थे महक से भरे
याद परदों से बाहर हुई तो लगा जैसे बादल कोई चान्द पर छा गया

एक स्याना मिला और उस ने कहा सोच दो हाथ क्यों हैं खुदा ने दिये
जो ले इक हाथ से दूसरे से लुटा, यह तरीका है जीने का बतला गया

चाहे हंस के जियो, चाहे रो के जियो, ग़म ज़माने के सब हैं भुगतते यहां
आह भरने से बढ़ते हैं ग़म और भी, बात मुझ को वली कोई समझा गया

कोई चाह न रखूं है इसी में खुशी, राज़ आया समझ, देर से ही सही
ज़िन्दगी भर ख़लिश ग़म रहा है मुझे, वो ही मुझ से छिना जो मुझे भा गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००७







१०१२. पीर बढ़ती रहे दिल तड़पता रहे—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ८-९-०७ को प्रेषित


पीर बढ़ती रहे दिल तड़पता रहे
नीर बन के गज़ल, किन्तु झरता रहे

कोई विष बेल जादू दिखाती रहे
कोई मोहक इशारे पे मरता रहे

तीर पैनी निगाहों के चलते रहें
और भोला हृदय कोई बिन्धता रहे

ज़ुल्म-ओ-गम और भी तोड़ सीमा बढ़ें
आर्त क्रन्दन व्यथित कोई करता रहे

तार कांपें अधिक, और अंगुली रिसें
किन्तु वीणा का मधु-स्वर निकलता रहे

शुभ्रवस्त्रा की आराधना का नियम
दर्द सह के ख़लिश नित्य पलता रहे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००७






१०१३. गम-ओ-खुशी में फ़रक दिखता नहीं—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ८-९-०७ को प्रेषित


गम-ओ-खुशी में फ़रक दिखता नहीं
अब कोई किस्मत मेरी लिखता नहीं

न लुभाती हैं मुझे रंगीनियां
घाव दिल का अब कोई दुखता नहीं

न चमन है पुर-सुकूं मेरे लिये
अब मुझे सहरा में गम मिलता नहीं

अब न लब पे है तबस्सुम की झलक
आंसुओं में गम कोई ढलता नहीं

मिट चुकी है अब तमन्ना-ए-बहार
आलम-ए-गर्दिश ख़लिश खलता नहीं.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००७




१०१४. न किस्मत से कुछ मांगा था, बिन मांगे ये सौगात मिली—१४-९-०७ की गज़ल, ई-कविता को १४-९-०७ को प्रेषित


न किस्मत से कुछ मांगा था, बिन मांगे ये सौगात मिली
गम के आंसू देने वाली हर चीज़ यहां, हर बात मिली

यूं तो दुनिया में जाम भी हैं, साकी भी है और मस्ती भी
पर हम को तो ले दे कर के बस सिर्फ़ अन्धेरी रात मिली

नादान बहुत थे इश्क किया और भटक गये इन राहों में
दिल की बाजी यूं हार गये, हम डाल- डाल वो पात मिली

हंस हंस कर के जी लेते हैं, जाने कैसे सब लोग यहां
चुन चुन कर सिर्फ़ ज़माने में हम को तो ग़म और मात मिली

कोई वक्त ख़लिश ऐसा भी था वो जान छिड़कते थे हम पर
खुश किस्मत थे हम को उन से कुछ पल की तो खैरात मिली.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००७
000000000000000000

from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com>

date Sep 14, 2007 4:26 PM


"नादान बहुत थे इश्क किया और भटक गये इन राहों में
दिल की बाजी यूं हार गये, हम डाल- डाल वो पात मिली"

अच्छा प्रयोग है।

- घनश्याम
00000000000000000000










P १०१५. देवी बन पूजी जाती है, औरत तो औरत होती है—-१३-९-०७ की गज़ल, ई-कविता को १३-९-०७ को प्रेषित

देवी बन पूजी जाती है, औरत तो औरत होती है
चकलों में नाच दिखाती है, औरत तो औरत होती है

शौहर की शान बढ़ाने को, बेटे के जीवन की खातिर
हर पल गुमनाम बिताती है, औरत तो औरत होती है

भूखी प्यासी रह कर के भी नयी पीढ़ी का निर्माण करे
जीवन की नींव बनाती है, औरत तो औरत होती है

