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Rated: E · Book · Emotional · #1510374
Second part of Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, from 701-1225.
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#626945 added December 31, 2008 at 4:38am
Restrictions: None
Poems / ghazals in Hindi script-- No. 701-725

७०१. करने की वफ़ा हुस्न में फ़ितरत नहीं होती—७-२-०७की गज़ल, ई-कविता को ७-२-०७ को प्रेषित


करने की वफ़ा हुस्न में फ़ितरत नहीं होती
आशिक की ज़िन्दगानी पुर-कुरबत नहीं होती

देखा न कीजिये हमें यूं मुस्करा के आप
नाज़-ओ-अदा से दिल में अब हसरत नहीं होती

महफ़िल-ए-रंग में मुझे अब पूछते हैं लोग
ख्वाहिश कोई दिल में भला हज़रत नहीं होती

जो नौजवान हैं उन्हें कैसे हो ऐतबार
बूढ़े दिलों से इश्क की कसरत नहीं होती

ऐसे मुकाम पे खलिश अब आ गया है दिल
मुझ को किसी से प्यार या नफ़रत नहीं होती.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ फ़रवरी २००७

कुर्बत—सामीप्य, नज़दीकी
०००००००००००

from kusum sinha <kusumsinha2000@yahoo.com>
to mcgupta44@gmail.com
date Feb 7, 2007 11:03 PM
subject haalchaal
signed-by yahoo.com
mailed-by yahoo.com

guptaji
namaskar
bahut sundar likha hai/ bahut pasand aai gazal. bar
bar padhne par bhi man nahi bharta
badhai

kusum
०००००००००००००००००००००

from Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in
date Feb 9, 2007 6:16 PM

खलिश साहब,

ऐसे मुकाम पे खलिश अब आ गया है दिल
मुझ को किसी से प्यार या नफ़रत नहीं होती

बहुत अच्छा। क्या बात है।

कहीं से चुनकर लाया हूँ चार पंक्तियाँ - जो पेश कर रहा हूँ।

सरे राह कुछ भी कहा नहीं, कभी उसके घर मैं गया नहीं।
मैं जनम जनम से उसी का हूँ,उसे आज तक ये पता नहीं।
उसे पाक नजरों से चूमना मेरी इबादतों में शुमार है,
कोई फूल लाख करीब हो, कभी मैंने उसको छुआ नहीं।।
सादर
श्यामल सुमन

००००००००००००००००००००





७०२. मैं बहारों से बहुत घबरा गया

मैं बहारों से बहुत घबरा गया
अब खिजाओं पर मेरा दिल आ गया

भूल कर भी भूल मैं सकता नहीं
वो जो इक लमहा हमें मिलवा गया

रात को जो ख्वाब देखा, बिन वजह
एक धुन्धले साये से शर्मा गया

रौशनी-ओ-रंग की दुनिया से दूर
आलम-ए-सहरा मुझे अब भा गया

कुछ चढ़ा ऐसा ज़नून-ए-शायरी
लोग कहते हैं खलिश पगला गया.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ फ़रवरी २००७







७०३. लौट कर वापस न आना तुम कभी

लौट कर वापस न आना तुम कभी
न सन्देसा ही भिजाना तुम कभी

अब न कोई आस न एहसास है
मुझ से न दिल को लगाना तुम कभी

तीरगी में रौशनी का काम क्या
न सपन मुझ को दिखाना तुम कभी

भूल जाना जो किये वादे सनम
न कसम कोई निभाना तुम कभी

फाड़ देना हां मेरी तसवीर को
न तसव्वुर में सजाना तुम कभी

क्यों खलिश के हाल पे बेहाल हो
ख्वाब में उस को न लाना तुम कभी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
६ फ़रवरी २००७







७०४. जीवन की राहें कठिन सही पर पथिक तुझे चलना होगा

जीवन की राहें कठिन सही पर पथिक तुझे चलना होगा
पांडव-सम, तज के राजपाट, हिम-खंडों में गलना होगा

चिन्ता करने से उस पल की जो बीत गया कुछ न होगा
बस वर्तमान ही तेरा है क्या जाने तू कल न होगा

