No ratings.
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225. |
७५१. मेरे दिल का ग़मों से वास्ता ज़्यादा ही गहरा है-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को ३-३-०७ को प्रेषित--RAMAS मेरे दिल का ग़मों से वास्ता ज़्यादा ही गहरा है नहीं फ़रियाद सुनता है खु़दा भी आज बहरा है चमन उम्मीद का लहरा रहा था एक दिन दिल में बियाबां कर दिया ग़म ने बना यह आज सहरा है मिले हैं ख़ाक में वो ख्वा़ब जो रंगीं कभी देखे बहुत मनहूस साया आज मेरे दिल पे ठहरा है नहीं मुमकिन खुशी भूले से मेरे दिल में आ जाये लगा रखा दरे-दिल पे ग़मों ने सख्त पहरा है ख़लिश इस पर ख़ुशी का रंग अब चढ़ना नहीं मुमकिन मेरे दिल पर कोई परचम बड़ा मनहूस फहरा है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३ मार्च २००७ ००००००००००००००० from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com> date Mar 3, 2007 10:57 PM Jisane dil banaya usi ko jakar poochh lenge aik din Khalish Bhai.Shaayad>>>> uske bhi dil ho.kaha to aisa hi jata hai, aur ki usko bhi ab hamare hi dil chahiye . na jane kaya karega is toote dil ka, chakana choor to pahle hi hai.Shayad joD de fir se ya fir se(toDne le kiye)/'Habeeb' ००००००००००००००००० ७५२. मेरे बरबाद जीवन की फ़कत इतनी कहानी है--RAMAS मेरे बरबाद जीवन की फ़कत इतनी कहानी है किसी हसरत बिना मेरी कटी सारी जवानी है भरी महफ़िल है दुनिया की, गले मिलते हैं सब हंस के मगर वो ही नहीं है दास्तां जिसको सुनानी है वही तनहाई का आलम वही यादों की परछाईं वही रो-रो के सो जाना, बनी आदत पुरानी है सभी की हैं ज़ुदा मंज़िल, सभी की हैं जुदा राहें यहां दुनिया में अपनी राह सबको खु़द बनानी है ख़लिश गुल ऐसे लाकर दो कि जो खारों से पिनहां हों जो अरमां मर गये अर्थी मुझे उनकी सजानी है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३ मार्च २००७ ००००००००००००० Tuesday, 16 September, 2008 1:52 PM From: "anand krishna" anandkrishan@yahoo.com shaddhey khalish jee, saadar pranaam. aapkee anek ghazlen maine sahej kar rakhee hui hain. aapkee srijanaatmak oorjaa pranamy hai. ye ghazal aapne ek vishesh manahsthiti ke liye kahee hain, jaisaa aapne pichhlee kisee post men likhaa thaa. agyey ne likhaa hai- vednaa men ek shakti hai jo drishti detee hai. jo yaatnaa men hai vah drishtaa ho saktaa hai." vednaa kee vidhwansaatmak shakti jahaan vyakti ko todtee hai, uskee jijeevishaa par kuthaaraaghaat kartee hai aur uske jeevan men nishkriytaa bhar detee hai vaheen vednaa kaa rachnaatmak paksh jahaan sangharsh kee shakti detaa hai waheen jeevan ko jeene ke naye arth detaa hai. ye vyakti kaa vaiyaktik saamarthy hai ki wo vednaa ke rachnaatmak paksh ko viksit kar paataa hai yaa vidhwansaatmak roop ko. ek vichitr baat mujhe praayah chakit kartee hai jab main kisee se ye suntaa hun ki "amuk" ne apnee rachnaaon men apnee bhogee huyee peedaa vyakt kee hai. ek (agyaat hee sahee-) rachnaakaar hone ke saath main is tathy ke prati poori tarah sajag hun ki jis peedaa yaa vednaa kaa varnan koi apnee rachnaa men kartaa hai koi zaruri nahin ki wo peedaa yaa yaatnaa usne swayam bhogee bhi ho. binaa bhogee peedaa ko abhivyakt karne ke liye samvedan-sheeltaa chaahiye hotee hai, jo har rachnaakaar men, balki kahnaa chaahiye ki har jeevant vyakti men