Hindi poems in Hindi script, mainly ghazals, Serial no. 1-700 |
१. मर्दों के लिये ख़तरा—ईकविता, २६ जुलाई २००८ उठाएं अग़र तलवार हम उनको नहीं मंज़ूर कमसिन से नाज़ुक हाथ हों ये भी नहीं मंज़ूर नज़रें मिला के तन के अग़र बात हम करें बनती है बड़ी मर्द ये इलज़ाम हम सहें नज़रें झुका, पलकें गिरा, नाज़ुक सी हम रहें ख़तरा हैं मर्दों के लिये फिर भी यही सुनें मेरे ख़ुदा क्या चीज़ है तूने बनायी मर्द ऐसी हों या वैसी हों, हैं उसके लिये सरदर्द. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ३ मार्च २००३ MARDON KE LIYE KHATARAA, Uthaaen agar talwaar ham, un ko nahin manzoor; kamsin se naazook haath hon, ye bhi nahin manzoor. Nazarein milaa ke, tan ke agar, Baat ham karein; Banati hai badi mard, Ye ilzaam ham sahein. Nazarein jhukaa, palkein giraa, Naazook si ham dikhein, Khataraa hain mardon ke liye, Phir bhi yahee sunein. Mere khudaa kya cheez hai, Toone banayee mard; Aisi hon, ya vaisi hon , Hain us ke liye sar-dard. M C gupta, 03-03-03 २. हमें न ये खबर थी एक दिन ऐसा भी आयेगा—RAS—ईकविता, ११ अक्तूबर २००८ हमें न ये खबर थी एक दिन ऐसा भी आयेगा कि हम पर्दानशीं हैं ये ज़माने को न भायेगा न वो गुस्ताख इशारे, न वो बदमस्त निगाहें, सभी इन ज़िल्लतों से इक यही परदा बचायेगा झलकता है जो औरतपन हसीं साये में चिलमन के अरे नादान मर्दो कौन ये तुमको बतायेगा हुयी आज़ाद है औरत वो जो चाहेगी पहनेगी ज़बर्दस्ती करेगा कोई तो ठोकर ही खायेगा नसीहत चाहिये हमको नहीं पोशाक के बारे अग़र मर्ज़ी से पहनेंगी तो पर्दा रास आयेगा कभी औरत नहीं दुश्मन हुयी बुरके-ओ-घूंघट की ये परदा हुस्न में उसके इज़ाफ़ा और लायेगा न तुम इतराओ अपनी फ़ितरतों पर इस तरह मर्दो बखूबी जानती हैं क्यों न पर्दा तुमको भायेगा अग़र परवाह हमारी है तो पूछो अपने दिल से कब दहेजी मौत का मसला ख़लिश तुमको सतायेगा. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ५ मार्च २००३ ००००००००००००० Saturday, 11 October, 2008 11:36 PM From: "Vinay k Joshi" vinaykantjoshi@yahoo.co.in बहुत अच्छा लगा | आपके पुराने खजाने में से यदा कदा कोई मोती मिलता रहे तो अच्छा है | सादर, विनय के जोशी ००००००००००००००० ३. जहां है प्यार पर कायम सभी से प्यार तुम करना--RAS जहां है प्यार पर कायम सभी से प्यार तुम करना सभी से बोल कर मीठा जगत-व्यापार तुम करना ये भारतवर्ष है मेरा, मोहब्बत पाक से भी है मुझे लगते हैं सब अपने, नहीं नफ़रत किसी से है अगर नफ़रत ही करनी है तो अपने आप से करना बहू ला कर जलाने के घृणित बर्ताव से करना करे नीलाम बेटे को करो उस बाप से नफ़रत गिराये गर्भ से बेटी करो उस सास से नफ़रत कबीरी बोल हैं प्यारे सदा तुम याद ये रखना बुरा कोई नहीं जग में, बुरा है सिर्फ़ मन अपना. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ६ मार्च २००३ ३A. भरम या अदा—RAS—ई कविता, ३० नवंबर २००८ न हम से मुख़ातिब होते हैं न अपना हुस्न छिपाते हैं क्या कहिये उन की फ़ितरत को न आते हैं न जाते हैं उठते होंगे उन के दिल में भी अरमां तो पुरज़ोर मगर वो शर्म-हया के मारे हैं कुछ कहने से शर्माते हैं वो पूछ लें ख़ुद अपने दिल से और पूछ के हम को बतला दें दिल को हम कैसे बहलायें जब ख़्वाबों में तड़पाते हैं यूं तो बदनाम बहुत हो कर निकले हैं उन के कूंचे से पर दिल में हैं लाचार बहुत, मुड़-मुड़ कर वापस आते हैं है कौन ख़ता जो कर बैठे इतना तो बतला दें हम को मिलना न अग़र वो चाहते हैं तो क्यों ख्वाबों में आते हैं तदबीर कोई ऐसी होती हम दिल की बात समझ पाते दिल ही दिल में वो भी हमसे क्या प्यार कभी फ़रमाते हैं है सिर्फ़ भरम मेरा या फिर इसमें है ख़लिश अदा उन की दामन उन का गिर जाता है या अपने आप गिराते हैं. महेश चन्द्र गुप्त खलिश १३ मार्च २००३ नोट—इस कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद यहाँ देखें http://www.writing.com/main/view_item/item_id/1280017#sw ०००००००००००००० Sunday, 30 November, 2008 3:38 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" खलिश साहब,बहुत खूब! बधाई! "उज्र आने में भी है और हमें बुलाते भी नहीं बाइसे तर्क़े मुलाक़ात बताते भी नहीं खूब पर्दा है, चिल्मन से लगे बैठे हैं साफ़ छुपते भी नहीं नज़र आते भी नहीं" --दाग़ सस्नेह सीताराम चंदावरकर FANCY OR GESTURE?—Bilingual poem. "FANCY OR GESTURE?-bilingual,award winner" , 13 March 2003 [Uncertainty in the lover's mind regarding real intentions of the beloved] Neither she conceals her charm, Nor does her face unveil; What to make of this and how Should I, towards her, feel? I know that in the heart she Has a burning desire, But out of her modesty She suppresses her fire. I wish she would ask herself And, tell me what to do, When she comes in my dreams and Torments me all night through. I have incurred infamy In love and this I rue; Yet, I cannot forget her, This is very much true. Why is she angry with me? Let her tell me but once: If she won’t come to me why, In my dreams, she returns? Whether she loves me or not, How shall I ever know? Is it that through mock anger, Her love she wants to show? Is it my fancy her veil Slips down innocently? Or is it a gesture that’s Done by her prudently? * Written in abcb 7-6-7-6 format • Originally written as item no. 761664, which was deleted 19 April 2005 and substituted by entry no. 342109 in the book BILINGUAL POETRY "BILINGUAL POETRY BOOK" . Re-posted as staic item on 21 June 2007. M C Gupta 13 March 2003 ***************************************** BHARAM YA ADAA na ham se mukhaatib hote haiM, na apanaa husn Cipaate haiM kyaa kahiye un kee fitarat ko, na aate haiM, na jaate haiM uThate hoMge unake dil meM bhee aramaaM to pur-zor magxar vo sharm, hayaa ke maare haiM kuC kahane se sharamaate haiM vo pooC leM khud apane dil se, aur pooC ke ham ko batalaa deM dil ko ham kaise bahalaayeM, jab khwaabon mein tadxapaate haiM yooM to badanaam bahut ho kar nikale haiM unake kooche se Par dil meM haiM laachaar bahut, muDx muDx kar vaapas aate haiM Hai kaun khataa jo kar baiThe, itanaa to batalaa deM ham ko Milana na agxar vo chaahate haiM to kyoM khxvaaboM meM aate haiM tadabeer koee aisee hotee, ham dil kee baat samajh paate Dil hee dil meM vo bhee hamase kyaa pyaar kabhee faramaate haiM hai sirf bharam meraa yaa phir isameM hai khxalish adaa unakee daaman unaka gir jaataa hai yaa apane aap giraate haiM. MC Gupta ‘Khalish’ 13 March 2003 ४. वो सुबह कभी तो आयेगी,--RAS-- १ अप्रेल २००३--ईकविता, २३ अप्रेल २००८ [Published at http://kavimanch.blogspot.com/]--submitted in Nov. 2008 वो सुबह कभी तो आयेगी जब दुनिया का रंग बदलेगा रातों की सियाही जायेगी सूरज का उजाला उंडलेगा वो सुबह कभी तो आयेगी झूमेगी हवा आज़ादी से जब हौंठ तराने गायेंगे फिर मिलेंगे दिल बेताबी से वो सुबह कभी तो आयेगी मन में न किसी का डर होगा जब ख़ौफ़ ज़ुबां न खायेगी मन चाहा एक डगर होगा वो सुबह कभी तो आयेगी मर्द औरत में न फ़रक होगा बहुओं को जलाने का जिस दिन दुनिया में नहीं करतब होगा वो सुबह