उलटी धारा में तैरोगे तो जग को वैरी पाओगे
तुम को समाज के रीति-रिवाज़ों में भरसक ढलना होगा

सम्भव कैसे मिलना होगा संघर्ष बिना गन्तव्य का
हर कांटे से बचना होगा हर बाधा को छलना होगा

माना कि तू एकाकी है पर खलिश रात तो बाकी है
जग का अन्धियारा हरने को तुझ को पल पल जलना होगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ फ़रवरी २००७







७०५. जब तुम्हारी याद मुझ को आ गयी—२० फ़रवरी की गज़ल, ई-कविता को २०-२-०७ को प्रेषित


जब तुम्हारी याद मुझ को आ गयी
एक खुशबू सी फ़िज़ां में छा गयी

याद उन की आयी तो फिर एक बार
कुछ सुनहरी बाग से दिखला गयी

दिल का सहरा तो झुलसता ही रहा
बाग में कोयल बहुत कुछ गा गयी

हुस्न मुरझाता है पगले कैद में
एक तितली आ के ये समझा गयी

साथ बेहतर था रकीबों का खलिश
हाय ये तनहाई मुझ को खा गयी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ फ़रवरी २००७







७०६. मैंने समझा था कि पा के हमसफ़र ज़िन्दगी अब चैन से कट जायेगी

मैंने समझा था कि पा के हमसफ़र, ज़िन्दगी अब चैन से कट जायेगी
क्या पता था एक तूफ़ां आयेगा, नाव अपनी राह से हट जायेगी

जब अन्धेरे से लड़ाई ठान ली, किसलिये अब हार कर मुंह मोड़ना
रात जाने में नहीं है देर अब, रौशनी आयेगी पौ फट जायेगी

थे बहुत अरमान कुछ न कर सका, वक्त की रफ़्तार कम न हो सकी
मांगने से न मिलेगा एक पल, उम्र मेरी एक दिन खट जायेगी

तू रवानी ज़िन्दगी की जी चुका, बोझ बन कर क्यों किसी पे तू रहे
वक्त-ए-रुखसत है ये बाजी उम्र की, क्या पता कब कौन करवट जायेगी

रोज़मर्रा के झमेले छोड़ कर, बन्दगी में अब खुदा की दिल लगा
नूर रूहानी खलिश जब आयेगा, ज़िन्दगी की तीरगी छंट जायेगी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ फ़रवरी २००७






७०७. एक गज़ल सुनायी है अश्कों की रवानी में

एक गज़ल सुनायी है अश्कों की रवानी में
एक उम्र बितायी है छोटी सी जवानी में

बरबाद मोहब्बत का अफ़साना सुनायें क्यों
कहने को बहुत कुछ है इस दिल की कहानी में

चेहरे हैं नये सारे सब बदल गयी दुनिया
नज़रें हैं मगर अटकीं तसवीर पुरानी में

दिल ऊब गया मेरा दुनिया के झमेलों से
मिलता है सुकूं अब तो पैगाम रूहानी में

शुक्रिया खलिश उन का दे गये हमें अपनी
लम्बी सी बहुत यादें छोटी सी निशानी में.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ फ़रवरी २००७








७०८. ज़िन्दगी लगने लगी दुश्वार है—RAMAS—ईकविता १३ सितंबर २००८


ज़िन्दगी लगने लगी दुश्वार है
मौत का सामान भी तैय्यार है

ढूंढते हो क्यों मोहब्बत को यहां
सिर्फ़ धोखे से भरा संसार है

बोलने के कोई जुमला पेशतर
सोचना पड़ता यहां सौ बार है

भाई-भाई के दिलों के दरमियां
अब घरों में खिंच चुकी दीवार है

मर्ज़े- तनहाई से दिल की ज्यों ख़लिश
हर कोई लगता यहां बीमार है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ फ़रवरी २००७

०००००००००

Saturday, 13 September, 2008 5:24 PM
kusumsinha2000@yahoo.com
Aderniy maheshji
namaskarBahut sundar gazal ke liye badhai sweekar Karen
kusum


एद
याद उनकी जब कभी आने लगी
तीरगी दिल पर मेरे छाने लगी

कट गयीं रातें बदलते करवटें
वो न आये आस भी जाने लगी

एक सूरज से चली आयी किरण
लौ की नाकामी पे मुस्काने लगी

शम्म को खुद पे हुआ ऐसा ग़रूर
कहर परवानों पे वो ढाने लगी

जब पतंगों के जले पर तो ख़लिश
लौ अजब सा इक सुकूं पाने लगी.