hoti hai. aapkee pichhle dinon se aa rahee ghazlon kaa kendr ek mook peedaa hai, jiskee saandrtaa anubhav kee jaa saktee hai. ye rachnaayen paathak ko aisee bhaav-dhaaraa men bahaa kar le jaatee hain jo use uske antarman ke nitaant nijee aur ekaakee dweep par le jaa kar chhod detee hai. wahaan uskaa apnee nijtaa se saakshaatkaar hotaa hai. atah ye kahaa jaa saktaa hai ki ye rachnaayen swayam ke nisprih darshan kaa ek samarth awsar sulabh karaatee hain. aapkee is ghazal men mujhe ye sher vishesh roop se achchha lagaa- सभी की हैं ज़ुदा मंज़िल, सभी की हैं ज़ुदा राहें यहां दुनिया में अपनी राह सबको खुद बनानी है kitaab kaa intezaar hai. saadar- anandkrishan, jabalpur mobile : 09425800818 ०००००००००००००००० ७५३. कोई दिन आयेगा हम भी खुदा के पास जायेंगे-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को ३-३-०७ को प्रेषित कोई दिन आयेगा हम भी खुदा के पास जायेंगे अगर देगा इज़ाज़त वो ये अफ़साना सुनायेंगे खुदा तूने जो इंसां को दिया था इक धड़कता दिल तो क्या सोचा था इस तोहफ़े से इंसां मुस्करायेंगे बहुत मगरूर था इंसान पा के दिल की दौलत को उसे क्या थी खबर तेरे करम इतना सतायेंगे खुदा जो इश्क तू करता तभी तुझ को पता होता कि आशिक रात की तनहाई में आंसू बहायेंगे कभी एहसास ही शायद खुदा को न हुआ होगा खलिश इंसान दर्द-ए-दिल से रोयेंगे कराहयेंगे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ३ मार्च २००७ 000000000000 from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com> date Mar 4, 2007 7:05 AM Wah ! Khalish Bhai jab ham khuda se poochane jayen to yeh gazal yaad kar lena mukh jubani, kahin CUSTOM Checking par rok na di jaye aapki gazal ki copy. ya koi bain laga rakha ho. Aapne to nayee gazal hi likh dali. kamaal hai./'Habeeb' ००००००००००००००० from "Dr Taher (डा॰ ताहेर कागलवाला)" <drtaher@gmail.com> date Mar 4, 2007 2:15 AM Dear MCG saab, That is a nice and lovely poem. Keep it up! -drtaher ०००००००००००००००० ७५४. किसलिये मनाऊं मैं होली—-४-३-०७ की (गैर-मुरद्दफ़) गज़ल, ई-कविता को ४-३-०७ को प्रेषित किसलिये मनाऊं मैं होली जलती नित जीवन की होली एक थी बसन्त ऐसी आई जब उठी मायके से डोली ससुराल गयी मैं सकुचाती तो एक शेरनी यूं बोली अपनी जबान खो बैठेगी गर तूने यहां जबां खोली रुपया गाड़ी न लाई तो खायेगी तू हंटर गोली मेरा अधिकार है बेटे पर मत सोच पति है हमजोली अब और मनाऊं क्या होली जीवन की होली तो हो ली. महेश चन्द्र गुप्त खलिश होली, ४ मार्च २००७ ७५५. खुदा पूछेगा जो हम से ज़मीं पर क्या किया जा कर-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को ४-३-०७ को प्रेषित खुदा पूछेगा जो हम से ज़मीं पर क्या किया जा कर कहेंगे हम खुदा से देख ही क्यों न लिया जा कर ज़मीं पर किस कदर दहशत के तूफ़ानों का मौसम है तेरे ही नाम पर लड़ते हैं सुन्नी और शिया जा कर तू बेटा और पैदा कर, मसीहा भेज धरती पर जो पलटे खून के प्यासे दरिन्दों का हिया जा कर बदल माहौल दुनिया का, खुदा क्या फ़ायदा है ग़र तेरा भेजा हुआ इंसान रो रो के जिया जा कर ख़लिश न भेजना शायर खुदा धरती पे तू हरगिज़ पढ़ेगा मरसिया मुर्दार दुनिया का वहां जा कर. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ४ मार्च २००७ ००००००००००००००००० from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com> date Mar 4, 2007 3:06 PM Marvellous !!! Marhawaa !, Aaj maloom huaa ki wakiya hi aap aik shayer hi nahin balki Wakeel bhi hain. Aur Sunni, Shiaa aur Masiha ka zikar kar khoob sahara dia hai daleel men. /Jio mere Dost agar khuda ke ghar men Masiha mere kaam na aaya to aapko hi aage karunga meri wakalat karne ke liye/Jio'Habeeb' ७५६. वकीलों का नहीं दीन-ओ-धरम ईमान होता है-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को ४-३-०७ को प्रेषित वकीलों का नहीं दीन-ओ-धरम ईमान होता है वकीलों के लिये पैसा ही उन की शान होता है मुवक्किल चाहे कातिल हो बचायें किस तरह उस को वकीलों के दिलों में बस यही अरमान होता है बड़ा सीधा सा नाता है वकीलों और मुज़रिम का वो मोटी फ़ीस देता है जो बे-ईमान होता है वकीलों की भरे वो जेब या फिर पेट बच्चों का गरीबी में ही जीता जो सही इंसान होता है सचाई पर चले गांधी वकालत ही न चल पाई मुकदमे की खलिश झूठा गवाह ही जान होता है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ४ मार्च २००७ ७५७. कोई कली कहीं चटकी होगी —-८-३-०७ की गज़ल ई-कविता को ८-३-०७ को प्रेषित कोई कली कहीं चटकी होगी कोई फांस कहीं अटकी होगी जो बात न बढ़ पायी आगे कोई बात कभी खटकी होगी जो पैठ गयी दिल के भीतर विष घूंट कोई गटकी होगी डस गयी काली नागिन सी जो कोई ज़ुल्फ़ कभी झटकी होगी बौरा गयी जो गोपी का मन मुरली यमुना तट की होगी घर से निकली सुध-बुध खो कर चूनर उस की लटकी होगी जो चाल करे मद्धम बैरन गागर सिर से पटकी होगी जब कुंज में श्याम छिपे बैठे राधा तकती भटकी होगी जब चीर छिपाया राधा का कितनी चटकी-मटकी होगी जब खलिश हुआ है पैंसठ का पत्नी भी उनसठ की होगी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ८ मार्च २००७ ०००००००००००००० from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com> to mcgupta44@gmail.com date Mar 8, 2007 9:43 PM Priy guptaji namaskar kya sundar gazal likhi hai man khush ho gaya. ek ek line bahut sundar hai. aaj subah subah kavita likhne ki prerna de gai aapki gazal. bahut badhai kusum ०००००००००००००००००० ७५८. मेरी क्या जुस्तज़ू है किस तरह तुम को बताऊं मैं—-९-३-०७ की गज़ल ई-कविता को ९-३-०७ को प्रेषित मेरी क्या जुस्तज़ू है किस तरह तुम को बताऊं मैं दबी जो बात दिल में है लबों पे कैसे लाऊं मैं कभी परदे के पीछे झांक कर मेरे सनम देखो फ़रक असली-ओ-नकली का तुम्हें कैसे दिखाऊं मैं ये शम्म लड़खड़ाती है कि है ये रक्स रुखसत का नहीं बाकी कोई तदबीर कि तुम को रिझाऊं मैं फुहारों की भरे सहरा में क्यों तुम आस करते हो विदाई में मिलन का गीत क्या गा कर सुनाऊं मैं अगर तुम को नहीं एहसास है जज़्बात का मेरे खलिश अरमान इस दिल के भला क्योंकर जताऊं मैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ मार्च २००७ ००००००००००००००००००००००००००० ७५९. गागर में सागर भरे तभी कविता बनती-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को ९-३-०७ को प्रेषित गागर में सागर भरे तभी कविता बनती कल्पना कुलाचें भरे तभी कविता बनती धरती पर तो साम्राज्य गद्य का रहता है कवि जाये जग से परे तभी कविता बनती आंखें गीली न हों तो कैसे धुल पायें कवि ग़म-सरिता को तरे तभी कविता बनती जब कवि के मन के भाव कलम से बह निकलें झलकें शब्दों में खरे तभी कविता बनती बन पद्य बहे अश्रु-सम कवि मन की पीड़ा मन को उद्वेलित करे तभी कविता बनती यमदूत ठिठक रह जाये सुन कवि-गान अगर और घड़ी काल की टरे तभी कविता बनती जब युद्ध क्षेत्र में सुने कवि का आवाहन तलवार शत्रु की डरे तभी कविता बनती हो चकित सुने नख-शिख वर्णन जब चन्द्रमुखी अंगुली होठों पर धरे तभी कविता बनती साकी और नगमे में चुनता श्रोता सोचे दोनों में किस पर मरे तभी कविता बनती कविता सुन कर जब खलिश सरस्वती आ जाये और खुद ही कवि को वरे तभी कविता बनती. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ मार्च २००७ ००००००००००००००००० from Manju Bhatnagar <manju@ei-india.com> date 11 Mar 2007 23:57:27 -0700 आद. खलिश जी, देवी जी, मधु जी, रमा जी एवं सभी बन्धुवर, सर्वप्रथम तो आप सब का तहेदिल से शुक्रिया. खलिश जी ज़वाब में आपने बहुत सुन्दर कविता लिखी, मन को छू गई. पर हज़ूर हमारी कविता तो आपके जैसे कामिनी नहीं है. वह तो सुबह से रात तक घर-बाहर में ही उलझी रहती है. मैं बताती हूं कि मेरी कविता कैसे बनती है? ' विचारों के आटे को, भावों के जल से गूंधती हूं. डायरी के चकले पर, विवेक के बेलन से बेलती हूं. यथार्थ के तवे पर उसे सेकती हूं, संघर्षों की अग्निपरीक्षा से जब वह फ़ूल कर निकल आती है, तभी वह कविता बन जाती है, जो मन की क्षुधा शान्त कर जाती है. ७६०. होंठ हिलने न पाये कि आवाज़ को इक इशारे से ऐसा दबाया गया—-१०-३-०७ की गज़ल ई-कविता को १०-३-०७ को प्रेषित होंठ हिलने न पाये कि आवाज़ को इक इशारे से ऐसा दबाया गया हर गवाह ने कहा उस ने देखा नहीं इस तरह कातिलों को छुड़ाया गया बाप के पास जब कुछ न देने को था किसलिये फिर रचाया था बेटी का ब्याह सास ने और ननद ने यूं ताने दिये सौ तरह से बहू को सताया गया कोई तदबीर न काम आयी, नहीं कार पीहर से अपने बहू ला सकी ठीक होली के दिन होलिका का दहन था बदा सो बहू को जलाया गया न सनम ही मिले न मिला इश्क ही सिर्फ़ रुसवाई हम को मिली प्यार में हम निगाहों से दुनिया की बच न सके प्यार चाह कर न हम से छिपाया गया एक लमहे में था ज़िन्दगी का असर खो चुके प्यार को तब ये जाना खलिश वो तो नज़रें झुका के खड़े थे मगर प्यार हम से ही न खुद जताया गया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ मार्च २००७ ७६१. घर के मालिक की घर को दुआ न मिली घर के मालिक से घर को दुआ न मिली चारागर से मरज़ की दवा न मिली बुरके- परदे में घुट के बहू रह गयी दीन-दुनिया की उस को हवा न मिली लूटते थे जो इज़्ज़त सरे-आम उन शोहदों को ज़ुलम की सज़ा न मिली काज़ियों को तो मज़हब निभाना ही था औरतों पर ज़बर की कज़ा न मिली मैं गुनाहों के यूं तो बहुत पास था मेरे दिल से ही दिल को रज़ा न मिली. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ मार्च २००७ ००००००००००००० 761. Ghar ke maalik kee ghar ko duaa na milee Ghar ke maalik kee ghar ko duaa na milee Chaaraagar se maraz kee davaa na milee Burake-parade meM ghuT ke bahoo rah gayee Deen-duniyaa ko us kee havaa na milee Lootate the izzat sare-aam jo shohadoM ko zulam kee sazaa na milee kaaziyoM ko to mazahab nibhaanaa hee thaa auratoM par zabar kee sazaa na milee maiM gunaahoM ke yooM to bahut paas thaa mere dil se hee dil ko razaa na milee. M C Gupta ‘Khalish’ 9 March 2007. ७६२. यादें जब दिल में उठती हैं वो गीतों में ढल जाती हैं—-११-३-०७ की गज़ल ई-कविता को ११-३-०७ को प्रेषित यादें जब दिल में उठती हैं वो गीतों में ढल जाती हैं मैं उन गज़लों का शायर हूं जो सीधी दिल से आती हैं नाशाद कभी होता हूं तो मुसकातीं हैं यादें आ कर पर कुछ यादें बरबस आ कर अश्कों को और बहाती हैं न होतीं ये गर ये यादें तो क्या हाल आशिकों का होता ये रातों की तनहाई में नज़दीक सनम को लाती हैं एहसान बहुत है यादों का जब गम की शिद्दत बढ़ती है सुनसान अन्धेरी रातों में यादें ही साथ निभाती हैं यादें ही हैं