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Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225. |
९७६. मुझे रास्तों से शिकायत नहीं है, मिली जो न मन्ज़िल तो क्यों ग़म करूं मैं मुझे रास्तों से शिकायत नहीं है, मिली जो न मन्ज़िल तो क्यों ग़म करूं मैं अगर मेरी किस्मत में दौलत नहीं है, क्यों आंख में आंसुओं को भरूं मैं कमी तो नहीं नाक़िदों की हमेशा मिली हर क़दम पे है तन्की़द मुझ को अपने ही दम पे गुज़ारी है अब तक, नाहक ज़माने से क्योंकर डरूं मैं खुदगर्ज़ दुनिया है सारी यहां पर, भलाई करो तो मिले है बुराई जीता रहा मैं ग़मों में अकेला, क्यों दूसरों की खुशी को मरूं मैं हमदर्दियां सिर्फ़ थीं ऊपरी सब, मेरे ग़म ने खुशियां हैं बांटी सभी को मेरी मुश्किलों में न था कोई साथी, फ़िकर ग़ैर की क्यों ज़हन में धरूं मैं ग़म जो उठाते हैं औरों की खातिर, सुकूं इस जहां में है मिलता उन्हीं को दुख तो मेरे अब कभी कम न होंगे, दुख कुछ ख़लिश दूसरों के हरूं मैं. • नाक़िद = आलोचक • तन्की़द = आलोचना • महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० अगस्त २००७ P९७७. ज़िन्दगी कुछ और मेरी पुर-सितम हो जायेगी ज़िन्दगी कुछ और मेरी पुर-सितम हो जायेगी दर्द बढ़ता जायेगा यूं ही खतम हो जायेगी जो मुझे भूला है उस की एक पल के वास्ते जाऊंगा जिस दिन जहां से आंख नम हो जायेगी मेरी हस्ती कुछ नहीं, मैं न रहा सा ही रहा याद मेरी क्यों रहे, बस इक भरम हो जायेगी आप की मैं ज़िन्दगी में एक कांटा सा रहा न रहूंगा, आप की फ़ितरत नरम हो जायेगी मौत का पैग़ाम जायेगा ख़लिश जब आप तक आप की आंखों में फिर कुछ तो शरम हो जायेगी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ११ अगस्त २००७ ९७८. ज़िन्दगी एक लम्बा सफ़र है ज़िन्दगी एक लम्बा सफ़र है इस का अन्ज़ाम लेकिन सिफ़र है कोई महलों को कितना बनाये उस का घर आखिरी तो कबर है ये दुनिया बदलती नहीं है न इंसां का कोई असर है आदमी किसलिये इस जहां में रोज़ ढूंढे नई इक खबर है है सबक ज़िन्दगी का ख़लिश ये खुश है वो जिस के मन में सबर है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ११ अगस्त २००७ ९७९. आप नहीं होते तो मन कुछ खाली खाली रहता है-- १२ अगस्त २००७ की गज़लनुमा नज़्म, ई-कविता को १२ अगस्त २००७ को प्रेषित आप नहीं होते तो मन कुछ खाली खाली रहता है पिया न आये, पिया न आये, बार बार यह कहता है सपनों में जब आते हो तो मुझे चैन मिल जाता है यूं तो सहने को तनहाई रोज़ रात यह सहता है तुम इस को मानो न मानो सच मैं तुम से कहती हूं मेरे मन में प्रिय प्रेम का झरना निर्झर बहता है सकुचाती सी पिया मिलन का जो भी ख्वाब सजाती हूं धरती पर एकाकीपन की गिर कर वह ही ढहता है ऐसा न हो प्रिय अन्य की बाहों को गुलज़ार करो सोच ख़लिश मेरा मन यह सूनी रातों को दहता है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १२ अगस्त २००७ ९८०. न मैं तुम को बुलाऊं और न ही पास तुम आओ न मैं तुम को बुलाऊं और न ही पास तुम आओ न पहलू में रहो लेकिन तसव्वुर से भी न जाओ ये दिल की दौलतें हैं इन को रखेंगे दिलों में हम है बेहतर कि ज़ुबां पर इश्क की बातों को न लाओ ये कारोबार दुनिया के नहीं बातों से चलते हैं भरोसा हो कोई जब कारनामा कर के दिखलाओ कोई रोनी सी सूरत देख कर न पास आयेगा भला नुकसान क्या होगा अगर गर्दिश में मुसकाओ असूलन गल्त है कि हाथ फैलाएं कभी अपना मगर हक मांगना हो तो ख़लिश हरगिज़ न शरमाओ. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १२ अगस्त २००७ ९८१. तुम ही तुम हो मेरे सब कुछ मैं तो हूं केवल इक छाया तुम ही तुम हो मेरे सब कुछ मैं तो हूं केवल इक छाया तुम्हें पा लिया है तो मैंने जग में मानो सब कुछ पाया एकाकी जीवन था अब तक मेरा कोई नहीं था जग में साथ तुम्हारा पाया तो जैसे मेरा जीवन मुस्काया आज चले हैं जिन राहों पर मन्ज़िल उन से दूर नहीं है अब तक तो मुझ को झूठा ही पथ झूठे जग ने दिखलाया अब तक नहीं मिले क्यों मुझ को किस ने थे पहरे बिठलाये दर्द दिये क्यों इतने मुझ को क्यों मन को इतना तड़पाया जुदा नहीं होंगे अब हम तुम तनहाई अब नहीं खलेगी जनम जनम को ख़लिश तुम्हारा छाया है इस दिल पे साया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १२ अगस्त २००७ P९८२. अगर मोहब्बत नहीं है उन को, पैगा़म-ए-उल्फ़त क्यों आ रहे हैं-- १३ अगस्त २००७ की गज़ल, ई-कविता को १३ अगस्त २००७ को प्रेषित अगर मोहब्बत नहीं है उन को, पैगा़म-ए-उल्फ़त क्यों आ रहे हैं चुरा के वो हम से आंख अपनी, खुद हाल-ए-दिल क्यों बता रहे हैं बहुत है मुश्किल हसीं दिलों में छिपा है क्या ये महसूस करना हज़ार अरमां उभर रहे हैं दबाये उन को हम जा रहे हैं खबर है उन को हम चाहते हैं मगर हैं बैठे नादान बन के हमारे चेहरे की कशमकश पे लगता है वो मुस्करा रहे हैं लुभा रहे हैं अन्दाज़ उन के, इशारा क्या है न कोई जाने कभी ज़ुल्फ़ खुद ही गिरा रहे हैं, कभी झटक के हटा रहे हैं झिझक है उन को कबूल करते, हमें भी डर है इज़हार करते गज़ल के ज़रिये ख़लिश उन्हें हम हाल दिल का सुना रहे हैं. तर्ज़—बड़ी वफ़ा से निभाई तुमने, हमारी थोड़ी सी बेवफ़ाई महेश चन्द्र गुप्त खलिश १२ अगस्त २००७ ००००००००००० from Kavi Kulwant <kavi_kulwant@yahoo.com> date Aug 13, 2007 11:25 AM अति सुंदर खलिश जी..कवि कुलवंत ०००००००००००० from sunita chotia <shanoo03@yahoo.com> date Aug 13, 2007 11:30 AM अगर मोहब्बत नहीं है उन को, पैगा़म-ए-उल्फ़त क्यों आ रहे हैं चुरा के वो हम से आंख अपनी, खुद हाल-ए-दिल क्यों बता रहे हैं बहुत सुन्दर मज़ा आ गया पढ़कर... सादर सुनीता(शानू) P९८३. आप देंगे सहारा अगर तो सफ़र खुशनुमा याद बन के गुज़र जायेगा—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १३ अगस्त २००७ को प्रेषित आप देंगे सहारा अगर तो सफ़र खुशनुमा याद बन के गुज़र जायेगा मौत की भी रहेगी न हम को ख़बर, ज़िन्दगी का भी आलम संवर जायेगा कल तलक तो अकेले भटकते थे हम, आप हम से कहीं दूर पर थे सनम आज बाहों में बाहें लिये हम चले, रंग मौसम का दूना निखर जायेगा आप के आंचल-ओ-ज़ुल्फ़ लहरा रहे, मस्तियां उन से देखो सभी पा रहे रोकिये आप आंचल को अपने ज़रा, दिल ज़माने का हो बेसबर जायेगा रास्ते तो हज़ारों हैं लेकिन हमें अब न मन्ज़िल न राहों की परवाह है अब पड़ेंगे कदम ये वहीं पर जहां मेरा हमदम मेरा हमसफ़र जायेगा आप की पाई हम ने मोहब्बत सनम, जन्नतों से हमें आज क्या काम है जिस चमन में ख़लिश ले चलोगे हमें अब वहीं सिर्फ़ मन का भंवर जायेगा. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ अगस्त २००७ 00000000000000 from ramadwivedi <ramadwivedi@yahoo.co.in> date Aug 13, 2007 9:43 PM - खलिश जी , आप सच में बहुत खूब लिखते हैं.....हर एक पंक्ति पर एक गज़ल लिख देते हैं।निम्न पंक्तियां बहुत भा गईं...बहुत बहुत बधाई...... रास्ते तो हज़ारों हैं लेकिन हमें अब न मन्ज़िल न राहों की परवाह है > > अब पड़ेंगे कदम ये वहीं पर जहां मेरा हमदम मेरा हमसफ़र जायेगा > > > आप की पाई हम ने मोहब्बत सनम, जन्नतों से हमें आज क्या काम है > > जिस चमन में ख़लिश ले चलोगे हमें अब वहीं सिर्फ़ मन का भंवर जायेगा. डा. रमा द्विवेदी P९८४. दिलकश तुम्हारी है उल्फ़त कि इस में, थोड़ी सी बू-ए-वफ़ा भी तो होती-- १४ अगस्त २००७ की गज़ल, ई-कविता को १४ अगस्त २००७ को प्रेषित दिलकश तुम्हारी है उल्फ़त कि इस में, थोड़ी सी बू-ए-वफ़ा भी तो होती ये जाम दिल पे असर और करता, पाकीज़गी की शफ़ा भी तो होती इलज़ाम हम पे लगा तो रहे हो कि हम को भरोसा नहीं है तुम्हारा यकीं आंख मूंदे भी हम को तो होता, नीयत तुम्हारी सफ़ा भी तो होती होता जो ऐसा तो क्या खूब होता, महबूब मेरे, ज़हन में तुम्हारे