७०९. याद जब उन की कभी आने लगी—RAMAS, ईकविता, १४ सितंबर २००८

याद उनकी जब कभी आने लगी
तीरगी दिल पर मेरे छाने लगी

कट गयीं रातें बदलते करवटें
वो न आये आस भी जाने लगी

एक सूरज से चली आयी किरण
लौ की नाकामी पे मुस्काने लगी

शम्म को खुद पे हुआ ऐसा ग़रूर
कहर परवानों पे वो ढाने लगी

जब पतंगों के जले पर तो ख़लिश
लौ अजब सा इक सुकूं पाने लगी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ फ़रवरी २००७








७१०. भीड़ में दुनिया की मैं खो जाऊंगा—८ फ़रवरी की गज़ल, ई-कविता को ८-२-०७ को प्रेषित


भीड़ में दुनिया की मैं खो जाऊंगा
न गली मैं यार की लो जाऊंगा

गर उदासी का सबब पूछे कोई
होंठ सी लूंगा मैं चुप हो जाऊंगा

याद रातों को जो उस की आयेगी
एक आंसू प्यार का रो जाऊंगा

जी चुका अब ज़िन्दगी की शाम है
गर्द की चादर तले सो जाऊंगा

लो चला मैं इस जहां से अब खलिश
कौन जाने किस जहां को जाऊंगा.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ फ़रवरी २००७

००००००००००००००

From Shyamal Kishor Jha <shyamalsuman@yahoo.co.in
date Feb 10, 2007 7:16 AM

खलिश साहब,

जी चुका अब ज़िन्दगी की शाम है
गर्द की चादर तले सो जाऊंगा

मेरी कामना है कि आप बिना सोये यूँ ही लिखते रहें। दो पंक्तियाँ पेश करना चाहता हूँ-

जी लिया जी लिया मैं बहुत जिंदगी।
ऐ जिंन्दगी अब तेरी खुशामद नहीं।।

सादर
श्यामल सुमन

0000000000000000000









७११. ज़ुल्फ़ों को तुम ने यूं जो संवारा नहीं होता—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ७-२-०७ को प्रेषित


ज़ुल्फ़ों को तुम ने यूं जो संवारा नहीं होता
तो दिल सनम मेरा ये तुम्हारा नहीं होता

न दिलजलों को दीजिये ये इश्क की किताब
वरका-ए-वफ़ा उन को गवारा नहीं होता

एहसासेशिद्दत प्यार का उम्रेजवानी में
होता है एक बार दुबारा नहीं होता

न हुस्न, वफ़ा, शम्म, परवाने की हो मिसाल
तो बज़्मेशायरी में गुज़ारा नहीं होता

हासिल न उन का प्यार हो पाता ख़लिश अगर
उन की नज़र का कोई इशारा नहीं होता.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
७ फ़रवरी २००७











७१२. ज़िन्दगी क्या है?

ज़िन्दगी क्या है?
चन्द पन्ने डायरी के
जो रहे कोरे के कोरे
या जिन्हें भरना कभी चाहा नहीं
या भरा तो एक झौंका आ गया
रौशनाई वर्क पर फैला गया
जो लिखा था वक्त सब मिटा गया.

ज़िन्दगी क्या है?
बाग में उगता हुआ नन्हा सा पौधा
फोड़ कर धरती उठाता अपने सर को
दिन-ब-दिन बढ़ने की हिम्मत, आस ले कर
किन्तु निर्भर अन्य पर, असहाय कितना,
सूख जाती है धरा और साथ वह भी
ज़िन्दगी से सूख जाता.