मेरा वज़ूद मैं अलग रहूं इन से कैसे यादें ही हैं मेरा जीवन यादें ही मेरी थाती हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ मार्च २००७ ७६३. हुजूम-ए-गम भला मेरी ही किस्मत में बदे थे क्यों-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को ९-३-०७ को प्रेषित हुजूम-ए-गम भला मेरी ही किस्मत में बदे थे क्यों लकीरों में मेरे हाथों की ये मन्ज़र खुदे थे क्यों चला था कारवां-ए-ज़िन्दगी में कितनी हसरत से मगर ये हादसे संगीन सामां में लदे थे क्यों बनाना चाहता था इक महल मैं संग-ए-मरमर का ये साये गम के ख्वाबों की इमारत में गुदे थे क्यों अगर मुझ को मुयस्सर थे नहीं कंगन-ओ-चूड़ी तो हुए क्यों कान थे ज़ख्मी बिना बाली छिदे थे क्यों बुझानी प्यास थी तो हैं खलिश बोतल भी प्याले भी अगर साकी नहीं राहों में मेरी मयकदे थे क्यों. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ मार्च २००७ ७६४. नादां तिफ़्ल के दिल में खुदा का अक्स होता है-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को ९-३-०७ को प्रेषित नादां तिफ़्ल के दिल में खुदा का अक्स होता है बहुत तकलीफ़ होती है वो भूखे पेट रोता है बहुत है पेट भरने को मगर हक छीनते हैं सब किसी ने है फ़सल काटी किसी ने खेत जोता है अमीरी और गरीबी का ये आलम कब खतम होगा कोई है पालकी पर कोई उस का बोझ ढोता है बहुत तकरीर देते हैं सियासतदां ज़माने में बयां उन का सिरफ़ किस्सा-ए-मैना और तोता है कहा गालिब ने दुनिया में सुखनवर हैं बहुत अच्छे खलिश का ज़िक्र भी महफ़िल में कहते हैं कि होता है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ मार्च २००७ ०००००००००००००००००००० from Devi Nangrani <devi1941@yahoo.com> date Mar 10, 2007 1:48 PM subject [ekavita] Re: Zikr aksar aam hota hai/ Khalishji..daad kabool kejiyega. Sach mein gazal go shayar hone ke naate aapka har sher Umdagi liye phirta hai. कहा गालिब ने दुनिया में सुखनवर हैं बहुत अच्छे खलिश का ज़िक्र भी महफ़िल में कहते हैं कि होता है. Haan khalish ka zikr mehfil mein aksar aam hota hai. Sach hai!!! ek aisi hi gazal jis par abhi kaam kar rahi hoon, jaisi hai aapke saamne hai बडा इन्सान कद में हो तो उसका नाम होता है जिक्र शोहरत की महफिल में उसीका आम होता है॥ खुशी की चाँदनी में चैन पाता है कोई, किसको पसीना श्रम का है गर तो, बडा आराम होता है॥ बहारों में निखरता जो न देखा, वो खिजा�"ं में थिरकती रँग बू को देखना अँजाम होता है॥ गुमाँ दौलत का होता है, किसीको नाज गुरबत पर किसीका नाम होता है, कोई बदनाम होता है॥ अमीरी में बसी गहरी बुराई की है बुनियादें मगर देवी गरीबी पर बहुत इल्जाम होता है॥ ००००००००००००००००० ७६५. दायरा-ए-दहलीज़-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को ९-३-०७ को प्रेषित थे रू-ब-रू उन से मगर मिल भी न पाये हम दहलीज़ की कसम, दहलीज़ की कसम हम ने तसव्वुर में बहुत पाले हसीं सपने अपने थे वो लेकिन बना पाये न हम अपने डोली हुई रुखसत तो उन से मिल न पाये हम दहलीज़ की कसम, दहलीज़ की कसम इकरार हम ने भी किया पूनम की रातों में खायीं थीं मरने की कसम बातों ही बातों में पर इक कदम भी उन की ओर जा न पाये हम दहलीज़ की कसम, दहलीज़ की कसम. दहलीज़ लांघना नहीं जज़्बात में मुश्किल है लांघ कर वापस कदम लाना बहुत मुश्किल तब भी बहुत मुश्किल खलिश अब भी बहुत मुश्किल दहलीज़ की कसम, दहलीज़ की कसम. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ मार्च २००७ ०००००००००००००० from ramadwivedi <ramadwivedi@yahoo.co.in date Mar 10, 2007 11:02 AM -- खलिश जी, बहुत खूब बात कही है आपने......