कभी तो आयेगी जब ख़ून की होली न होगी बच्चे न भूखे सोयेंगे सपनों से नींद भरी होगी वो सुबह कभी तो आयेगी अमरीका जब पछतायेगा मिट्टी के घरों पर अम्बर से बम-गोले न बरसायेगा वो सुबह कभी तो आयेगी होगा जब राज गरीबों का शाहों के महल ढह जायेंगे मुफ़्ती का नहीं होगा फ़तवा वो सुबह कभी तो आयेगी जब एक ख़ुदा सब का होगा न यीशु, राम और अल्लाह से लड़ने का सबब पैदा होगा वो सुबह कभी तो आयेगी सब मिल कर रहना सीखेंगे सब एक खु़दा के बंदे हैं ये धर्म निभाना सीखेंगे. महेश गुप्त ख़लिश १ अप्रेल २००३ [ईराक युद्ध के तेरहवें दिन लिखी गयी कविता. युद्ध २० मार्च को आरम्भ हुआ था] WO SUBAH KABHI TO AYEGI Wo subah kabhi to ayegi, Jab duniya ka rang badalega; Raaton ki siyahi jaayegi Sooraj ka ujaala undalega. Wo subah kabhi to ayegi Tairegi hawa azaadi se; Jab honth taraane gaayenge, Dil mileinge phir betaabi se. Wo subah kabhi to ayegi Man mein na kisi ke dar hoga; Jab juban khauf na khaayegi, Man chaaha ek dagar hoga. Wo subah kabhi to ayegi Mard aurat mein na faraq hoga; Bahuon ko jalaane ka jis din, Duniya mein na kartab hoga. Wo subah kabhi to ayegi Jab raj gareebon ka hoga; Shaahon ke mahal dhah jaayenge, Mulla ka nahin fatwa hoga Wo subah kabhi to ayegi Jab khoon ki holii na hogi; Bacche na bhookhe soyenge Sapnon se neend bhari hogi. Wo subah kabhi to ayegi Amrika jab pacchtaayega; Mitti ke gharon par ambar se Na bam gole barsaayega. Wo subah kabhi to ayegi Jab ek khuda sab ka hoga; Na Yeeshu, Ram aur Allah se Ladne ka sabab paida hoga. Wo subah kabhi to ayegi Mil kar sab rahana seekheinge; Sab ek khudaa ke bande hain Ye dharma nibahna seekheinge. M C Gupta 1 April 2003 [Thirteenth day of US war on Iraq, which started on 20 March 2003] ००००००००००००००००००० A DAY WILL COME: award winner –1243040 in 1241894 WAR POEMS AND ARTICLES, Also, 352287 in "BILINGUAL POETRY BOOK" BILINGUAL POETRY 1 April 2003 [Poem written on thirteenth day of Iraq war] A day will come when the black world Will present a different hue; Darkness of night will be no more, And sun will all corners imbue. A day will come certainly when, Freely the winds of love will blow; When every lip will sing a song, And with love every heart will glow. A day will come certainly when Terror will haunt us no longer; When fear will not subdue the speech, None will be a mischief monger. A day will come certainly when Equal will be men and women; When girls will be no longer killed, Because they bring evil omen. A day will come certainly when The meek will inherit the earth; When royal palaces will fall, Mullah’s fatawah will not be heard. A day will come certainly when Blood baths and war there will be none; When children will not sleep hungry, When their dreams will be full of fun. A day will come certainly when The US will be repentant; When no longer it will shower Bombs on the desert continent. A day will come certainly when All men will worship just The God; When name of Christ, Allah or Ram Will not make the people distraught. A day will come certainly when In peace will live all, big or small; When in their heart they will believe Children of one God are we all. * Written in abcb 8-8-8-8 format * Written on the thirteenth day of the US war on Iraq *Awarded Honorable mention prize in the contest "Gangsta's Paradise Contest" by Geja got an egg Tnx Laart1 * Son preference is found in many societies in the world giving rise to practices like Pre-conception sex selection, Female foeticide and Female infanticide. As a consequence, birth of a female child is often unwelcome. • Mullahs are Muslim religious leaders who issue fatawahs or religious edicts on not only religious but also social and political issues and such fatawah or edict is supposed to be binding on Muslims. It is not uncommon for the edicts to stand in the way of progress of Muslim societies towards modernity. 1 April 2003 [Initially posted as independent item no. 840284, which was deleted on 22 March 2005 and entry no. 352287 in book "BILINGUAL POETRY BOOK" was posted in its place. Reposted as the present independent item on 5 April 2005. ५. तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे –RAS—ईकविता १३ अक्तूबर २००८ तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे इतनी सनम आज बदहोश क्यों हो सिहरती, सिमटती, खामोश क्यों हो सपने बिगड़ के संवरते रहेंगे नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे कह के तुम्हें कोई नागिन पुकारे कहता रहे, हैं ज़हर के इशारे इलज़ाम सर अपने धरते रहेंगे नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे यहां मैं, वहां तुम, बड़ी दूरियां हैं राहे-मोहब्बत में मज़बूरियां हैं न हार मानेंगे चलते रहेंगे नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे. ज़माना भले लाख बंदिश लगा ले पांवों में चांदी की ज़ंजीर डाले हिम्मत न छोडेंगे, लड़ते रहेंगे नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे तुम्हें प्यार करते हैं करते रहेंगे नज़र के इशारे पे मरते रहेंगे. महेश गुप्त ख़लिश ६ अप्रेल २००३ ६. किसे बतलायें कि बरबाद जीवन का सबब क्या है—RAS-- ईकविता १४ अक्तूबर २००८ किसे बतलायें कि बरबाद जीवन का सबब क्या है नहीं जब दिल ही सीने में कहें क्यों दिल में अब क्या है बड़े हम शाद फिरते थे उन्हें पाया किये जब हम बयां कैसे करें असलियत-ए- शीरीं-ए-लब क्या है बहुत हैं दूर अब पहले सदा पहलू में रहते थे बताये कोई हमको इश्क करने का ये ढब क्या है कसम और वायदे ये ज़िंदगी भर साथ रहने के सभी बेकार हैं, झूठा भला ये शोर सब क्या है अग़र रुसवाइयां ही हैं ख़लिश किस्मत में आशिक की ज़रूरत इश्क करने की बताये कोई तब क्या है. महेश गुप्त ख़लिश ७ अप्रेल २००३ ००००००००००० Tuesday, 14 October, 2008 10:09 PM From: "Shyamal Kishor Jha" shyamalsuman@yahoo.co.in खलिश साहब, अग़र रुसवाइयां ही हैं ख़लिश किस्मत में आशिक की ज़रूरत इश्क करने की बताये कोई तब क्या है. भाई वाह। बहुत सुन्दर। गुस्ताखी माफ। आपके सुर में सुर मिलाते हुए ये पंक्तियाँ- सभी कहते हैं कण कण में खुदा बसते हैं दुनिया में। मगर अन्याय भी होते बताये कोई रब क्या है? ००००००००००००० ७. रात-दिन करते रहे बस एक खत का इंतज़ार---RAS—ईकविता १८ अक्तूबर २००८ रात-दिन करते रहे बस एक खत का इंतज़ार न जवाब आया कोई, हम ख़्वाब बुन बैठे हज़ार ख़्वाब की दुनिया लुटी इसका नहीं अफ़सोस पर वक्ते-रुखसत देख भी पाये नहीं हम रुख-ए-यार यूं गुज़र जाते हैं वो भूले से मिल जायें अग़र प्यार की दिल पर न आयी ज्यों कभी रंगे-बहार आयी पतझड़ धुल गये वो चाहतों के रंग सब न रही उसकी निशानी न रहा है अब वो प्यार क्या गिला किससे करें जो था लकीरों में, मिला थी तमन्ना फूल की, पाये ख़लिश हैं सिर्फ़ खार. महेश गुप्त ख़लिश १५ अप्रेल २००३ ०००००००००००००००००० Saturday, 18 October, 2008 1:12 