ज़िन्दगी क्या है?
एक लम्बी सी कहानी
सीरियल टी०वी० का जैसे
या कि मंचित हो रहा हो
कोई नाटक जो समय की मंच पर से
दीखता है दर्शकों को
किन्तु वे सब मूक दर्शक
देख कर भी
चाह कर भी
कोई परिवर्तन नहीं ला पा रहे हैं.
ज़िन्दगी की धार बढ़ती जा रही है,
कौन जाने किस दिशा को जा रही है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ फ़रवरी २००७





७१३. मन के लड्डू फोड़ फोड़ कर चाय पकौड़े खाने का—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ८-२-०७ को प्रेषित

मन के लड्डू फोड़ फोड़ कर चाय पकौड़े खाने का
चलन पुराना है लेकिन ये काम नहीं कुछ आने का
बेहतर है श्रीमन्त उठो बिस्तर से और कुछ काम करो
जाओ किचन में चाय बनाओ और न तुम आराम करो

जो औरों का आये निमन्त्रण इस पर आस लगाते हैं
वे अकसर भूखे रहते हैं प्यासे ही सो जाते हैं
उठो काम पर जाओ, कमाओ, दुनिया में कुछ नाम करो
बहुत हो चुका जागो अब तो और न तुम आराम करो

क्या रखा है सपनों की दुनिया में विचरण करने में
मन के चित्र बना कर उन में आकर्षक रंग भरने में
कुछ विशेष तुम करो जगत में, काम न केवल आम करो
रहो ज़माने से तुम आगे, और न तुम आराम करो.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
८ फ़रवरी २००७






७१४. निगाह-ए-इश्क पर आशिक की जां कुरबान होती है—९-२-०७ की गज़ल, ई-कविता को ९-२-०७ को प्रेषित


निगाह-ए-इश्क पर आशिक की जां कुरबान होती है
अदा-ए-गुफ़्तगू-ए-इश्क की ये शान होती है

कभी तो इश्क की खातिर लुटानी जान पड़ती है
यहां तक इश्क की कीमत कभी ईमान होती है

अगर मय मुफ़्त की हो और साकी खुद पिलाये तो
तबीयत पीर-ओ-काज़ी की बे-ईमान होती है

चलन इश्क और उल्फ़त का ज़माने में है बदला सा
फ़ितरत आजकल अकसर गलत-अरमान होती है

आशिक इश्क का इज़हार गलियों में नहीं करते
खबर हरगिज़ नहीं दुनिया को कानों-कान होती है

अगर हो इश्क सच्चा तो दिलों के तार मिलते हैं
बदन होते है दो लेकिन सिरफ़ एक जान होती है

बशर-ए-आम के दिल में बहुत है खौफ़ मरने का
चेहरे पे शहीदों के मगर मुस्कान होती है

खुदा के घर का इक रस्ता, है दूजा शौक-ए-दुनिया का
जो दुनिया को चुने उस की नज़र नादान होती है

न समझो शय इसे लबरेज़ खुशियों और बहारों से
मोहब्बत ही खलिश दुनिया में गम की खान होती है.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ फ़रवरी २००७

००००००००००००००
from Ripudaman Pachauri <pachauriripu@yahoo.com to "Dr.M.C. Gupta" <mcgupta44@gmail.com>
date Feb 9, 2007 9:48 PM

Gupta ji,

Aap ki ye gazal bahut pasand aayii.

Regards
Ripudaman

००००००००००००००००








७१५. दुनिया की कोई शय मुझे बहला न सकेगी—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ९-२-०७ को प्रेषित


दुनिया की कोई शय मुझे बहला न सकेगी
नज़दीक मुझ को मेरे रब के ला न सकेगी

पुर-हुस्न और पुरनूर रंग-ओ-बू से है दुनिया
पर शौक-ए- रूहानी को ये लुभा न सकेगी

सोने-ओ-चान्दी पे अगरचे लोग मरते हैं
फ़ितरत मेरी इन से सुकूं कुछ पा न सकेगी

हीरे-ओ-जवाहारात तू कितने समेट ले
दौलत ये बन्दे साथ तेरे जा न सकेगी

दिल में अगर होगी लब-ओ-रुखसार की ख्वाहिश
सीरत में फिर खुशबू खुदा की आ न सकेगी

होगा खलिश तू जब सवार चार कांधों पर
शय साथ तेरा कोई भी निभा न सकेगी.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ फ़रवरी २००७