ये पन्क्तियां मन को छू गईं.... दहलीज़ लांघना नहीं जज़्बात में मुश्किल > > है लांघ कर वापस कदम लाना बहुत मुश्किल > > तब भी बहुत मुश्किल खलिश अब भी बहुत मुश्किल आपके सम्मान में ये पन्क्तियां..... दहलीज तक मेरी वे आये जरूर थे , पर जाने क्या हुआ रास्ते बदल गये। हम सिसकियां भरते रहे दहलीज के इस पार, आंखों में अश्रु लेके वे वापस चले गये। बहुत बहुत शुक्रिया सहित, डा. रमा द्विवेदी ००००००००००० ७६६. दो दिल तड़पते ही रहे और खाक हो गये-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को १०-३-०७ को प्रेषित दहलीज़ तक मेरी सनम आये तो थे इक दिन गिनती रही इस पार मैं बेचैन सी पल छिन दीवार दरमियान दुनिया ने मगर दी चिन दो दिल तड़पते ही रहे और खाक हो गये सोचा किये हम प्यार से जीवन बितायेंगे राह-ए-वफ़ा में नाम अपना कर के जायेंगे नगमे खुशी के सब ज़माने को सुनायेंगे हम चल के प्यार की गली बरबाद हो गये दो दिल तड़पते ही रहे और खाक हो गये क्यों साये में रुसवाई के आशिक जियें मरें हर इक कदम के पेशतर वो किसलिये डरें आज़ाद हो के क्यों न ज़माने में वो फिरें इस गम-ए-सवालात से नाशाद हो गये दो दिल तड़पते ही रहे और खाक हो गये. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० मार्च २००७ 0000000000000000 from ramadwivedi <ramadwivedi@yahoo.co.in> date 10 Mar 2007 20:42:33 -0800 --- खलिश जी, आपका गीत बहुत अच्छा लगा....लिखना तो दिल की अनुभूति पर निर्भर करता है �"र तीव्र अनुभूति के धनी हैं ...ऐसा मैं मानती हूं....दुनिया झुकती है बस झुकाने वाला चाहिए...काव्य रचना के लिए किसी की परमीशन की जरूरत नहीं होती......बहुत बहुत बधाई....बाकी मेरी इन पन्क्तियों से समझ लीजिईयेगा....सादर........ हंसने वाले के साथ सभी हंसते हैं । रोने के लिए किसका जिगर बड़ा होता है? न रखो जमाने से हमदर्दी की उम्मीद कोई। क्योंकि जमाना सदा ही बेदर्द होता है ॥ अगर मिटाना हो दर्द तो एक दर्द �"र ले लो। हर दर्द का इलाज बस यही होता है ॥ पियो दर्द को �"र पियो जीभर कर । इस प्रसव के बाद ही तो सृजन होता है ॥ डा. रमा द्विवेदी 000000000000000 ७६७. क्या क्या हमें अन्दाज़ दिलवर ने दिखाये थे-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को १०-३-०७ को प्रेषित क्या क्या हमें अन्दाज़ दिलवर ने दिखाये थे आंसू वो दर्दों के या फिर खुशियों के जाये थे हम बाद मुद्दत के मिले मासूमियत से वो बोले अभी तो रात मेरे दर पे आये थे अब याद भी रहता नहीं उन को हमारा नाम आगोश में उन के हैं वो जो कल पराये थे कहते हैं वो हैरान हो के कौन हो जनाब जो एक दिन खुद देख हम को मुसकराये थे वो दे रहे हैं हम को वफ़ा की नसीहतें रंगीनियों में वक्त जो अपना बिताये थे चेहरे पे मोहर पाकदामन की लगाये हैं नापाक जिन की ज़िन्दगी में लाख साये थे रौशन ज़फ़ा की शम्म खलिश कर रहे हैं आज नाम-ए वफ़ा की जो कसम रो रो के खाये थे. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १० मार्च २००७ ७६८. नमक छिड़को न ज़ख्मों पर जरा भरने तो दो इन को—-१२-३-०७ की गज़ल ई-कविता को १२-३-०७ को प्रेषित नमक छिड़को न ज़ख्मों पर जरा भरने तो दो इन को न मारो आशिकों को यूं ज़ुरम करने तो दो इन को गुलों को तोड़ भी लेना मसल के छोड़ भी देना ये कलियां हैं बहुत नाज़ुक जरा खिलने तो दो इन को छुरों और चाकुओं से चाहे जितना काट लेना तुम समर मीठे अभी होंगे जरा पकने तो दो इन को मवेशी को जो पाला है करो कुछ तो रहम ज़ालिम दूध भी सांझ दुह लेना अभी चरने तो दो इन को करो नाज़ुक न तिफ़्लों को, इन्हें चलने