PM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com ख़्वाब की दुनिया लुटी इसका नहीं अफ़सोस पर वक्ते-रुखसत देख भी पाये नहीं हम रुख-ए-यार" अच्छी लगीं ये पंक्तियां खलिश जी ! सादर शार्दुला ०००००००००००००००० ८. बला का हुस्न है ये आपका, कुदरत ख़ुदा की है—RAS-- ईकविता १९ अक्तूबर २००८ बला का हुस्न है ये आपका, कुदरत ख़ुदा की है इबादत की है कुदरत की, नहीं कोई ख़ता की है कहां आप और कहां हम, आपके काबिल नहीं चाहे मग़र बनने की लायक आपके कोशिश सदा की है नहीं थे आप जब, ये ज़िंदगी बेकार लगती थी जो देखा आपको जीने की हमने फिर दुआ की है सहारा सिर्फ़ मय का था हमें तनहाई में अब तक मिले हैं आप तो अब मय को हमने अलविदा की है कबूलें आप हमको या ख़लिश इस दर से ठुकरा दें इबादत हुस्न के दरबार में हमने अदा की है. महेश गुप्त ख़लिश १७ अप्रेल २००३ ९. औरत का सवाल, April 17,2003, ईकविता, २६ जुलाई २००८--RAS तुम आदम जात के क्यों नाम को बेकार करते हो यहां हव्वा की बेटी का खुला व्यापार करते हो अग़र हो मर्द तो आंखें मिलाओ आज तुम मुझसे तमाशा इस तरह तुम क्यों सरेबाज़ार करते हो किया क्या है ज़रा मुझको बताओ, पूछती हूँ मैं चढ़ा बोतल नशीली गालियों का वार करते हो मैं हूँ औरत मुझे औरत ही रहने दो अरे मर्दो मेरे पर्दे में रहने को बहुत दुश्वार करते हो धरूं मैं रूप चंडी का, निकल आऊं मैं पर्दे से मुझे इस बात पर तुम क्यों ख़लिश लाचार करते हो. महेश गुप्त ख़लिश १७ अप्रेल २००३ WOMAN’S CHALLENGE—"WOMAN’S CHALLENGE: bilingual poem" , 17 April 2003 [Woman, subdued for centuries, confronts man.] Man ought to respect woman, Else he loses respect. Disrespect to womanhood Renders manhood suspect. Why shout at me or hit me? Why on me all this try? Come and be a man indeed, Look at me in the eye. Tell me what upsets you so? What foul deed have I done? Why cork off a bottle and Call names in drunken fun? I better be a woman, It’s better I be veiled. God forbid if against you I be fully revealed. If I come in the open, And assume Chandi shape, You will rue your life that day; Hell fire will be your fate. * Written in abcb 7-6-7-6 format. * "Heaven has no rage like love to hatred turned/ Nor hell a fury like a woman scorned. [William Congreve in The Mourning Bride, 1697]. * Translated from my Hindi ghazal, AURAT KA SAVAAL. * Chandi--- A Hindu goddess, who is the embodiment of power, especially woman power. She personifies invincible womanhood. She, in different forms, is also known as Parvati, Uma, Durga, Kali, Jagadamba etc. * Initially posted as item 760528, substituted on 12 April 2005 by entry no. 340853 in the book "BILINGUAL POETRY BOOK" . The current static item was posted on 9 April 2007. M C Gupta 17 April 2003 Kyon aadam jaat kaa tum naam yuun bekaar karte ho Kyon havvaa ki betii ko be-ijjatdaar karte ho Jo ho tum mard to aankhen milaao aaj tum mujh se Tamaashaa is tarah tum kyon sare baazaar karte ho. Kiaa kyaa hai jaraa mujh ko bataao, poochhati huun main, Chadhaa botal galoz-o-gaali ka, vyaapaar karte ho. Mein aurat huun mujhe aurat hi rahane do zamaane tum, Kyon parde mein meraa rahnaa are dushwaar karte ho. Thaan luun ruup Chandii kaa nikal aauun main parde se Mujhe is baat par kyon tum Khalish laachaar karte ho M C Gupta 17 April 2003 *********************************** १०. जो आशिक हैं कभी वो इश्क का दावा नहीं करते—RAS—ईकविता, २० अक्तूबर २००८ जो आशिक हैं कभी वो इश्क का दावा नहीं करते भले मंज़िल न मिल पाये कभी हारा नहीं करते जिया करते हैं आशिक सिर्फ़ ख़्वाबों के भरोसे ही मग़र ख़्वाबों पे अपना हक वो जतलाया नहीं करते वो अपने साज़े-दिल पे प्यार का नग़मा सुनाते हैं कोई दोहराये उसको ऐसा इशारा नहीं करते उठाते हैं कई तोहमत, ज़िगर पर ज़ख़्म खाते हैं मग़र वो राज़े-दिल खुल जाये, गवारा नहीं करते इज़ाफ़ा प्यार में कुछ और होता है जुदाई से जुदा हो जायें तो वो ग़म से घबराया नहीं करते वो अपने फ़र्ज़ की धुन में चले जाते हैं मस्ताने वफ़ा करके मिले धोखा तो पछताया नहीं करते कभी दिल टूट जाये तो छिपाते हैं वो अश्कों को ज़माने की नज़र में ग़म का दिखावा नहीं करते भले हो जायें वो बरबाद राहे-इश्क में फिर भी ख़लिश इलज़ाम वो दूजे पे लगाया नहीं करते. महेश गुप्त ख़लिश ३० अप्रेल २००३ ११. DHANDHA—deleted १२. तन्हाई में ज़माने के सभी ग़म भूल जाता हूँ—RAS, ईकविता, २१ अक्तूबर २००८ तन्हाई में ज़माने के सभी ग़म भूल जाता हूँ मैं सबसे दूर होता हूँ तो अपने पास आता हूँ जो मुमकिन हो नहीं सकते कभी देखे थे कुछ सपने कभी वो याद आते हैं तो बस आंसू बहाता हूँ वफ़ा का बेवफ़ाई से यहां अंज़ाम मिलता है वफ़ा का नाम सुनता हूँ तो केवल मुस्कुराता हूँ मैं दीवाना हूँ ये तोहमत मुझे दुनिया लगाती है मग़र सच है कि इस दीवानगी में चैन पाता हूँ जो मातम दिल पे आ जाये कभी तो दिल लगाने को मैं यादों का तसव्वुर में ख़लिश मेला लगाता हूँ. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश २ मई २००३ 00000000000 Wednesday, 22 October, 2008 7:59 AM From: "smchandawarkar@yahoo.com" खलिश साहब, बहुत खूब! "मैं दीवाना हूं यह तोहमत मुजे दुनियां लगाती है मगर सच है कि इस दीवानगी से मैं चैन पाता हूं" क़तील शिफ़ाई का शेर है "चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी वर्ना हम ज़मानेभर को समझाने कहां जाते" सस्नेह सीताराम चंदावरकर ०००००००००००००००० १३. Asliyat aur Insaaniyat, 7 May 2003--deleted १४. ASLI AUR NAKLI, 7 May 2003—deleted १५. हम अच्छे हैं या बुरे, ज़ुबां से अपनी कुछ न कहते हैं—RAS--ईकविता, २२ अक्तूबर २००८ हम अच्छे हैं या बुरे, ज़ुबां से अपनी कुछ न कहते हैं जो भला किसी का हो जाये ऐसा कुछ करते रहते हैं अपनी मरज़ी से नहीं किसी को दुख है पहुंचाया हमने इलज़ाम ज़माना देता है जो लब सी कर हम सहते हैं जो मेहनत करते हैं उनको ज़ुल्म और सितम से क्या डरना गो दुनिया ग़म का दरया है मस्ती से इसमें बहते हैं सपनों के महल सजायें क्यों, दो रूखी रोटी काफ़ी हैं ख़्वाबों का क्या है वो तो नित बनते हैं, बन के ढहते हैं न वक्त टिका है कभी ख़लिश, दुनिया तो पल-पल बदलेगी नादां हैं जो परिवर्तन से नाहक मन ही मन दहते हैं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ७ मई २००३ ००००००००००००००००० Wednesday, 22 October, 2008 8:11 AM From: "Shyamal Kishor Jha" shyamalsuman@yahoo.co.in खलिश साहब, आपकी रचना हमेशा की तरह अच्छी है। ज्यादा क्या कहूँ? अपनी तुकबंदी की आदत से मजबूर पेश कर रहा हूँ- जमाने के सितम सहते हमारा मन भी थक जाता। हवा के रूख पे हो निर्भर उसी के साथ बहते हैं।। सादर श्यामल सुमन 09955373288 मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं। कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।। www.manoramsuman. blogspot. com ०००००००००००० Wednesday, 22 October, 2008 9:45 AM "Rakesh Khandelwal" rakesh518@yahoo.com महेशजी, यह पंक्तियां आप और आपकी रचना को समर्पित जीवन मंथन ने जितना भी दिया हलाहल हमें भेंट में हमने उसको मुस्कानों की नित्य सुधा में बदल दिया है ये भी कर सकते थे हम जो दुनिया ने है दिया तजुर्बा उसे उसी के रंगों रँग कर वापिस दुनिया को लौटाते कड़वाहट से भरी पीर में डुबो डुबो अपब्ने शब्दों को हम भी आंसू की सरगम के स्वर में उन्हें सजा कर गाते लेकिन जितने पाठ पढ़ा कर गई धरोहर संस्कॄतियों की उसने सिखलाया कांटों में ही गुलाब केवल खिल पाते और अँधेरा जितना पी लेते हैं दॄग इक काल निशा के उतनी अधिक रोशनी लाकर प्राची के आँगन रख जाते इसीलिये हर एक निबोली उगी नीम की चुन चुन हमने उसे पीतवर्णी खिन्नी का इक मधुरिम ला स्पर्श दिया है ०००००००००००० १६. मंज़िल का निशां मालूम नहीं--RAS--ईकविता, २३ अक्तूबर २००८ मंज़िल का निशां मालूम नहीं जायेंगे कहां मालूम नहीं आये तो हैं महफ़िल में पर महफ़िल की ज़ुबां मालूम नहीं लगते हैं पराये क्यों हमको दिल के मेहमां मालूम नहीं क्यों प्यार में जलने वालों पर हंसता है जहां मालूम नहीं है कौन हमारा दुश्मन और है दोस्त यहाँ मालूम नहीं बदले कब ग़म और गर्दिश में ख़ुशियों का समां मालूम नहीं ये दुनिया है इक कै़द ख़लिश कब छूटे जां मालूम नहीं. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ मई २००३ ०००००००००००००० Thursday, 23 October, 2008 9:56 AM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com क्या बात है खलिश जी, आज आप दुखी लग रहे हैं। अच्छी लगी गजल ! सादर, शार्दुला ०००००००००००००००० Thursday, 23 October, 2008 9:11 AM From: "T. Ritesh" toritesh.tripathi@gmail.com badhiyaa hai sir ji,,,bahut badhiyaa,,, ००००००००००००००००० Thursday, 23 October, 2008 11:28 PM From: "Banwari lal Gaur" blgaur36@yahoo.co.in खलिश जी ! " मंजिल का निशां मालूम नहीं " बहुत सुंदर ग़ज़ल है इ बधाई ००००००००००० From: Anoop Bhargava <anoop_bhargava@ yahoo.com> Date: Thursday, October 23, 2008, 2:29 PM खलिश जी: पूरी गज़ल और खास तौर पर यह शेर बहुत अच्छा लगा : ये दुनिया है इक कै़द ख़लिश कब छूटे जां मालूम नहीं. सादर ०००००००००००००००००००००० Thursday, 23 October, 2008 3:07 PM "Ms Archana Panda" <panda_archana@yahoo.com> क्या बात है ! खालिश्जी , बहुत सुंदर | थोड़ा sad है पर बहुत ही अच्छी रचना है | Keep it up ! -अर्चना ०००००००००००००० [FAULTY ROMAN VERSION] Manzil ka nishaan maaluum nahin. Jaaeinge kahaan maaluum nahiin Aa baithe hain mahfil mein magar, Mahfil ki jubaan maaluum nahin. Jaane waale nahiin aate magar Jaate hain kahaan maluum nahin Lagte hain paraaye ham ko kyon Dil ke mehmaan maluum nahin Kyon pyaar mein jalne waalon par Hanstaa hai jahaan maluum nahiin MC Gupta 'Khalish' 15 May 2003 १७. उनका तसव्वुरे-विसाल कैसे आ गया—RAS—ईकविता, २७ अक्तूबर २००८ उनका तसव्वुरे-विसाल कैसे आ गया होठों पे आज दिल का हाल कैसे आ गया वो याद आये तो भला अश्कों के साथ-साथ चेहरे पे ये रंगे-जमाल कैसे आ गया वो डालते नहीं थे हमपे भूल के नज़र फ़ितरत में उनकी ये कमाल कैसे आ गया था कल तलक पर्दानशीं, पर्दा उतार कर ये हुस्न बेमिसाल आज कैसे आ गया सहरा में घर बना चुके तो एक बार फिर वादी-ओ-चमन का ख़याल कैसे आ गया जब मौत को गले लगा चुके तो फिर ख़लिश कुछ और जीने का सवाल कैसे आ गया. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश १५ मई २००३ 000000000000000 Monday, 27 October, 2008 1:15 PM From: "Sharad Tailang" sharadtailang@yahoo.com एक एक शे’र काबिले तारीफ़ है । वाह वाह ! शरद तैलंग ०००००००००००००००००० Monday, 27 October, 2008 2:05 PM From: "shar_j_n" shar_j_n@yahoo.com वाह ! Yeh hui na baat :) ०००००००००००००००० UN KA TASAVVUR-E-VISAAL KAISE AA GAYAA, 15 May 2003—DISTORTED OLD VERSION un ka tasavvur-e-visaal kaise aa gayaa Hothon pe aaj dil ka haal kaise aa gayaa Sahraa mein ghar banaa chuke to aaj khwaab mein, Vaadii-e-chaman ka khayaal kaise aa gaya Jab shauq se hai maut ko gale lagaa liyaa, Kuchh aur jiine ka sawaal kaise aa gayaa Aayee jo un ki yaad to ashkon ke saath saath Chehre pe ye rang-e-jamaal kaise aa gayaa Wo daalte nahiin the ham pe bhuul kar nazar Fitrat mein un ki ye kamaal kaise aa gayaa Jo ab talaq pardaa nashiin ham se rahaa Khalish Be-pardaa husn be-misaal kaise aa gayaa. 15 May 2003 NA-MUMKIN Jo dil mein hai use pahluu bithaa saknaa nahin mumkin Jo pahluu mein hai us ko dil mein laa saknaa nahin mumkin Dilon ke ishq mohabbat ke masle hain yuun pechiidaa Inhein lafzon se kahnaa yaa samajh saknaa nahin mumkin Zubaan merii bayaan-e-galt se parhez kartii hai Haqiikat ko magar hothon se kah saknaa nahin mumkin Bahut duniyaa ke rang-o-buu ne ab tak mujh ko bharmaayaa Khwaabon khwaahishon se ab bahal saknaa nahin mumkin Bashar azaad apne ko yahaan naa-haq samajhataa hai Raat-o-din kii uljhan se nikal saknaa nahin mumkin Khalish lagtaa nahin ab dil yahaan hafiz khudaa yaaro Duniyaa mein tumharii dil ka lag saknaa nahin mumkin MC Gupta ‘Khalish’ 3 June 2003 १८. मुझे बरबाद रहने दे, सज़ा ये भी मेरी कम है—RAS—ईकविता, २९ अक्तूबर २००८ मुझे बरबाद रहने दे, सज़ा ये भी मेरी कम है तुझे जो ग़म दिये उनसे मेरा ये ग़म कहीं कम है मेरी ख़ुशियों पे तूने वार दीं ख़ुशियाँ सभी अपनी मिटा डालूँ मैं तेरे पर अग़र ये ज़िंदगी, कम है तुझे घेरा ग़मों ने जब शिकन न दिल पे आयी थी वो करके याद ग़म अब धार आंसू की बही, कम है तेरी खातिर मेरे दिल में बताऊं मैं ज़गह क्या है ज़ुबां से कर सकूं तारीफ़ मैं जो भी वही कम है ख़लिश कोई वज़ह होगी वफ़ा तुम न निभा पाये कभी चाहा हमें तुमने, इनायत ये नहीं कम है. महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश ४ जून २००३ एद जी चुके हम बहुत फ़क्त अपने लिये, ग़र जिये अपनी खातिर दुनिया में ग़र हम किसी और के, काम आये न तो फिर जिये क्या जिये हमपे अहसान भारी ज़माने के हैं, न ज़माने की खातिर जिये क्या जिये आज अपना वतन रास आता नहीं, नौजवां चल पड़े आज परदेस को इस वतन में ज़हालत, गरीबी सही, बेवतन की तरह ग़र जिये क्या जिये चाहे आपस में कितनी अदावत रहे, बन चुके हैं जो रिश्ते वो मिटते नहीं ग़ैर से क्या निभाओगे रिश्ते ख़लिश, ग़ैर के घर में जा कर जिये क्या जिये आदमी की हवस क्या कभी कम हुयी, जेब जितनी भरी उतनी खाली रही पैसा पूजे कभी भी ख़ुदा न मिले, पैसे के वास्ते जो जिये क्या जिये प्यार अपने से और अपने दिल से सभी लोग करते हैं, करते रहे हैं सदा प्यार सच्चा जो औरों के दिल से करे, हैं वही जो ख़लिश असलियत में जिये ००००००००००००००००००००००००० जी चुके बहुत फ़क्त अपने लिये, ग़र जिये अपनी खातिर तो फिर क्या जिये हमपे अहसान भारी ज़माने के हैं, न ज़माने की खातिर जिये क्या जिये आज अपना वतन रास आता नहीं, नौजवां चल पड़े आज परदेस को इस वतन में ज़हालत, गरीबी सही, बेवतन की तरह ग़र जिये क्या जिये चाहे आपस में कितनी अदावत रहे, खून के रिश्ते मिटते नहीं बैर से रिश्ते ग़ैरों से बन कर भी बनते नहीं, ग़ैर के घर में जा कर जिये क्या जिये आदमी की हवस क्या कभी कम हुयी, जेब जितनी भरी उतनी खाली रही पैसा पूजे कभी भी ख़ुदा न मिले, पैसे के वास्ते जो जिये क्या जिये प्यार अपने से और अपने दिल से सभी लोग करते हैं, करते रहे हैं सदा प्यार सच्चा जो औरों के दिल से करे, हैं वही जो ख़लिश असलियत में जिये १९. JIINAA KIS KE LIYE, 4 June 2003 Jee chuke hum bahut faqt apne liye, gar