लैला-ओ-मजनूं की तारीफ़ के संग, नफ़रत के काबिल ज़फ़ा भी तो होती जवानी के रस्ते बड़े पुर-खतर हैं, ज़माने की परवाह जो होती तुम्हें कुछ गुस्ताख कोई निगाह तुम पे उठती, नज़र कुछ तुम्हारी ख़फ़ा भी तो होती हसीं हो, जवां हो, है दुनिया तुम्हारी, ख़लिश फिर भी सोने में होता सुहागा, तुम्हारी निगाहों में शर्म-ओ-हया की झलक काश बाज़ दफ़ा भी तो होती. [तर्ज़—बिखरा के ज़ुल्फ़ें चमन में न जाना, शर्मा न जायें फूलों के साये] महेश चन्द्र गुप्त खलिश १४ अगस्त २००७ ९८५. हम बहुत दूर तक आ चुके हैं सनम, अब न वापस ये राहें मुड़ेंगी कभी-- १९ अगस्त २००७ की गज़ल, ई-कविता को १९ अगस्त २००७ को प्रेषित हम बहुत दूर तक आ चुके हैं सनम, अब न वापस ये राहें मुड़ेंगी कभी आप तो हैं ख़फ़ा पर हमें है यकीं, धड़कनें फिर दिलों की जुड़ेंगी कभी ज़िन्दगी में बहुत इम्तिहां आयेंगे, इस तरह हार जाना मुनासिब नहीं वक्त को भी जरा वक्त तो चाहिये, गांठ हैं जो दिलों में, खुलेंगी कभी दे के कुर्बानियां ये इमारत चुनी, इस में है आब-ए-दर्द-ओ-वफ़ा ऐ सनम इस महल-ए-वफ़ा की दिवारें नहीं ठोकरों से जहां की गिरेंगी कभी जो भी नीलामघर इस ज़माने के हैं, कोशिशें उन की होंगी सभी बेअसर बोलियां लाख इन की लगा ले कोई, दौलतें न दिलों की बिकेंगी कभी पाक है ये मोहब्बत तो तासीर-ए-ग़म जायेगी इक दिल-ए-शाद में भी बदल ये है मुझ को यकीं कि ख़लिश एक दिन चाहतें दो दिलों की मिलेंगी कभी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १४ अगस्त २००७ ९८६. होता कोई तो मेरे दिल का मालिक, कदम-बोसियां हम किसी की तो करते-- १५ अगस्त २००७ की गज़ल, ई-कविता को १५ अगस्त २००७ को प्रेषित होता कोई तो मेरे दिल का मालिक, कदम-बोसियां हम किसी की तो करते जीने की कोई वज़ह साफ़ होती, हम भी किसी के इशारों पे चलते दुनिया में तनहा बहुत जी लिये हम, आता है हम को यही ख्याल हर दम हम भी किसी दिल की धड़कन बढ़ाते, मस्ती किसी की निगाहों में भरते किस्मत सभी की नहीं एक सी है, हमदम सभी का नहीं है जहां में हमारा भी कोई तो महबूब होता, हम भी मोहब्बत में कुछ कर गुज़रते न थी ऐसी किस्मत नज़र ही नज़र में, बातें दिलों की किसी संग होतीं जूड़े में गुंचे किसी के सजाते, आंचल किसी का तो हम भी पकड़ते सठिया गये हैं कि बूढ़े हुए हैं, अंकल ही कहती हैं सब नाज़नीं अब अधूरी खलिश बस रही ये तमन्ना, किसी के लिये हम भी सजते संवरते. [तर्ज़—बिखरा के ज़ुल्फ़ें चमन में न जाना, शर्मा न जायें फूलों के साये] महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ अगस्त २००७ P९८७. झुकाये वो नज़रें चले जा रहे हैं, नहीं आज हम को वो पहचानते हैं झुकाये वो नज़रें चले जा रहे हैं, नहीं आज हम को वो पहचानते हैं कभी दिल में अपने बसाया था हम को, महफ़िल में ये राज़ सब जानते हैं परवाह हमारी उन्हें कब रही है, कभी वो हमारे हुए न असल में इधर सांप लोटें हैं दिल पर हमारे, बेफ़िक्र से भांग वो छानते हैं अन्दर से कुछ हैं, बाहर से कुछ हैं, हकीकत है क्या कोई पूछे तो हम से पत्थर भी सुन के पिघल जाये ऐसा बोली में अपनी शहद सानते हैं चमन हो नया, एक नित राह नयी हो, नया हमसफ़र हो ये है उन की फ़ितरत वफ़ाओं का बोझा न उन के लिये है, रिश्तों को जो ज़हमतें मानते हैं दिल तो लगाने चले थे वो लेकिन, दिल को हमारे ख़लिश तोड़ डाला उन की तमन्नाएं पूरी न होंगी, हर दिन नई एक जिद ठानते हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ अगस्त २००७ [तर्ज़—बिखरा के ज़ुल्फ़ें चमन में न जाना, शर्मा न जायें फूलों के साये] 00000000000 from "R.P Yadav" <rp_yadav2002@yahoo.com> to "Dr.M.C. Gupta" <mcgupta44@gmail.com> date Sep 11, 2007 6:40 PM सम्मानीय Dr. MC Gupta Sahab आप के बारे मै समझ नही पाता हु क्या लिखु / क्योकि जो भी लिखुगा वह आप के लेखन छ्हमता के आगे पूर्ण रूप से ढ्क जाता