तर्ज़-- तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी
0000000000000000000

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com
date Feb 10, 2007 6:14 AM

Khalish ji,
Aap mujhe badnaam na karen, awwal to maine yeh kabhi aapko kaha hi nahin hai. vaise bhi chaho ya n chaho aap ne 715 takreaban gazalen likh kar sahitaya men na kewal panw hi rakha hai balki ghutnon tak gaDe paDe hain,
mere ya Gul ji ke kahne se kaya hota hai. ham to aapke sah paThi e-kavita ke hi nahin sahitaya ke bhi hain bhale hamara naam sahitaya men na bhi ho aapka zaroor hai.
aapki yeh gazal bhi payari hai. yeh duniya aur har sai USI RAB ki banayee hai aap zara gour se dekhen agar Rab bha jayega to uski har sai aapke dil ko bha jayegi. aur ham bhi./'Habeeb'

000000000000000

from harsh_y71 <harsh_y71@hotmail.com
date Feb 10, 2007 12:31 PM

प्रिय ख़लिश जी,
आपका शायराना अंदाज अलग है �"र वह बडा सुहावना है। दूसरों से आप compare न करें। आपकी
गज़ल / कविता लिखने की हूक अनूठी है जो कम ही दिखाई देती है। देखिये न...... तस्वीर तेरी
दिल मेरा बहला न सकेगी .... पर आपने ध्यान लगाया �"र गज़ल निकल चली.....

सोने-�"-चान्दी पे अगरचे लोग मरते हैं, फ़ितरत मेरी इन से सुकूं कुछ पा न सकेगी
हीरे-�"-जवाहारात तू कितने समेट ले, दौलत ये बन्दे साथ तेरे जा न सकेगी

बहुत बहुत धन्यवाद.
हर्ष
००००००००००००००००००००००








७१६. दुनिया को दिल के राज़ बताया नहीं करते

दुनिया को दिल के राज़ बताया नहीं करते
अपनों से दिल की बात छिपाया नहीं करते

जब टूटता है दिल बहुत तकलीफ़ होती है
ख्वाबों के महल यूं ही बनाया नहीं करते

तसवीर आशिक की सिरफ़ दिल में ही रखते हैं
रुसवाई न हो घर में सजाया नहीं करते

लग जाये नज़र न तुम्हारे हुस्न को कहीं
नज़रों को हर किसी से मिलाया नहीं करते

कुछ लोग लकीरों से किस्मत जान लेते हैं
आहों को दिल की सब को सुनाया नहीं करते

पढ़ना खलिश तनहाई में तुम यार के खत को
खुश हो के उसे सब को दिखाया नहीं करते.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ फ़रवरी २००७











७१७. नज़रों में इक तसवीर है अब तक निहां मेरे—१८-२-०७की गज़ल, ई-कविता को १८-२-०७ को प्रेषित


नज़रों में इक तसवीर है अब तक निहां मेरे
ता-उम्र न मिट पायेंगे दिल के निशां मेरे

गौहर-ए-मोहब्बत हैं ये न कि फ़कत आंसू
तसलीम हैं मुझ को ये गुन्चा-ए-खिजां मेरे

पाला जवानी में उन्हें था हसरतों के साथ
कैसे भुलाऊं ख्वाब जो थे बदगुमां मेरे

ढूंढेगी हर कदम पे निगाह इक वही सूरत
जायें जहां भी अब जहां में ये कदम मेरे

सहना है इन को ज़िन्दगी भर के लिये खलिश
मुझ से बिछुड़ के जायेंगे ये गम कहां मेरे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ फ़रवरी २००७