jiye apnii khaatir to phir kyaa jiye Hum pe ehsaan bhaarii zamaane ke hain, na zamaane kii khaatir jiye, kyaa jiye Aaj apnaa watan raas aataa nahin, naujawaan chul pade aaj pardes ko Is watan mein zahaalat, gariibii sahii, bewatan kii tarah gar jiye kyaa jiye Chaahe aapas mein kitanii adaavat rahe, khuun ke rishte mitate nahin bair se Rishte gairon se bun kar bhii bunate nahin, gair ke ghar mein jaa kar jiye, kyaa jiye Aadamii kii hawas kyaa kabhii kum huii, jeb jitanii bharii utnii khaalii rahii Paisa puuje kabhii bhii khudaa na mile, paise ke waaste jo jiye kyaa jiye Pyaar apne se aur apne dil se sabhii, log karte hain karte rahe hain sadaa Pyaar sacchhaa jo auron ke dil se kare, hain wahii jo Khalish asliyat mein jiye MC Gupta ‘Khalish’ 4 June 2003 . २० [OLD२१]. जो लोग जान बूझ कर नादान बन गये—sent to HK, ८ जून २००३ जो लोग जान बूझ कर नादान बन गये हम उन की मेहरबानी से नाकाम बन गये हम ने तो दिल दिया मगर बदले में न मिला बस यूं हुआ कि संग-दिल इन्सान बन गये दिल ले के ठुकराने से हासिल क्या तुम्हें हुआ तुम भी तो मेरे साथ ही बदनाम बन गये अब है ये आलम हर शहर कूचे-ओ-गली में सामान-ए-हंसी आज सरेआम बन गये महफ़ूज़ रहो तुम खलिश हर गम-ओ-सितम से बरबादी से हमारी तुम गुलफ़ाम बन गये महेश गुप्त खलिश ८ जून २००३ २१ [OLD २२]. महफ़िल ने जब असूल पुराने बदल लिये—बिना तिथि की गज़ल, ई-कविता को १ अक्तूबर २००६को प्रेषित, ९ जून २००३--RAMAS महफ़िल ने जब असूल पुराने बदल लिये मज़बूर हो के हमने ठिकाने बदल लिये वो मय रही न आज, न साकी में ताब है लो दिलक़शी के हमने बहाने बदल लिये सांसों का साज़ है वही पर लय बदल गयी तो ज़िंदगी के हमने तराने बदल लिये आंखें वो नीमबाज़ जिन्हें ताकते रहे क्या कीजिये उन्हींने निशाने बदल लिये हासिल ख़लिश न हो सकी मंज़िल वो प्यार की हमने भी दिल के ख़्वाब सुहाने बदल लिये. महेश चन्द्र गुप्त खलिश ९ जून २००३ Ooooooooooooooooooo From: Laxmi N. Gupta <lngsma@rit.edu> Date: Oct 1, 2006 9:18 PM बहुत ख़ूब खलिश जी, बहुत खूब: "मन्ज़िल न दिल की हो सकी हासिल हमें खलिश प्यार की राहों ने फ़साने बदल लिये." लक्ष्मीनारायण 000000000000000000 From: Mona Hyderabadi <mona_hyderabadi@yahoo.co.in> Date: Oct 1, 2006 11:34 PM Khalishji, Bahut purasar misre hain: महफ़िल ने जब असूल पुराने बदल लिये लाचार हो के हम ने ठिकाने बदल लिये जिन नीमबाज़ आंखों से हटती न थी नज़र क्या कीजिये उन्हीं ने निशाने बदल लिये Ghazal Behre Mazaria me hai,221,2121,1221,212 jo khaaskar mushaairon me bahut chalti hai. In panktiyon me beher thik nahi lagti.Zara dekh lijiye. वो मय रही न अब न, अब साकी में ताब है ( na ab) हम ने भी आज अपने पैमाने बदल लिये (paimaane) खत्म न होगा कभी दुनिया का ये सफ़र(khatm na hogaa) गो ज़िन्दगी ने अपने तराने बदल लिये manzil मन्ज़िल न दिल की हो सकी हासिल हमें खलिश प्यार की राहों ने फ़साने बदल लिये.(pyaar kee raahon ne) Thodi see sadhaar se ghazal aur acchee ho jaaegee Sasneh, mona ००००००००००००००००००००००००००००० From: Mona Hyderabadi <mona_hyderabadi@yahoo.co.in> Signed-By: yahoogroups.com | Mailed-By: returns.groups.yahoo.com Reply-To: ekavita@yahoogroups.com To: ekavita@yahoogroups.com Date: Oct 2, 2006 9:05 PM mona_hyderabadi@yahoo.co.in Khalishji, Shukriya ke aap ne meri sujhaav ko sweekaar kiya. Main ne koshish kee hai ke kuch sudhaar karoon. Dekhiye 221,2121, 1221,212 महफ़िल ने जब असूल पुराने बदल लिये लाचार हो के हम ने ठिकाने बदल लिये OK Wo मय रही na aaj, न साकी में ताब है खुशरंग हम ने आज पैमाने बदल लिये (is me paimaane kaafiya nahi le sakte jo 222 hai jab puraane, Tikaane 122 hai) Yun ज़िन्दगी ने साज़ को रोका नहीं कभी ये और बात है कि तराने बदल लिये जिन नीमबाज़ आंखों से हटती न थी नज़र OK क्या कीजिये उन्हीं ने निशाने बदल लिये हासिल खलिश न हो सकी मन्ज़िल वो प्यार की OK हम ने भी आज दिल के फ़साने बदल लिये. Beher seekhna bahut mushkil nahi hai agar lagan ho. R.P.SharmaJ Mehrishji ki kitaab ke baare mejo maine bataaya tha, wo aapko behad laabhdaayak hogi, jaise mere liye hui thi.Magar kaafi practice bhi karni hogi.Jahaan tak hoha, main aapki madad kar sakti hoon. Sasneh, mona 0000000000 From: Mona Hyderabadi <mona_hyderabadi@yahoo.co.in> Date: Oct 3, 2006 2:47 PM Khalishji, Ab ghazal aur nikhar gayi hai aur beher me bhi hai.Mubaarak . Sasneh, mona २२. SAAL BIITE DIL SE MERE JAA NA PAAYE TUM, 9 June 2003 [Typed in Hindi. That’s better] saal biite dil se mere jaa na paaye tum shaam kii tanhaaii mein phir yaad aaye tum Har subah paayaa tumhein khayaalon mein dil ke paas Raat ko khwaabon mein aa kar muskaraaye tum Lagate ho apne hii jab tum jaa base ho duur Jaane kyon lagate the pahle kucch paraaye tum pyaar ham se behisaab thaa tumhein phir bhii umr bhar ham se rahe nazarein churaaye tum jab talaq tum saath the shikawe lage rahe kucch nahiin ho ab mohabbat ke siwaai tum thak gayaa huun zindagii kii raah mein Khalish kaash mil jaate kahiin nazrein bichhaye tum. MC Gupta ‘Khalish’ 9 June 2003 www.writing.com/authors/mcgupta44 Nice thoughts.... bahut achchaa likhaa hai ...bhaav aur shabd ..bahut hi achche hain... "Har subah paayaa tumhein khayaalon mein apne paas" sahaj aur saral...padhne waloN ke mann chhoo jaayeN aisii...aur bhi sunayiye pls.. Regards Astha २३. उन को हम से प्यार है ये खुद को समझाते रहे, १२ जून, २००३ Hard copy available २४.कैसे जीयें ये बहुत देर से अन्दाज़ आया, १५ जून २००३ कैसे जीयें ये बहुत देर से अन्दाज़ आया ज़िन्दगी जी भी चुके आज समझ राज़ आया नहीं मंज़िल है कोई यूं ही चला जाता हूं खाकेराह को भी तरस मुझ पे बहुत आज आया ठोकरें खा के ज़माने की मेरे दिल ने कहा क्यों न मैं शौक-ए-मोहब्बत से कभी बाज आया जिन को हासिल है ज़माने में ख़ुशी के तोहफ़े उन का रुखसार नज़र किसलिये ग़मसाज़ आया क्या कहें कौन खता उन से ख़लिश कर बैठे मिलने आया है मग़र दिल से वो नाराज़ आया. १५ जून २००३ २५. उदास हूं मगर मुझे उदासियों का गम नहीं, 18 June 2003 २६. SAUDA, --This has been much changed in Hindi version Main udaas huun to sahii magar mujhe is ka koii ghum nahiin Dil tuutane ke baad ab jhuthii wafaa ka bharam nahiin Yeh dil bhii shai ajeeb hai jo lage to de hai dard-e-ishq Aur tarq-e-ishq pe de hai ye tadap bhii dil ko kam nahiin Kahaan dil ko le ke jaaiye, ise kis tarah bahalaaiye Jo sakuun dil ko de sake, kahiin aisaa koii sukhan nahiin Dhadakataa hai dil seene mein, to kareinge pyaar hazaar baar Koii tohmatein lagaaye kyuun, koii dil lagaanaa zuram nahiin Dil de chuke unhein Khalish, aur un kaa dil bhii le liyaa Saudaa sar-e-bazaar huaa, milaa kisii ko maram nahiin. MC Gupta ‘Khalish’ 18 June 2003 २७. MAT PUUCHH MUJH SE DOST TUU, MUJHE DIL LAGAA KE KYAA MILAA, 18 June 2003 Mat puuchh mujh se dost tuu, mujhe dil lagaa ke kyaa milaa Ye dil ki