है ? आप की इअतनी कविताए आती है जिन्हे समेटना मुश्किल हो जाता है ? कई प्रश्न उथते है जैसे क्या ये सारी रचनाए आप की खुद की है यदि है तो आप का हर झण कविता�" मे ही गुजरता होगा । आप MD है क्या अपनअ professional job से जुणे हुए है ? एक doctorखोने के साथ्ह साथ इतनी बेहतरीन अभीव्यक्ति के मालिक होना एक असामान्य व्यक्तित्व है "झुकाये वो नज़रें चले जा रहे हैं, नहीं आज हम को वो पहचानते हैं" ला जबाब है ( मै आप के बारे मे �"र detail से जाजना चहता हु वैसे मैने आप की Id google talk par add कर लिया है उम्मेद्द करता हु की आप से online भी मुलाकात हो सकती है ) RP Yadav Section Engineer /Tele N.E.Railay, Lucknow rpyadav2006@gmail.com 0000000000 प्रिय यादव जी, धन्यवाद. आप ने मान दिया, आभारी हूं. यह सच है कि सारी कविताएं / गज़लें मेरी अपनी लिखी हैं. मुझे खुशी है कि आप ने संभावना रखी कि यह अन्य कवियों की रचना हों.इस से तो रचनाओं का आदर ही होता है कि उन का स्तर अच्छा है. चोरे तो हीरे की ही की जाती है, कोयले की नहें. यह भी सच है कि मैं बहुत समय कविता में बिताता हूं. एक ज़ुनून सा है, जैसे किसी बच्चे को नया खिलौना पा कर उसे छोड़ने का मन ही नहीं करता. अभी ३-४ साल से ही कविता शुरू की है. पहले मेडिकल प्रोफ़ेसर था, समय नहीं मिलता था. अब डाक्टरी नहीं करता हूं. छह साल से वकील बन गया हूं. वकालत की प्रेक्टिस करता हूं. आप चैट करना चाहें तो मुझे खुशी होगी. रही मेरे बारे में अधिक जानने की बात, सो संक्षिप्त CV दे रहा हूं. BRIEF CV OF PROF. MC GUPTA Dr. MC Gupta was born in Delhi in a family of educationists. His father was an MA in English and taught English in the olden days, when the standards of English were pretty high. His eldest brother was Head of Department of Hindi in University of Delhi. In this background, Dr. Gupta imbibed a natural love for Hindi, tempered with high proficiency in English, from the very beginning of his career. Dr. Gupta studied medicine, earning his MBBS and MD [Medicine] degrees from the premier All India Institute of Medical Sciences, New Delhi, where he also taught for 18 years. He left it as Additional Professor in 1991, to join, as Professor, the National Institute of Health and family Welfare, New Delhi, where, later, he also became Dean. Dr. Gupta has also an MPH degree from Guatemala, Central America, and has been a post-doctoral fellow at the United Nations University. After retirement, Dr. Gupta studied law and obtained LL.B. and LL.M. degrees and specialized in medico-legal area. He is a member of the Indian Law Institute and the Supreme Court Bar Association. The main areas of his law practice are Consumer Courts at all three levels [District; State; National]; High Court; and, Medical Council inquiries in medico-legal cases. Dr. Gupta has had deep and abiding interest in Hindi for last 40 years and has made significant contributions towards development of health and medical science literature in Hindi. In view of his expertise and experience in this area, the Indian Council of Medical Research, New Delhi, has appointed him as Chairman of an Expert Committee which overviews the Hindi Publications Unit of ICMR. He has also been awarded the National Citizen Award for his various contributions and publications in medical science, including those in Hindi. He has been actively associated with the Commission for Scientific and Technical Terminology and Central Hindi