सब माफ़ खता है मर्दों की वो पाप करें चाहे जितने
वह सारे धर्म निभाती है, औरत तो औरत होती है

बचपन से ख़लिश बुढ़ापे तक वह बोझ उठाती मर्दों का
हेठी फिर भी कहलाती है, औरत तो औरत होती है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००७













१०१६. ज़माना मुझ को कहता है मैं इक भोला बेचारा हूं—१२ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १२ सितम्बर २००७ को प्रेषित


ज़माना मुझ को कहता है मैं इक भोला बेचारा हूं
मगर है असलियत करमों का मैं अपने ही मारा हूं

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी जिन्हें बस में न कर पाया
जो रौशन हो नहीं पाया फ़लक का वो सितारा हूं

ख़ता न गै़र की है मैं अगर बरबाद फिरता हूं
नहीं इलज़ाम औरों पर, मैं खुद अपने से हारा हूं

बड़ा आसान है कहना कि दुश्मन है मेरी किस्मत
मग़र कैसे कहूं कि मैं जहां में बेसहारा हूं

सभी पर है महर जिस की वो मेरा भी तो मालिक है
उसी लौ का ख़लिश मैं भी तो आखिर इक शरारा हूं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००७



















P १०१७. बढ़ा चल राहेआज़ादी, वतन तुझ को बुलाता है—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ८-९-०७ को प्रेषित


बढ़ा चल राहेआज़ादी, वतन तुझ को बुलाता है
लहू से सींच दे, सूखा चमन तुझ को बुलाता है

तू झूला झूल जा ऐसा वो रस्सी पाक हो जाये
अमर कर दे तिरंगे का कफ़न तुझ को बुलाता है

अमन को देश के गोरों ने कर के कैद है रखा


उसे आज़ाद तू कर दे, अमन तुझ को बुलाता है

नसल बर्तानिया की अब न टिक पाये यहां हरगिज़
निहत्थे भारतीयों का दमन तुझ को बुलाता है

शहीद हो जा वतन के नौजवां, न जी गुलामी में
अहिंसा के पुजारी का नमन तुझ को बुलाता है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००७








१०१८. जब याद अचानक माज़ी की परतों से कोई आयेगी –RAMAS—ईकविता २० सितंबर २००८

जब याद अचानक माज़ी की परतों से कोई आयेगी
तब आंख से आंसू बरसेंगे और ग़म की बदली छायेगी

मन पंछी बन उड़ जायेगा, एक बर्ख बदन में दौड़ेगी
बीते बरसों की याद कोई मेरे मन को भरमायेगी

जब भूले- बिसरे नग़मों के संग बीती घड़ियां लौटेंगी
वो याद मेरी तन्हाई में फिर से तूफ़ान मचायेगी

माज़ी में दो पल जी लूंगा, धुंधली- सी सूरत उभरेगी
खो जाऊंगा ग़र राहों में वो मन्ज़िल को दिखलायेगी

चुपचाप बहुत बातें होंगी, मिल जायेगी दिल को राहत
छूना चाहा तो रातों के साये में वो खो जायेगी.

बर्ख = तरंग, लहर, करेंट

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००७
००००००००००००

Tuesday, 14 October, 2008 1:46 AM
From: "Ripudaman" pachauriripu@yahoo.com
खलिश जी, बहुत ही सुंदर रचना है .... आपकी कुछ बहुत अलग सी रचनाओं में से एक।
रिपुदमन
०००००००००००









P १०१९. ज़िन्दगी का मेरी अब ठिकाना नहीं—९ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ९ सितम्बर २००७ को प्रेषित


ज़िन्दगी का मेरी अब ठिकाना नहीं
अब यहां मेरा आब और दाना नहीं

ग़म बहुत हैं मगर उन को दिल में ही रख
सब हसेंगे किसी को सुनाना नहीं

ये लमहे खुशी के हैं बस चार दिन
झूम कर गीत मस्ती के गाना नहीं

गर्क-ए-दरया किये जा सभी नेकियां
कोई एहसान माने, ज़माना नहीं

क्या भरोसा छलक जायें कब आंख ये
तुझ को रोना नहीं, मुस्कुराना नहीं

गम का बायस बने है खुशी ही ख़लिश
यां खुशी से कभी दिल लगाना नहीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ सितम्बर २००७






१०२०. हम भी मरीज़ हो गये हसीन मर्ज़ के—११ सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को ११ सितम्बर २००७ को प्रेषित