daulatein hain dil jo na kho sakaa use kyaa milaa Ye nahiin zaruurii ke dil milein, aur ho bicchudnaa kabhii nahiin Parwaanaa shamma mein kho gayaa, koii soche to kise kyaa milaa Ye to zindagii kii raah hai, yahaaan gul bhii hain aur khaar bhii Ye naseeb apnaa apnaa hai, kise gul-o-khaar mein kyaa milaa Har simt gar insaan dhuundhegaa mahaz bulandiyaan Gahraaiyon mein na jaa sakaa, use zindagii se kyaa milaa Ye kaarvaan na ruke Khalish ki kadam badhaate jaaiye Har ek kadam pe na puucchiye ye kadam uthaa ke kyaa milaa MC Gupta ‘Khalish’ 18 June 2003 २८. TAKHALLUS KA TAKAAZAA, 22 June 2003 Khalish huun main, nahiin khaalis Faqt insaan maamuulii Na de kar naam khaalis ka Chadhaao mujh ko tum suulii Kisii ko naam paak-o-saaf Zamaanaa jab ye detaa hai Sazaa maasuumiat kii wo Samajh lo us ko detaa hai Kahaa aurat ko devii pyaar kii Karunaa kii muurat hai Aaraam auron ko detii hai Khud ko kyaa zaruurat hai Na us ko dard hotaa hai Na hii taqleef hotii hai Maaro yaa jalaao sirf wo Uupar se rotii hai Bahut bardaasht ke kaabil Use rab ne banaayaa hai Rah kar bhuukhii to us ne Motaapaa hii ghataayaa hai! Mujh ko aaj khaalis naam Jo insaan dete hain Yakeenan suufii banane kii Hidaayat mujh ko dete hain Aye mere dost mujh ko bhii Saakii-o- jaam pyaare hain Zindagii kii tanhaaii mein Yahii to bas sahaare hain Nahiin darkaar, samhaalo In apne khitaabon ko Karo khaalis na Khalish ke Bahut rangeen khwaabon ko. MC Gupta 22 June 2003 www.writing.com/authors/mcgupta44 [On being told by friends that let him not be only Khalish, but, also, khaalis] TAKHALLUS KA TAKAAZAA [the call of my nom de plume] Khalish huun main, nahiin khaalis Faqt insaan maamuulii Na de kar naam khaalis ka Chadhaao mujh ko tum suulii [I am Khalish, not jkaalis, which means pure. Please don’t give me a pure name and then the cross] Kisii ko naam paak-o-saaf Zamaanaa jab ye detaa hai Sazaa maasuumiat kii wo Samajh lo us ko detaa hai [Whenever people give a noble name to a person, it is often a prelude to inflict punishment on him] Kahaa aurat ko devii pyaar kii Karunaa kii muurat hai Aaraam auron ko detii hai Khud ko kyaa zaruurat hai [A good example is that of a woman. Man has labeled her as the goddess of love, as kindness incarnate, one who gives comfort to others. Why should she need comfort herself?] Na us ko dard hotaa hai Na hii taqleef hotii hai Maaro yaa jalaao sirf wo Uupar se rotii hai [She certainly does not feel pain or suffering. You may thrash her or even burn her; all those tears are only superficial]. Bahut bardaasht ke kaabil Use rab ne banaayaa hai Rah kar bhuukhii to us ne Motaapaa hii ghataayaa hai! [God has bestowed her with a very high level of tolerance. Even when she remains hungry, that is merely her conscious device to reduce weight]. Mujh ko aaj khaalis naam Jo insaan dete hain Yakeenan suufii banane kii Hidaayat mujh ko dete hain [Those who give me the label of pure are certainly keen on instructing me to become a sufi]. Aye mere dost mujh ko bhii Saakii-o- jaam pyaare hain Zindagii kii tanhaaii mein Yahii to bas sahaare hain [O my friend, I too love wine and women / bar-maid. In fact, only these are what give me support in this lonely life of mine]. Nahiin darkaar, samhaalo In apne khitaabon ko Karo khaalis na Khalish ke Bahut rangeen khwaabon ko. [Come on, I have no need for these noble appellations of yours; please take them back.Don’t make khaalis / pure out of Khalish and, thereby, deprive him of his colourful dreams]. MC Gupta 22 June 2003 २९. होठौं को छूने से पहले प्याला छूट गया, 23 June 2003 ३०. ZAHAR KAA GHUUNT, [Hindi version is better] Haath aane se pahale meraa paimaanaa chhuut gayaa Mulaakaat se pahale meraa mehboob ruuth gayaa Nazaron ke aaiine mein sochaa, khud ko dekh luun Dekhane se pahale meraa aaiinaa tuut gayaa Baad intezaar aayii mere dil mein thii bahaar Saayaa koii anjaan merii bahaar luut gayaa Kyaa kyaa sajaaye khwaab kuuche mein nasiib ke Maanind khwaab ke meraa nasiib phuut gayaa jam-e-mohabbat pii chuke to yuun lagaa jaise Zahreelaa Khalish halak mein mere ghuunt gayaa MC Gupta ‘Khalish’ 23 June 2003 ३१. MUJHE PYAAR MEIN TERE KYAA MILAA, 3 July 2003 [Hindi version is better] Mujhe pyaar mein tere kyaa milaa, kyaa ye pyaar ek merii bhuul hai Tu ne pyaar mein mujhe jo diyaa, mujhe ghum wo teraa kabuul hai Tujhe dil mein apne bithaayaa thaa, kucch mere bhii armaan the Wo sabhii bikhar ke raha gaye, ab zikr un kaa fizuul hai Mujhe tum se koii gilaa nahiin, tum kyon chalo mere saath hii Haasil tumhein hai gulistan, haasil mujhe bus dhuul hai Kabhii dikh gaye jo raah mein, bach ke nikal jaayenge hum Wo thaa Khalish ek khaar jo, sochaa thaa hum ne phuul hai. MC Gupta ‘Khalish’ 3 July 2003 ३२. ZINDAGII KE RAASTE, 3 July 2003 Ye hain zindagii ke raaste, ye zindagii se alag nahiin Kyon in se yuun ghabaraaiye, kyaa zindagii ki talab nahin In raaston pe chalegaa jo, wahii zindagii jee paayegaa Gar mushkilon se saham gaye, chalne kaa koii sabab nahiin Ye na sochiye, mile khaar jo, to zindagii mein kyaa milaa Phuulon mein hii jo gar jiye, jeene kaa koii garab nahiin Phalasphaa hai ye zindagii, aur raaste kitaab hain Samajh aayegaa in ke bagair, phalasphe kaa matlab nahiin In raaston par chal pade, manzil kii jab talaash mein Apnaa lo tum in ko Khalish, maano ki ab koii ghar nahiin. MC Gupta ‘Khalish’ 3 July 2003 ३३. MERAA DILDAAR, 3 July 2003 puurii botal hi chadhaa ke mera dildaar aayaa us ko lautaayaa magar phir bhi kaii baar ayaa mai ki har waqt talab us ko yuun rahtii hai Ghar banaa ke mai-kade mein karaar aayaa Mujhe aaiine mein dekhaa to use chuumaa kiyaa Mujh se badh ke meri tasweer pe hi pyaar aayaa Yuun to mastaani bahut chaal thi mere aashiq kii Siidhe rakhnaa do kadam aaj hai dushwaar aayaa Jin ke diidaar ko ham raat bahut jaagaa kiye Haay saagar mein unhein meraa hi diidaar aayaa. MC Gupta ‘Khalish’ 3 July 2003 ३४. YEH HINDU HAI, WO MUSLIM HAI, KAB TAK YEH DAUR CHALEGAA YUUN, 8 July 2003 Hindi hard copy available Yeh hindu hai, wo muslim hai, kab tak yeh daur chalegaa yuun Kab tak ye saayaa mazhab kaa, sab kaa vishwaas chhalegaa yuun Nanhe bacche ko bachapan se, mazhab kaa zahar pilaate ho Kyaa taajjub ban kar mard jawaan, le kar talwaar ladegaa yuun Jab raam rahiim ke biich diwaarein uunchii chun dii jaayeingii Tab kyon na us ek maalik kaa chehraa dohraa jhalkegaa yuun Petrol chhidak ke railon