दो पैरों से उठा लेना खलिश गोदी जरा गिरने तो दो इन को. समर—फल तिफ़्ल--शिशु महेश चन्द्र गुप्त खलिश ११ मार्च २००७ ७६९. मेरे दिल में खुशी आती नहीं मैं क्या करूं—-१३-३-०७ की गज़ल ई-कविता को १३-३-०७ को प्रेषित मेरे दिल में खुशी आती नहीं मैं क्या करूं कोई शय दिल को बहलाती नहीं मैं क्या करूं गमों के साये बढ़ते आ रहे हैं चार सू हंसी होठों पे मुसकाती नहीं मैं क्या करूं न मीना से न साकी से मिला दिल को करार कोई शय अब सुकूं लाती नहीं मैं क्या करूं गुज़र आखिर गये ज़ुल्म-ओ-सितम के दिन मगर वो दिल से याद-ए-गम जाती नहीं मैं क्या करूं गमों की पड़ गयी आदत खलिश तकदीर अब नया कोई राग-ए-गम गाती नहीं मैं क्या करूं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ११ मार्च २००७ न ये मुझ से कोई पूछे कि मेरी आरज़ू क्या है सज़ा-ए-मौत दे कर पूछते हो जुस्तजू क्या है ७७०. पास आये हैं मेरे सनम खुद-ब-खुद—-१४-३-०७ की गज़ल ई-कविता को १४-३-०७ को प्रेषित पास आये हैं मेरे सनम खुद-ब-खुद आज चलने लगी है कलम खुद-ब-खुद गैर को देख कर क्या वो शर्माएंगे कर रहे हैं वो खुद से शरम खुद-ब-खुद दिल से दिल को मिला के जरा देखिये जान जायेंगे दिल का मरम खुद-ब-खुद वक्त-ए-रुख्सत वो हम से यही कह गये फिर मिलेंगे हम अगले जनम खुद-ब-खुद कुछ को मिलती हैं किस्मत से मज़बूरियां कुछ भुगतते हैं नाहक अलम खुद-ब-खुद कुछ को मज़हब से कोई नहीं वास्ता कुछ निभाते हैं अपना धरम खुद-ब-खुद आखिरी कौन सा है पैगम्बर हुआ ऐसे पाले हैं हम ने भरम खुद-ब-खुद हम अगर मेहरबां हों गरीबों पे तो होंगे हम पे खुदा के करम खुद-ब-खुद आप कांटों के बदले अगर फूल दें क्यों न हो जाये दुश्मन नरम खुद-ब-खुद कुछ खलिश ने जुबां से कहा ही नहीं आप क्यों हो रहे हैं गरम खुद-ब-खुद. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १४ मार्च २००७ 00000000000000000 from anil janvijay <aniljanvijay@gmail.com> date 13 Mar 2007 22:16:43 -0700 kyaa baat hai ! kyaa gazal hai ! merii shubh kaamnaayen anil janvijay moscow 00000000000000000 from Deepika Bahri <dpetrag@emory.edu> date Mar 14, 2007 7:42 AM बहुत ही उमदा गजल सुना हैं अाप। शुक्रिया! Deepika Bahri Director, South Asian Studies Program Associate Professor, Postcolonial Studies, English dept. Emory University, Atlanta, GA 30322 PH: 404-727-5114 FX: 404-727-2605 ००००००००००००००००००० from kunwar bechain <kbechain@yahoo.co.in> date 14 Mar 2007 07:34:20 -0700 snehi gupta ji namaskar ekavita mein aapki ghazal padhi.bahut achhi hei. badhai. isi prakar apni ghazlon ke rang dikhate rahiyega. kunwar bechain ००००००००००००००००००० ७७१. आती किसी की याद है तो दर्द होता है—-१५-३-०७ की गज़ल ई-कविता को १५-३-०७ को प्रेषित आती किसी की याद है तो दर्द होता है जो दे किसी को दर्द वो बेदर्द होता है दिन वस्ल के गुज़रें तो बस लमहे से लगते हैं तनहाई का मौसम बड़ा दिलसर्द होता है नाकाम आशिक की यही पहचान होती है सीने की धड़कन तेज़ और रंग ज़र्द होता है अफ़सोस का इज़हार तो करते हैं गैर भी जो हाथ बढ़ाये वही हमदर्द होता है मर्दानगी होती नहीं माहौल-ए-ज़ुल्म से जो आबरू पे मर मिटे वो मर्द होता है जो लूट लेता है खलिश शीशे की सब चमक वो कुछ नहीं बस एक चुटकी गर्द होता है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ मार्च २००७ ०००००००००००००००० from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com date Mar 15, 2007 9:27 PM मर्दानगी होती नहीं माहौल-ए-ज़ुल्म से आबरू पे जो मरे वो मर्द होता है महेशजी. एक बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति के लिये बधाई स्वीकारें राकेश ०००००००००००००००००० from sunita chotia <shanoo03@yahoo.com date 15 Mar 2007 08:20:54 -0700 आदरणीय बहुत ही बेहतरीन रचना है,...