हम भी मरीज़ हो गये हसीन मर्ज़ के
लब पे तराने आये हैं उल्फ़त की तर्ज़ के

खर्चा तो बढ़े जाये है आमद नहीं रही
दबते ही जा रहे हैं हम बोझे में कर्ज़ के

ऐलान-ए-तंगदस्ती ज़माने में क्यों करें
हम भी तो बस इंसान हैं अपनी ही गर्ज़ के

मिलते नहीं है दोस्त हम से आजकल क्यों कि
न हम मुनाफ़े के रहे और न ही हर्ज़ के

अच्छा बुरा क्या है नहीं मालूम कुछ हम को
हम तो मुसाफ़िर हैं ख़लिश बस राह-ए-फ़र्ज़ के.


ऐलान-ए-तंगदस्ती = हाथ तंग होने की घोषणा

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००७










P १०२१. आज तुम्हारी सालगिरह है, आओ जश्न मनायें हम—१० सितम्बर २००७ की गज़ल, ई-कविता को १० सितम्बर २००७ को प्रेषित--RAMAS


आज तुम्हारी सालगिरह है, आओ जश्न मनायें हम
मय हो चाहे खून-ए-दिल हो पीयें और पिलायें हम

वादे पूरे करने हों तो लिखने की दरकार नहीं
जो ख़त तुम ने कभी लिखे थे आओ उन्हें जलायें हम

तनहाई में जीना है तो माज़ी क्यों ज़िन्दा रखें
साथ बिताई थीं जो रातें आओ उन्हें भुलाएं हम

अपने दिन तो जैसे तैसे रो धो के कट जायेंगे
शाद रहो, आबाद रहो, देते हैं तुम्हें दुआएं हम

गम क्यों करें ख़लिश मिलने की कसमें पूरी नहीं हुईं
अगली सालगिरह पर न मिलने की कसमें खायें हम.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००७











NB: The motivator for this ghazal was the following one by

khalil ullah faroqi—



AJJ TUMHARI SALGIRAH HAI...

ajj tumhari salgirah hai

jalti shamein roshan chehre
kamni larian,nazuk sehre

nargis,bela,motia,lala
johi,champa aur banafsha

hr koi shad hai na
ajj tumhari salgirah hai
dekho hm ko yaad hai na

hmto sirf duago loog
khak o mehar ka kya sanjoog

pass rahein ya door rahein
wahshat se ranjoor rahein

mahfil to abad hai na
aj tumhari salgirah hai
dekho hm ko yaad hai na

tark e taluk khoob kya
dil pr kari waar saha

nooch di konpal chahat ki
aas na rakhi rahat ki

dil mahaw fariyad hai na
ajj tumhari salgirah hai
dekho hm ko yaad hai na

kaise kaise khawab bune
rang barange khawab chune

salgirah ka cake kate ga
hath pe unke hah rahe ga
khawab hr eik barbad hai na
aj tumhari salgirah hai
dekho hm ko yaad hai na.

00000000

AJJ TUMHARI SALGIRAH HAI...
jalti shamein roshan chehre
kamni larian,nazuk sehre
nargis,bela,motia,lala
johi,champa aur banafsha
hr koi shad hai na
ajj tumhari salgirah hai
dekho hm ko yaad hai na

hmto sirf duago loog
khak o mehar ka kya sanjoog
pass rahein ya door rahein
wahshat se ranjoor rahein
mahfil to abad hai na
aj tumhari salgirah hai
dekho hm ko yaad hai na

tark e taluk khoob kya
dil pr kari waar saha
nooch di konpal chahat ki
aas na rakhi rahat ki
dil mahaw fariyad hai na
ajj tumhari salgirah hai
dekho hm ko yaad hai na

kaise kaise khawab bune
rang barange khawab chune
salgirah ka cake kate ga
hath pe unke hah rahe ga
khawab hr eik barbad hai na
aj tumhari salgirah hai
dekho hm ko yaad hai na.