mein, bhakton ko jalaayaa jayegaa To best bakery par un kaa, gandaa gussaa utaregaa yuun Badle ki aag mein kab tak in jai maataa kahne waalon ka Burke mein simtii bahnon ki ismat par haath uthegaa yuun O majhab ke thekedaaro, baa-karam tumhaare kitne din Ye firqaa-parastii ka aalam insaan ke dil mein rahegaa yuun Kucch sharm karo apne uupar, kucch khauf khudaa kaa tum khaao Ek roz Khalish aayegaa jab, na wazuud tumhaaraa bachegaa yuun. MC Gupta ‘khalish’ 8 July 2003 ३५ [OLD 32A]. पहचान-ए-मोहब्बत न मुलाकात से होती, ८ जुलाई, २००३ Mohabbat kii nahiin pehchaan mulaakaat se hotii, --?9 September 2003 Mohabbat kii nahiin pehchaan mulaakaat se hotii Hai waqt-e-rukhsat aankh ke jazbaat se hotii Chamak-o- rang to kaagaz ke phuulon mein bhi hote hain Kadr phoolaun kii un main band khushbuaat se hotii Wafaa ki kasm khaane ki rasam to sab nibaahte hain Wafaa kii asliyat maluum dil-e-barbaad se hotii Sacchhii dostii ka yuun to waadaa sab hi karte hain parakh us ki bahut mushkil magar haalaat mein hotii Khalish hum bhii mohabbat ke bahut parcham udaate gar Mohabbat duniyaa mein haasil dil-e-faryaad se hotii. • This ghazal was developed from the following Gujraati sher brought to my notice by a friend: Badho aadhar chey,enaa jati velaanaa jova par milan maa nathi hotaa mahobbat naa puravao [Everything depends one, how she/he looks back(at me) while going meetings doesnt convey the proof of love] ३६. YAAD, 25 July 2003 --Hard Hindi copy available. Jab terii yaad aatii hai badi behisaab aatii hai siah aur thandii raaton mein Koi shai muskaratii hai dil ke ghane andheron mein bijlii sii kondh jaatii hai nahiin milnaa to ab kabhi mumkin Terii suurat hi merii thaatii hai Tere gesuu bagair bhii ab to Ye umr kat hi jaatii hai Na sahii paas tu magar mere Jeevan kii ab bhii saathii hai Khalish shikwe se kyaa haasil Zindagii to guzar hi jaatii hai. MC Gupta 'Khalish' 25 July 2003 ३७. MANZIL, 13 August 2003 --Hindi hard copy, much changed, available haathon mein le ke jaam chhalkaataa chalaa gayaa bin piiye main nashe mein hi chhaataa chala gaya manzil khadii thi ain mere saamne lekin Par khud hi us se duur mein jaataa chalaa gayaa Tanhaaii mein jab yaad un ki be-tarah aayii Un ke khayaal dil se bhulaataa chalaa gayaa Mein un ke gham ko dil se bhulaane ke vaaste auron ke gham ko dil mein basaataa chalaa gayaa Duniyaa ke saamne to kabhii aankh nam na kii Ashkon ko tanhaaii mein bahaataa chalaa gayaa Raahon mein zamaane kii mujhe khaar hii mile Par paaon manzil tak mein badhaataa chalaa gayaa Kyaa kahiye Khalish thi merii manzil mujhe haasil Manzil ki tamannaa kaa iraadaa chalaa gayaa. MC Gupta 13 August 2003 ३८. दिल को मेरे कोई शै भाती नहीं-- १६ अगस्त २००३ दिल को मेरे कोई शै भाती नहीं नीन्द भी अरसा हुआ आती नहीं जाने वाला ज़िन्दगी से जा चुका आंख की लेकिन नमी जाती नहीं हैं कली तो ज़िन्दगी के बाग में मेरी ख़ातिर कोई मुस्काती नहीं दिल तो सीने में धड़कता है मग़र कोई सूरत दिल को उकसाती नहीं वो मेरे सीने में आतिश है ख़लिश जिस को अब मय भी बुझा पाती नहीं. महेश गुप्त खलिश १६ अगस्त २००३ Kyaa karuun dil ko mere koi bhii shai bhaatii nahiin Ek arsaa ho gayaa aankhon mein niind aatii nahiin Jaane waalaa zindagii se meri kab kaa jaa chukaa Aankh kii merii namii kyon ab talak jaatii nahiin Yuun to hain kaliyaan bahut is zindagii ke baagh mein Merii khaatir hi kalii koi bhii muskaatii nahiin Hai abhii in baajuon mein jor to puuraa magar Zor-e-aazamaaish kii fitrat dil ko uksaatii nahiin Le ke siine mein wo aatish aaj phirtaa hai Khalish Jis ko maikhaane kii saarii mai bujhaa paatii nahiin. MC Gupta ‘Khalish’ 16 August 2003 ३९. AAJ RONAA PADAA TO SAMJHE, 17 September 2003 Aaj ronaa padaa to samjhe, ashkon ki hakiikat kyaa hai Jab dil jal ke pighlaa hai, aansuu ka ruup liyaa haii Ek waqt thaa jab auron ke ashkon par ham hanste the Aur aaj ye aalam hai khud, ashkon se pyaar kiyaa hai Itraate the hum khud par, kahte the hamein khudaa ne Is faulaadii siine mein, dil bhii lohe kaa diyaa hai Naa-waakif dard se ab tak, dil thaa meraa bechaaraa Jab huii intahaa dil mein, aankhon se dard bahaa hai Insaan ke dard aur dil mein, rishtaahai ek buniyaadii Jis dil mein dard nahiin hai, nahaq wo Khalish jiyaa hai. MC Gupta ‘Khalish’ 17 September 2003 ४०. MUJH SE BAHUT DUUR JAA TO RAHE HO—posted to eb as reply on 15 Aug 05, 5 October 2003 Mujh se bahut duur jaa to rahe ho, mere paas phir laut kar aaoge tum khud pe bahut aaj itraa rahe ho, tanhaaii mein khud se bhee ghabaraaoge tum Abhii zindagii ke nazaare hain dilkash, duniyaa tumhaarii bahut hii hansiin hai Magar zindagii kii ye raahein kathin hain, in mein akele hi pacchtaaoge tum Fisal jaao raahon mein, khao jo thokar, to halke se tum mujh ko aawaaz denaa Jahaan par bhi hoge wahiin mere dil ko, tadaptaa tumhaare liye paaoge tum Duaa hai khudaa se salaamat raho tum, koii bhii balaa zindagii mein na aaye Main ye jaanatii huun ki ye dil meraa hai, ise phir mere paas hii laaoge tum. M C Gupta ‘Khalish’ 5 October 2003 ४१. MOHBBAT KII SUULII, 7 October 2003 Unhii se dil lagaa baithe jinhe apnaa nahiin sakte Zamaane ke asuulon se bhi ham takraa nahiin sakte Zamaanaa hai nahiin bas mein na bas mein dil hi hai meraa Kisii ko raaz bhi dil ka ham batlaa nahiin sakte Agar dil ko lagaanaa apne dil ke haath mein hotaa Kitaab-e-ishq mein majnuu ke charche paa nahiin sakte Sabab is pyaar ka ham se zamaanaa puuchhataa hai kyon Ye shai to ho hi jaatii hai, wajah samjhaa nahiin sakte Zamaane aaj do dil us jahaan ko kuuch karte hain Khalish dastuur-e-duniyaa jis jahaan tak jaa nahiin sakte. MC Gupta ‘Khalish’ 7 October 2003 ४२. US KI YAAD MEIN KUCCH AISAA GHULAA JAATAA HUUN, 9 October 2003 Us ki yaad mein kucch aisaa ghulaa jaataa huun Khud apnii yaad ko is dil se bhulaa jaataa huun Main huun ishq kii mahfil kaa bujhtaa charaag Aakhirii jaam-e-gam mahfil ko pilaa jaataa huun Parwaane hi shamma ka dam bharte hain Main jalaa bin kiye koi gilaa jaataa huun Kucch to taasiir meri wafaa mein hogii Raunaq-e-mahfil kucch aur jilaa jaataa huun Koi puuchhe pataa meraa falak kah denaa Khudaa hafiz teraa ho bhalaa jaataa huun Milne ka hasiin waadaa janm mein agle kar ke Khalish aaj chalaa jaataa huun. MC Gupta ‘Khalish’ 9 October 2003 ४३. BADAL GAYE, 9 October 2003 Wo riit riwaaz badal gaye Saaz aur aawaaz badal gaye Do din ki mohabbat mein un ke Nakhre andaaz badal gaye The naaz kabhi karte ham par Aaj un ke naaz badal gaye