००००००००००००००००००००००

from Rakesh Khandelwal <rakesh518@yahoo.com>
date Feb 18, 2007 8:21 AM

महेशजी

बहुत खूब खयाल है
ढूंढेगी ये निगाह जो सूरत बसी दिल में
जायेंगे कदम इस जहां में जब जहां मेरे
राकेश
०००००००००००००००००००

from roop hans <roophanshabeeb@yahoo.com> h

date Feb 18, 2007 12:18 PM


wah ! Khalish ji kaya khoob kaha "mujhse bichhuD ke jayenge yeh gam kahan mere"Jio/'Habeeb'


००००००००००००००००००











७१८. सोचता था एक दिन तुम पास मेरे आओगे—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ९-२-०७ को प्रेषित


सोचता था एक दिन तुम पास मेरे आओगे
क्या खबर थी प्यार में रुसवाइयां करवाओगे

राह में जो भी सुना मैं वो बयां कैसे करूं
न ही मैं कह पाऊंगा और न ही तुम सुन पाओगे

हैं जवां चरचे तुम्हारी रंग भरी रात के
तुम अगर उन को सुनोगे शर्म से गड़ जाओगे

सुन के वो किस्से अजब से चुप भला कैसे रहूं
मुझ को आती है शरम तुम भी सनम शरमाओगे

है ख़लिश बेहतर कि कर दें तर्क किस्सा प्यार का
क्या तुम्हें समझाऊंगा क्या तुम मुझे समझाओगे.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ फ़रवरी २००७







७१९. लोग कहते हैं कि तेरा प्यार झूठा है सनम

लोग कहते हैं कि तेरा प्यार झूठा है सनम
हों वो शायद ठीक पर मुझ को अभी तक है भरम

झूठ था क्या चान्द जो बन के गवाह देखा किया
पूछ कर दिल से बता क्या झूठी थी तेरी कसम

इक ज़माना था कि हर ख्वाहिश पे छोटी प्यार की
थे करम तू ने किये, मैंने किये तुझ पर करम

ग़र पता हो तो बता मुझ को समझ आता नहीं
सच थी वो दरयादिली थी या सच हैं ये तेरे सितम

क्या मिला कितना मिला किस को ख़लिश इस प्यार में
क्या मिलेगा सोच कर बस हो गये बरबाद हम.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
९ फ़रवरी २००७






७२०. मैं चला जाऊंगा दुनिया से कहीं—१०-२-०७ की (गैर-मुरद्दफ़) गज़ल, ई-कविता को १०-२-०७ को प्रेषित


मैं चला जाऊंगा दुनिया से कहीं
लौटना न हो जहां से बस वहीं

क्या करूंगा जी के मैं उन के बिना
वे नहीं तो इस जहां में कुछ नहीं

याद जब भी दिल में उन की आ गयीं
रात भर आंखों से बहती ही रहीं

भूल जाना दोस्त सारी बात वो
जो कभी गलती से हैं कड़वी कहीं

न रहूंगा मैं ख़लिश पर गीत ये
गूंजते होंगे किसी दिल में यहीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० फ़रवरी २००७










७२१. रिश्ता तो है वही न वो गहराइयां रहीं—११-२-०७ की गज़ल, ई-कविता को ११-२-०७ को प्रेषित--RAMAS


रिश्ता तो है वही न वो गहराइयां रहीं
तुम साथ हो मेरे मग़र तनहाइयां रहीं

सैलाबे-सहरा ज़िन्दगी में इस कदर आया
न प्यार का मंज़र रहा न वादियां रहीं

चाहा था रंगो-नूर की दुनिया मुझे मिले
किस्मत में चार सू मग़र बरबादियां रहीं

दो गाम चल के खो गया मेरा वो हमसफ़र
सौगा़त में उसकी मग़र रुसवाइयां रहीं

साकी ने तो मुझको बुलाया था मग़र ख़लिश
खाली रहा प्याला भरी सुराहियां रहीं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० फ़रवरी २००७