१०२२. वो शाम जब भी आयेगी

वो शाम जब भी आयेगी
मुझ को रुला के जायेगी

सूरत-ए-दीदानम तेरी
आंखों में अश्क लायेगी

वो ख्वाहिशेरुख्सत तेरी
इस दिल को कसमसायेगी

जाने अभी क्या प्रायश्चित
मेरी ख़ता करायेगी

माज़ी की कोई याद फिर
आ कर मुझे सतायेगी

तनहाई तुझ पे और भी
सुन ख़लिश ज़ुल्म ढायेगी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ सितम्बर २००७






P १०२३. एक तुम और एक मैं दोनों चले थे साथ साथ—बिना तिथि की गैर-मुरद्दफ़ गज़ल, ई-कविता को १० सितम्बर २००७ को प्रेषित


एक तुम और एक मैं दोनों चले थे साथ साथ
हम न बन पाये, नहीं तुम थाम पाये मेरा हाथ

तुम बनाना चाहते थे सिर्फ़ इक मुझ को गुलाम
गो ये सच है चाहती थी तुम मेरे कहलाओ नाथ

तुम मलाई-दूध पी, देते रहो मूंछों पे ताव
हुक्म ये मेरे लिये कि सिर्फ़ तू उपलों को पाथ

है ये बेहतर वक्त रहते छोड़ दूं इस राह को
क्यों न धो डालूं कलंकित आज जो मेरा है माथ

दूध आंचल में ख़लिश, क्यों आंखों में पानी रहे
आज नारी दुख भरी सी किसलिये तेरी हो गाथ.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० सितम्बर २००७










००००००००००००००

from shilpa bhardwaj <greatshilps@yahoo.com>
date Sep 10, 2007 9:42 AM


Nahi tum tham paye mera haath.... haath pakadne ki baat se Gulzar ki wo pankti yaad aayi.....

pehli baar laga tha ki koi saanjha dard hai,
bahta hai.
haath nahi milte par koi ungli pakde rahta hai

Regards
Shilpa



१०२४. हम को सहरा में छोड़ मगन तुम सदा रहे गुलज़ारों में—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १४ सितम्बर २००७ को प्रेषित

हम को सहरा में छोड़ मगन तुम सदा रहे गुलज़ारों में
तुम फूल पंखुरियों से खेले हम रहे उलझते खारों में

कुर्बान इश्क पर हुए कौन, फ़हरिस्त अगर लिखता कोई
तो नाम हमारा भी होता कुछ गिने चुने शहकारों में

पा लेने को इक प्यार तेरा, हम जान निछावर कर देते
तुम एक बार जो कहते तो हम भी मिलते तैय्यारों में

हम करते हैं इकरार-ए-वफ़ा तो सारी उम्र निभाते हैं
जो कहते हैं सो करते हैं, क्या रखा झूठे नारों में

ये थी इकतरफ़ा आग ख़लिश, अन्ज़ाम और होता भी क्या
हम खामाख्वाह समझ बैठे हम भी हैं तेरे प्यारों में.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१४ सितम्बर २००७





१०२५. हिन्दी के प्रेमी-जनो नहीं तुम एक दिवस पर इतराओ—बिना तिथि की ग़ैर-मुरद्दफ़ गज़ल, ई-कविता को १४ सितम्बर २००७ को प्रेषित


हिन्दी के प्रेमी-जनो नहीं तुम एक दिवस पर इतराओ
ऊंचे सिंहासन पर इस को बस एक दिवस न बिठलाओ

मत तजो साथ हिन्दी का तुम कुछ अन्य ज़ुबानों की खातिर
पर, नाम-ए-हिन्दी, और ज़ुबानों को भी तुम मत ठुकराओ

माता तो माता होती है, हिन्दी मां या भारत मां हो
न हिन्दी से, न उर्दू से, न मलयालम से कतराओ

यह बनी राष्ट्र भाषा तो क्या, अन्य भाषा न हेठी हैं
पढ़ तमिल, तेलुगु, बंगला भी तुम सच्चे मन से दिखलाओ

भाषा समृद्ध न होगी ग़र तुम छुआछूत में पड़े रहे
अंग्रेज़ी के शब्दों को तुम हिन्दी में क्यों न अपनाओ

संस्कृत-उद्गम से निकली है, हिन्दी तो पावन गंगा है
गंगा न कलुषित हुई कभी यह ख़लिश न डर मन में लाओ.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१४ सितम्बर २००७ (हिन्दी दिवस)




© Copyright 2008 Dr M C Gupta (UN: mcgupta44 at Writing.Com). All rights reserved.
Dr M C Gupta has granted Writing.Com, its affiliates and its syndicates non-exclusive rights to display this work.
Printed from https://writing.com/main/books/entry_id/626962-Poems--ghazals--no-1001--1025-in-Hindi-script