Directorate, Ministry of Education, Govt. of India. Dr. Gupta has a large number of scientific research publications and books to his credit. The latter include: a Textbook of Preventive and Social medicine (Third edition); Health and Law, a reference book; 8 books in Hindi, as per list given below. Lately, Dr. Gupta has turned his attention to a unique activity, of which there are few parallels. He has been writing for last one year Hindi poetry in the ghazal style and also, simultaneously, translating his poems into English verse, many in the ghazal format. While writing his ghazals, Dr. Gupta has been freely drawing on Urdu words, since he believes that borrowing from other sources enriches rather than weakens a language. Dr. Gupta proposes to publish his bilingual ghazals soon. Contact Information: Dr. MC Gupta G 17 / 9, Malviya Nagar New Delhi 110017 Ph: 011-65654981; Mobile 9350237507 LIST OF DR. M.C. GUPTA’S HINDI BOOKS Saral Griha Vigyan—Approved as textbook for higher secondary students by Rajsthan Board, 1964. Youngman and Co., Delhi Hamara Sharir—Awarded First Prize by Ministry of Education, Govt. of India, 1965. Youngman and Co., Delhi Hamara Bhojan---1965, Youngman and Co., Delhi Hamara Swasthya—1965, Youngman and Co., Delhi Shalya Vigyan ki Pathya Pustak-- Hindi Translation of Sangham Lal and Menon’s Text Book of Surgery. Delhi : Commission of Scientific and Technical Terminology, Ministry of Education,1968. Madhu Meh - A guide for the diabetes patient, published by Deptt. Of Medicine, AIIMS, 1969 Sharir Vigyan evam Sharir Kriya Vigyan--Hindi translation of Evelyn Pearce’s Anatomy & Physiology for Nurses (Hindi). Delhi : Oxford University Press, 1980 (17th Ed.). Maan evam Shishu ka Swasthya-- Delhi, Frank Brothers & Co, 1995. Awarded first prize by the Ministry of Health, Govt. of India. In addition to the above, Dr. Gupta has contributed 10 research articles in Hindi to various Hindi medical journals and more than 150 articles on popular health topics in various Hindi dailies, weeklies and monthlies. Dr. Gupta was the lead person from AIIMS for helping the All India Radio in planning their popular series Swasthya Charcha. He also gave large number of talks in this series. मैं सम्भवत: २५ अक्तूबर को रात लखनऊ पहुंचूंगा. अगले दिन सुबह कोर्ट में एक केस की बहस करनी है. दोपहर बाद दिल्ली के लिये वापस चलूंगा. २५ को शायद आप से भेंट हो सके. महेश चन्द्र गुप्त ९८८. आज़ादी के दोहे—स्वतंत्रता दिवस पर ई-कविता को प्रेषित साठ बरस पूरे हुए, आज़ादी के आज गान्धी जी जो दे गये, किया न पूरा काज. वन्दे मातृम भूल के, हे मां तुझे सलाम आज नौजवां गा रहे, कविता बनी कलाम. जगह जगह पर हो रहा, आज़ादी का जश्न नेता भाषण दे रहे, सुनें तालियां मग्न. नेता बोलें मंच पर, खुद को करें प्रणाम आज़ादी जो दे गये, उन का कहीं न नाम. आज़ादी है कीमती, इस को रखो सम्हाल कहीं पिचहत्तर की तरह, न हो जाये हाल. आज तिरंगा खोलते, हाय विदेशी हाथ छूटेगा क्या देश का इन गोरों से साथ. सोना बनी हैं सोनिया, पाटिल प्रेज़िडेन्ट चला रहे हैं नाम के पी. एम. गवर्मेंट. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ अगस्त २००७ ००००००००००००००००० from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com> date Aug 15, 2007 6:10 PM महेश जी, बहुत ही अच्छा लगा !!!! -रिपुदमन ०००००००००००००००००० from Anoop Bhargava <anoop_bhargava@yahoo.com> date Aug 15, 2007 7:52 PM खलिश साहब: दोहे अच्छे लगे , विशेष कर : >नेता बोलें मंच पर, खुद को करें प्रणाम >आज़ादी जो दे गये, उन का कहीं न नाम. स्वतंत्रता दिवस पर आप को बधाई । सादर अनूप ०००००००००००००००० from Ghanshyam Gupta <gcgupta56@yahoo.com> date Aug 15, 2007 6:41 PM महेश जी, सभी दोहे सटीक हैं। ये दो विशेष भाये। नेता बोलें मंच पर, खुद को करें प्रणाम आज़ादी जो दे गये, उन का कहीं न नाम. आज़ादी है कीमती, इस को रखो सम्हाल कहीं पिचहत्तर की तरह, न हो जाये हाल. मेरे विचार से १९७५ में भारतीय लोकतांत्रिक परम्परा पर जो दुर्भाग्यपूर्ण धब्बा लगा था, उसे कभी ठीक से धोया नहीं गया। फरवरी-मार्च १९७७ में नई पत्रकारिता और नये शासन से देशवासियों को जो आशाएं थीं, शीघ्र ही धूमिल हो गईं। स्वतंत्रता के गीत गाते समय यह उचित ही है कि हम अपनी अनुपलब्धियों की ओर भी सतर्क हों। आज तिरंगा खोलते, हाय विदेशी हाथ छूटेगा क्या देश का इन गोरों से साथ इस दोहे में शायद संकेत सोनिया गांधी की ओर है। मैं इस विषय में अधिक नहीं जानता लेकिन कुछ ऐसा जान पड़ता है कि उनके विदेश में पैदा होने और गोरे रंग का होने मात्र को लेकर उनसे भारत की राजनीति और तिरंगे से दूर रहने को कहा जा रहा है। क्या वे भारत की नागरिक नहीं हैं। न भी हों तो उनके हाथ इतने अशगुन वाले क्यों समझे जायें। - घनश्याम ००००००००००००००० On 8/28/07, Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com> wrote: वन्दे मातृम भूल के, हे मां तुझे सलाम आज नौजवां गा रहे, कविता बनी कलाम. bahut sunder Devi 0000000000000 P९८९. कैसे हाल बताऊं अपने एकाकी से दुखते मन का-- १६ अगस्त २००७ की गज़ल, ई-कविता को १६ अगस्त २००७ को प्रेषित कैसे हाल बताऊं अपने एकाकी से दुखते मन का पी बिन रात बिताऊं कैसे तड़पाये मौसम सावन का नीरवता जब छा जाती है रातों के घन अन्धकार में अनजाने ही स्वर आता है कहीं सिसकते हुए रुदन का कभी कभी तो ऐसा भी भ्रम अनजाने ही हो जाता है पायल छनकी कोई हौले, धीरे कोई कंगना खनका बड़े जतन से धीर धरूं पर दर्द छिपाये छिप न पाये चले गये वो आस जगा के पता नहीं कोई साजन का जीना मेरा रहा अधूरा, जीवन पी के काम न आया खलिश जिऊं मैं किस की खातिर, क्या करना है अब इस तन का. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ अगस्त २००७ 000000000 from pachauriripu <pachauriripu@yahoo.com date Aug 16, 2007 5:56 PM महेश जी, आपकी हिन्दीं वाली ग़ज़लें मुझे खास तौर से अच्छी लगती है। -रिपुदमन 0000000000000 ९९०. शहीदों की चिताओं पर भला कैसे लगें मेले—स्वतंत्रता दिवस पर ई-कविता को प्रेषित, १५-८-०७ शहीदों की चिताओं पर भला कैसे लगें मेले शहादत के वो दीवाने मरे और जीये अकेले जो बैठे ही नहीं कुर्सी पे उन की शान क्या होती ये दीगर बात है कि वो रसन-ओ-दार से खेले वो पैदा ही हुए थे मां की सूनी गोद करने को मनाते कौन उन की बरसियां, न थे कोई चेले नहीं अब जश्न-ए-आज़ादी पे है तस्वीर गान्धी की ये ज़हमत नये ज़माने का कोई अखबार क्यों झेले गनीमत है खलिश हैं चन्द बुत बाकी चौराहों पर इबारत पढ़ के शायद कोई बच्चा नाम ही ले ले. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ अगस्त २००७ ९९१. लिखा है चेहरे पे हाल दिल का, क्यों प्यार अपना छिपा रहे हो-- १७ अगस्त २००७ की गज़ल, ई-कविता को १७ अगस्त २००७ को प्रेषित लिखा है चेहरे पे हाल दिल का, क्यों प्यार अपना छिपा रहे हो चुरा रहे हो तुम ऐसे नज़रें कि मानो नज़रें मिला रहे हो शय-ए-मोहब्बत बनी है ऐसी, नहीं किसी का भी जोर चलता भुला पाओगे तुम हमें क्यों ये झूठा एहसास खुद को दिला रहे हो आयेगा वक्त-ए-तनहाई जब भी, उठेंगी दिल में हमारी यादें फिर वो ही सूरत नज़र में होगी जो आज दिल से भुला रहे हो माना हमारी तासीर-ए-उल्फ़त, तुम को नहीं रास आज आ रही है किसी दिन हमें आप रखोगे दिल में, गो दूर हम से अब जा रहे हो मांगी मोहब्बत है जो ख़लिश तो, गुनाह न कोई किया है हम ने छोड़ो बहाने अब मान जाओ, क्यों लाख नखरे दिखा रहे हो. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १६ अगस्त २००७ 00000000000000 from "R.P Yadav" <rp_yadav2002@yahoo.com> hide details 5:23 pm (10 minutes ago) to "Dr.M.C. Gupta" <mcgupta44@gmail.com> date Aug 17, 2007 5:23 PM subject Re: ९९१. लिखा है चेहरे पे हाल दिल का, कॠयों पॠयार अपना छिपा रहे हो- १७ अगसॠत २००७ की गज़ल signed-by yahoogroups.com mailed-by yahoo.com Priy Dr Saheb Namskaar aap kee yah kavita padee to is prashn ka uttar mil gayaa ki aakhir kyon aap kaa hee naam ekavita Yahoo group mein sabase jyaadaa dikhaaee deta hai. aap ke kalamon me vo jaadoo hai jo mere jaise log aap ke shbdon ke fulvaaree mein khiche chale aate hai. चुरा रहे हो तुम ऐसे नज़रें कि मानो नज़रें मिला रहे हो naajaro ke bare mein mai bahut dinon se kuchh kahanaa chatata thaa vo baat aap ne likh dee. sampoorn kavita bahut achchha laga. Dhanyabaad. Rp Yadav Lucknow ( Agar mai hindi script mein jabab dena chahu to mujhe kyaa karanaa padegaa? kripayaa bataye) 000000000 ९९२. जो दिल तो लगाते हैं, अन्ज़ाम से डरते हैं जो दिल तो लगाते हैं, अन्ज़ाम से डरते हैं दुनिया में मोहब्बत को बदनाम वो करते हैं जो प्यार से कर दें वो बस एक इशारा तो हम ऐसे दिवाने हैं जो शान से मरते हैं पल में वो तोला हैं और पल में माशा हैं हम कदम मोहब्बत में दिल थाम के धरते हैं मिलता है सुकूं हम को जब नाम पे उन के हम तनहाई में रातों की आहों को भरते हैं समझा न ख़लिश कोई ये राज़ मोहब्बत के होठों पे तबस्सुम है और अश्क भी झरते हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १६ अगस्त २००७ ९९३. इंसान ही रहने दो, देवी न बनाओ तुम-- १८ अगस्त २००७ की गज़ल, ई-कविता को १८ अगस्त २००७ को प्रेषित इंसान ही रहने दो, देवी न बनाओ तुम हम को कुर्बानी की बेदी न चढ़ाओ तुम कदमों पे हमें अपने होने दो खड़ा मर्दो नाज़ुक कह कर के मत पर्दे में छिपाओ तुम है मर्द गवाह पूरा, औरत है मगर आधी कह कर न ज़माने की नज़रों में गिराओ तुम पोशाक हमारी हो पर हुक्म तुम्हारा हो इंसाफ़ है ये कैसा, कुछ हम को बताओ तुम मज़हब का तकाज़ा है, न ज़ुल्म करो हम पे मत सुन के सवालों को नज़रों को चुराओ तुम. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १६ अगस्त २००७ ९९४. क्यों कह रहे हो अब नहीं जीने की तुम को चाह—२३ -८-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३१-८-०७ को प्रेषित क्यों कह रहे हो अब नहीं जीने की तुम को चाह क्यों सोचते हो अब नहीं खुशियों की तुम को राह तुम से भी तंगहस्त हैं जो फ़ाकामस्त हैं क्यों सर्द दिल से भर रहे हो हर कदम पे आह सौदाई से फिरते हो मुसीबत के वक्त में कहते हो जवांमर्द क्यों अपने को खामख्वाह आलम-ए-दुनिया में सभी को दर्द मिलते हैं गम न रहेंगे जब खुदा की पाओगे तुम छांह ख्वाहिश मिटा के दिल से ख़लिश देखिये जरा पूजा करेगा सब ज़माना कह उठेगा, वाह. महेश चन्द्र गुप्त खलिश २८ अगस्त २००७ ९९५. दिल पे यूं असर हुआ कि मैं कहीं पे खो गया—२२ -८-०७ की गज़ल, ई-कविता को ३१-८-०७ को प्रेषित दिल पे यूं असर हुआ कि मैं कहीं पे खो गया दोस्त पूछते हैं क्या शायरी को हो गया पेश कर रहा था जो रोज़ इक नयी गज़ल क्यों ज़नून-ए-शायरी उस का आज सो गया इक झुकी निगाह का दिल पे ये असर हुआ मेरे दिल में प्यार के बीज कोई बो गया पर लिखी जुदाई थी रास्तों में प्यार के मेरा दोस्त क्या खबर, कौन राह को गया अपना हालेदिल बयां किस तरह करूं खलिश मैं भी अपने हाल पे एक बार रो गया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३१ अगस्त २००७ ९९६. मुंह फेर के हलके से मुस्करा के चल दिये—२४ -८-०७ की गज़ल, ई-कविता को १-९-०७ को प्रेषित मुंह फेर के हलके से मुस्करा के चल दिये ज़ुल्फ़ें झटक, धता हमें बता के चल दिये इक आंख में नफ़रत मगर दूजी में मोहब्बत नाज़-ओ-अदा के साथ वो इठला के चल दिये मन में था उन के और, थे बाहर से और कुछ झूठे थे सब्ज़ बाग जो दिखा के चल दिये हम को सुहानी आस ही देते रहे सदा बरबादियों का नगमा वो सुना के चल दिये आई है उन की दाद, ख़लिश उन का शुक्रिया जाने हमें उठा के या गिरा के चल दिये. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००७ ९९७. दिल में कुछ और है लफ़ज़ों से कुछ और इशारा करते हैं—२५ -८-०७ की गज़ल, ई-कविता को १-९-०७ को प्रेषित दिल में कुछ और है लफ़ज़ों से कुछ और इशारा करते हैं कुछ ऐसे सुखनबर भी हैं जो बस दाद से मारा करते हैं तालीम-ओ-इल्म के मतवालों को नाज़ है बस अपने पर ही कोई आंख मिलाये इन से तो दिल में न गवारा करते हैं ये इज्जत वाले लोग हैं, तुम इन का न भरोसा कर लेना खुद ही ये पकड़ते हैं दामन, खुद ही ये किनारा करते हैं तालिब-ए-हुनर कुछ ऐसे हैं, दर-कदम बढ़ाते हैं हिम्मत कुछ और हैं जो ना-गलती को कह गल्त उभारा करते हैं हम ही हैं ख़लिश सह के भी ज़फ़ा, देते हैं वफ़ा ही बदले में होते हैं बहुत कम जो गम सह, उल्फ़त में गुज़ारा करते हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००७ तर्ज़: शरमा के ये क्यूं सब पर्दानशीं आंचल को संवारा करते हैं ९९८. गज़ल-कुन्डली—२६ -८-०७ की कुन्डली, ई-कविता को १-९-०७ को प्रेषित छक्का ऐसा मारिये, पूरे सौ हो जाय हुई गज़ल चौरानवें, इक मित्र कहे इठलाय मित्र कहे इठलाय, क्रिकेट बन जाय कविता बिना शतक के नहीं खिलाड़ी कोई जमता खलिश बहे कविता, न इस को मारो धक्का किरकिट में ही रहने दो चौका और छक्का. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १ सितम्बर २००७ उक्त कुंडली का गैर-कुन्डलीनुमा रूप— हुई गज़ल चौरानवें, मित्र कहें इठलाय छक्का ऐसा मारिये, पूरे सौ हो जाय पूरे सौ हो जाय, क्रिकेट बन जाय कविता बिना शतक के नहीं खिलाड़ी कोई जमता कहै ख़लिश जो शायर को कह रहे खिलाड़ी उन से भी बढ़ कर के होगा कौन अनाड़ी. ०००००००००००००००००००००० ९९९. खुदगर्ज़ी है दस्तूर यहां, मतलब का सिर्फ़ ज़माना है—२७ -८-०७ की गज़ल, ई-कविता को १-९-०७ को प्रेषित खुदगर्ज़ी है दस्तूर यहां, मतलब का सिर्फ़ ज़माना है दो प्यार की बातें कर लेना नज़रों का एक बहाना है परवाह नहीं गर दुनिया में कोई बात नहीं करता हम से सहरा-ओ-बियांबां में एक दिन तो दफ़्न भला हो जाना है जीते हैं सभी अपनी खातिर, मरता है किसी पर कौन यहां जज़्बात में कसमों का नाहक ये खाना और खिलाना है था साथ यहीं तक दोनों का, चुपचाप अलग हम हो जायें नगमा-ए-वफ़ा गा कर अब क्यों इस दिल को और जलाना है दुनिया ने ख़लिश ठुकराया है, हम दुनिया को ठुकराते हैं लो बना लिया गम की दुनिया में हम ने आज ठिकाना है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ सितम्बर २००७ १०००. कहने को हमारे आशिक हैं, उन सा न सितमगर है कोई—२८ -८-०७ की गज़ल, ई-कविता को १-९-०७ को प्रेषित कहने को हमारे आशिक हैं, उन सा न सितमगर है कोई एहसास है उन को दिल में ये, उन सा न सुखनबर है कोई बरछे तलवार निकालें वो, मरने का नहीं हम को डर है मैदां में डटे हैं हम भी, गो न फ़ौज़ न लश्कर है कोई हिम्मत से लड़ेंगे जान बचाने का हम को भी तो हक है क्यों खुद उस के मुंह में जायें गर सामने अजगर है कोई हाफ़िज़ है खुदा तो डरना क्या, दो हाथ निहत्थे कर लेंगे, चाहे बरबाद हमें करने को आया डट कर है कोई मालिक जो शहन्शाहों का है, सिर झुकेगा उस की खिदमत में परवाह नहीं कि शहन्शाह दर पे आया गर है कोई. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १ सितम्बर २००७ |