७२२. गीत लिखता हूं इसी उम्मीद पर—१४-२-०७ की गज़ल, ई-कविता को १४-२-०७ को प्रेषित


गीत लिखता हूं इसी उम्मीद पर
जायेंगे दिल में किसी के ये उतर

कुछ तज़ुर्बे और कुछ एहसास हैं
मैं जिन्हें गज़लों में करता हूं नज़र

कायदा-ए-शायरी आता नहीं
हूं मैं अपनी गलतियों से बेखबर

आंख में सुन के जो आ जाये नमी
जान जाऊंगा गज़ल है बा-असर

मैं न दुनिया में रहूंगा एक दिन
काश हो जायें गज़ल मेरी अमर

दिल के टुकड़े है खलिश मेरी गज़ल
चाहे इन में शायराना हो कसर.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० फ़रवरी २००७










७२३. दिल में किसी का दर्द लेके चल रहा हूं मैं—१३-२-०७ की गज़ल, ई-कविता को १३-२-०७ को प्रेषित--RAMAS


दिल में किसी का दर्द लेके चल रहा हूं मैं
लब पे है जो मुस्कान, केवल छल रहा हूं मैं

वो दिन न आयेगा कभी पाऊंगा जब क़रार
खुद अपने दिल की आग से ही जल रहा हूं मैं

उम्मीदे-वफ़ा है मुझे यूं बेवफ़ा से एक
सीने पे खु़द अपने ही मूंग दल रहा हूं मैं

न दिल में हैं जज़्बात न होठों पे कोई बात
एक बुते-बेज़ुबान में ज्यों ढल रहा हूं मैं

दिन-रात ग़म ने खोखला यूं कर दिया ख़लिश
ज़र्रा-ज़र्रा करके भीतर से गल रहा हूं मैं.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१० फ़रवरी २००७










७२४. रात की कालिमा घोर होती गयी—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को ११-२-०७ को प्रेषित


रात की कालिमा घोर होती गयी
फिर ढली चान्दनी भोर होती गयी
प्रश्न मन में उठे पर न उत्तर मिला
गीली मेरी नयन कोर होती गयी

नि:सहाय हुई हाथ मलती रही
मैं अन्धेरे में रेखायें पढ़ती रही
रात भर मैं पड़ी यह रही सोचती
वे बता देते क्या मेरी गलती रही

मौन मैं भी रही मौन वे भी रहे
भाव आते रहे भाव जाते रहे
एक ज्वाला उधर उन के मन में उठी
अश्क मेरी भी आंखों से बहते रहे

पौ फटी दो थके नैन मुन्दते गये
भाव स्तम्भित हुए अश्रु थमते गये
रात पहले भी बीतीं बहुत इस तरह
मेरे जीवन के दिन यूं गुज़रते गये.

महेश चन्द्र गुप्त खलिश
११ फ़रवरी २००७










७२५. क्यों तुम ग़मे-दिल दिखा रहे हो—१२-२-०७ की गज़ल, ई-कविता को १२-२-०७ को प्रेषित--RAMAS


क्यों तुम ग़मे-दिल दिखा रहे हो
नुमाइशे-ग़म लगा रहे हो

न कोई इनको पौंछेगा आ कर
क्यों मुफ़्त आंसू बहा रहे हो

नहीं है कोई जो सुननेवाला
क्यों हाल ज़बरन सुना रहे हो

तुम्हीं तो ग़म के नहीं हो मारे
क्यों शोर इतना मचा रहे हो

लकी़र हाथों में जो भी लाये
उन्हीं को अब तक निभा रहे हो

जो जा चुका उसको याद करके
क्यों ज़ुल्म अपने पर ढा रहे हो

फिर ढूंढ लो हमसफ़र कोई तुम
चले अकेले क्यों जा रहे हो

ख़ता अग़र कर गया कोई तो
सज़ा ख़लिश तुम क्यों पा रहे हो.


महेश चन्द्र गुप्त खलिश
१२ फ़रवरी २००७

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from Ripudaman Pachauri <pachauriripu@yahoo.com>
date Feb 12, 2007 9:56 PM

इस भुवन में है कोइ, जो रोया ना हो ?
या हृदय की शान्ति खोया ना हो ?
पीड अजनबी को बोलना ही श्रेष्ठ है, कि
आभास अपने प्रियजनो को किन्चित्त ना हो !

-रिपुदमन

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