मेरि शुभकामनाये स्वीकार करें सुनिता ०००००००००००० Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in> date Mar 16, 2007 7:40 AM खलिश साहब, मर्दानगी होती नहीं माहौल-ए-ज़ुल्म से आबरू पे जो मरे वो मर्द होता है बहुत अच्छी पंक्तियाँ हैं। बधाई। सादर श्यामल सुमन ००००००००००००००० ७७२. आप की जो बधाई मुझे मिल गयी मेरा जीना ही मानो सफ़ल हो गया-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को १५-३-०७ को प्रेषित आप की जो बधाई मुझे मिल गयी मेरा जीना ही मानो सफ़ल हो गया नैन की कोर से बूंद टपकी प्रिये मेरा मरुथल ही मानो सजल हो गया न दिशा थी न कोई दशा थी मगर मैं निराशा में यूं ही भटकता रहा डगमगाते रहे ये कदम आज तक साथ पा कर तुम्हारा सबल हो गया गौण है जो मिलन है शरीरों का वह आज हैं पास कल का भरोसा नहीं इस तरह आत्माएं बन्धीं प्यार में जैसे सम्बन्ध मानो अचल हो गया रात की कालिमा हर किरण हर चुकी इन्द्र-धनुषी गगन के हुए रंग हैं गन्ध झौंकों में मद से भरी बस गयी पूर्ण कुसुमित हृदय का कमल हो गया जो उदासी के पल थे वे बीते हैं अब ऋतु बसन्ती हवाओं में छाने लगी जो था रसहीन कल तक हुआ क्या खलिश प्रीतमय आज जग यह सकल हो गया. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ मार्च २००७ ७७३. जाने क्या कुछ पाती में लिख डाला है—-१६-३-०७ की गज़ल ई-कविता को १६-३-०७ को प्रेषित जाने क्या कुछ पाती में लिख डाला है वरुण चित्र से दिल का दिया हवाला है फूल नहीं कांटों से यह शोभित होगी विरह बेल को अश्रु जल से पाला है नहीं किरण दिखती है कोई आशा की शोक भवन में कितना आज उजाला है जिस के जीवन में विष की कटुता भर दी नाम दिया जग ने उस को मधुबाला है सूखी रोटी की कीमत उस से पूछो मिला न जिस को दिन में एक निवाला है तरस रहा कोई पानी की बून्दों को और किसी को सांझ ढले मधुशाला है टूटे दिल को खलिश सहारा और कहां दर्द भरी कविता ने उसे सम्हाला है. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ मार्च २००७ ७७४. कुछ बात हुयी क्या बात हुयी यह बात न खुल पायी अब तक-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को १५-३-०७ को प्रेषित कुछ बात हुयी क्या बात हुयी यह बात न खुल पायी अब तक जो चैन गया दिल का उस की हो सकी न भरपाई अब तक यह सद्य: खिली तरुणाई है एक मस्त अदा सी छायी है हो गई भोर मधु रजनी की पर गई न अंगड़ाई अब तक वे प्यार तो करते हैं मुझ से चाहते क्या हैं जानूं कैसे दिल के यह राज़ समझने की कम हुयी न कठिनाई अब तक न बेल प्रेम की बढ़ पायी सूखी भी नहीं बरस बीते जो आस हृदय में पाली थी फिरती है घबराई अब तक या इश्क की राहें टेढ़ी हैं या इश्क नहीं करना आया था खलिश चला आशिक बनने कहलाया सौदाई अब तक. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ मार्च २००७ ७७५. भोर की इक किरन रात को पी गयी-- बिना तिथि की कविता, ई-कविता को १७-३-०७ को प्रेषित भोर की इक किरन रात को पी गयी रात भर में मगर रात भी जी गयी तन स्वयं ही शिथिल, शान्त सा हो गया क्लान्त मन की जो सब पीर हर ली गयी प्राण को इक नया प्राण जैसे मिला इक नये प्राण की नींव रख दी गयी नींव क्यों डगमगायी न जाना कोई वह बहुत आस्था से धरी थी गयी झोलियां तो बराबर भरेंगी खलिश हो अगर साफ़ मन से दुआ की गयी. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १५ मार्च २००७ |