Le baithe meraa dil to magar un ke hi raaz badal gaye ek baar bataa dein wo itnaa kyon ho naarraz badal gaye khaaii hai chot wo is dil par Lo ham bhi aaj badal gaye. Chhodo ai Khalish is duniyaa ye Duniyaa ke taaj badal gaye. MC Gupta ‘Khalish’ 9 October 2003 ४४. Mein so raha tha niind mein kyon aa ke mujh ko jagaa diyaa, 4 October 2003 Mein so raha tha niind mein kyon aa ke mujh ko jagaa diyaa Mere khwaab kitne hasiin the kyon un pe pardaa giraa diyaa Sadke mein apne khwaab ke gham-e-zindagii se thaa bekhabar Kyon dil-fareb fazaaon ke aalam se mujh ko hataa diyaa Har asliyat se hayaat ki waakif huun mein kucch is tarah Khoyaa tha apne khayaal mein mujhe asl se kyon milaa diyaa Maanaa ki main muflis huun mera wazuud aakhir kucch nahiin Mere khwaab mein thiin daulatein, kyon wazuud un ka mitaa diyaa Mujhe maut kaa kucch gham nahiin jahaan jiine ke kaabil nahiin Main jaa chukaa thaa jahaan se mujhe kyon yahaan lautaa diyaa Taarikiyaan hi miliin Khalish mujhe raunaquon ke bazaar mein Mere khwaab mujh se yuun chhine ki hakiikaton ne rulaa diyaa. MC Gupta ‘Khalish’ 4 October 2003 ४५. BULAATE THE JAB HAM UN KO, WO HAM SE DUUR JAATE THE, 9 October 2003 Bulaate the jab ham un ko, wo ham se duur jaate the Jhukaate ham the sar wo sar jhatak ke ghuur jaate the Khade rahte the ham raahon mein par nazrein palat kar ke Guruur-e-husn wo apne nashe mein chuur jaate the Ishaare bhi kiye, aawaaz dii, bheje sandeshe bhii Sabhii ham koshishon se ho bade majbuur jaate the Hamaare paak, saadaa, muflisii dil ke jalaane ko Hamaare saamne saj dhaj ke wo pur-nuur jaate the Kabhii raahon mein bhuule se agar paayaa mukhaatib to Hazaaron naaz se ho kar bade magruur jaate the Chadhaane ko hamaarii kabr par wo phuul laye hain Tunak kar jo Khalish ham se maanind-e-huur jaate the. MC Gupta ‘Khalish’ 9 October 2003 एद कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है मैं भी रंगीन नज़ारों में समा सकता था मैं भी ग़ुरबत के अंधेरों में सिमटने की ज़गह अपने दिन रात को रंगीन बना सकता था कभी कभी मेरे चेहरे पे मलाल आता है मैंने क्यों अजनबी पाओं से भी कांटे नोचे किसलिये ज़ख्म सितमगर के भी सहला बैठा गैर की आंख से भी किसलिये आंसू पौंछे कभी कभी मेरे होठों पे हंसी आती है किसलिये अपनी ही नज़रों से बेगाना हो कर सारी दुनिया के किनारों से किनारा कर के- कुछ पुराने से असूलों का दिवाना हो कर दिल की राहों पे सफ़र कर के भला क्या पाया घर मेरा घर न रहा, प्यार की मंज़िल न मिली मैं बहारों से फ़िज़ाओं से चमन से भी गया न तो शोहरत ही मिली न मुझे दौलत ही मिली आज आलम है कि बस आखिरी ये लमहे हैं ज़िन्दगी की ये चुकी शाम हुयी जाती है कोई साथी न सहारा न कोई हमदम है आज हस्ती-ए- ख़लिश ख़त्म हुआ चाहती है. ४४. मेरे दिल में ये कई बार ख़याल आता है--RAS --sent to EK----९ जुलाई २००६ को प्रेषित, २४ अक्तूबर २००३, revised 5-11-08 मेरे दिल में ये कई बार ख़याल आता है मैं भी रंगीन नज़ारों में समा सकता था मैं भी ग़ुरबत के अंधेरों में सिमटने की ज़गह अपने दिन रात को रंगीन बना सकता था मेरे चेहरे पे कई बार मलाल आता है मैंने क्यों अजनबी पाओं से भी कांटे नोचे किसलिये ज़ख्म सितमगर के भी सहलाए थे किसलिये गै़र की आंखों से भी आंसू पौंछे मेरे होठों पे कई बार हंसी आती है किसलिये अपनी ही नज़रों से बेगाना हो कर सारी दुनिया के किनारों से किनारा कर के- कुछ पुराने से असूलों का दिवाना हो कर दिल की राहों पे सफ़र कर के भला क्या पाया मेरी दुनिया न बसी, प्यार की मंज़िल न मिली मैं बहारों से, फ़िज़ाओं से, चमन से भी गया न तो शोहरत ही मिली, न मुझे दौलत ही मिली आज आलम है कि बस आखिरी ये लमहे हैं आज इस ज़िन्दगी की शाम चुकी जाती है कोई साथी न सहारा, न कोई हमदम है आज हस्ती-ए- ख़लिश ख़त्म हुयी चाहती है. महेश गुप्त खलिश २४ अक्तूबर २००३ *** AAKHIRII LAMHE Kabhii kabhii mere dil mein khayaal aataa hai Main bhii rangiin nazaaron mein samaa saktaa thaa Mein bhii gurbat ke andheron se baahar aa kar Apne din raat pur-nuur banaa saktaa thaa Kabhii kabhii mere chehre pe malaal aataa hai Kyon gair ke paaon se bhii kaante noche Kyon zakhm sitamgar ke bhii sahlaaye kyon ajnabii aankhon ke bhi aansuu ponchhe Kabhii kabhii mere hothon pe hansii aatii hai Kyon khud se bezaar-o- begaanaa ho kar Saarii duniyaa ke kinaaron se kinaaraa kar ke Kisii anjaan tamannaa mein diwaanaa ho kar Dil ki raahon pe safar kar ke bhalaa kyaa paayaa Meraa ghar chhuut gayaa phir bhi manzil na milii Main gulshan se bahaaron se fizaaon se gayaa Na to shohrat paaii, na to daulat hii milii Ab Khalish aakhirii lamhe hain aur ye aalam hai Zindagii ki shaam huii jaatii hai Koi ham-dam koi sahaaraa koi saathii bhi nahiin Har tamannaa tamaam huii jaatii hai. M C Gupta ‘Khalish’ 24 Ocober 2003 ४७. Mujhe zindagii mein bahut kucchh milaa hai, 28 October 2003 mujhe zindagii mein bahut kucchh milaa hai mujhe zindagii se nahin kucchh gilaa hai hain tasliim mujhko ye gham zindagii ke bure kaam kaa to buraa hii silaa hai na kahnaa ki neki se kyaa faaidaa hai nek insaan kaa dil ek gulshan khilaa hai sukh-dukh hain jiivan mein milte sabhii ko ye gam aur khushii kaa hi ek silsilaa hai de do mujhe gham jo kucchh aur hon to nahin tuutne kaa ye dil kaa kilaa hai aadat si sahane ki gham pad gayee hai bahut baar ye dil ghamon se chhilaa hai MC Gupta ‘Khalish’ 28 October 2003 ४८. Meri zindagii se jaa to rahe ho, mere paas phir laut kar aaoge tum, 2 November, 2003 Meri zindagii se jaa to rahe ho, mere paas phir laut kar aaoge tum Hai taasiir merii mohabbat mein aisii, jo waadaa kiyaa hai nibhaaoge tum wazuud apnaa maine mitaa hi diyaa hai, jab se tumhein apnaa dil de diyaa hai hai dil ab tumhaaraa, samhaalo ya todo, magar tod kar phir na muskaaoge tum Kamsin kalii kii jubaan to nahiin hai, magar raundane par chataktii hai wo bhii Kalii mere dil kii kuchaloge to phir, sadaa iskii na phir bhulaa paaoge tum Ye rishtaa dilon ka hotaa hai naazuk, nazaakat ka is kii zaraa khyaal rakhnaa Ise thes pahunchaa ke zakhmon ko dil ke, taa-zindagii apne sahlaaoge tum. Jo tum pe lutaa ho na tum us ko luuto, nahiin dostii ke hain dastuur aise Khalish zindagii pyaar kii chaar din hai, bahut in ko kho kar ke pacchhtaaoge tum. MC Gupta ‘Khalish’ 2 November, 2003 4 ४९. Chale to gaye ho bahut duur mujh se, khayaalon mein phir bhi mere aaoge tum, 2 November, 2003 Chale to gaye ho bahut duur mujh se, khayaalon mein phir bhi mere aaoge tum viiraan kar ke merii zindagii ko, khwaabon ki duniyaa sajaaoge tum kyonkar mujhe tum se ho koi shikwaa, nibahnaa to koii rawaayat nahiin hai mujhe apne dil mein na chaaho na rakho, magar kaise dil se mere jaaoge tum Tumhaarii mohabbat se hi waastaa hai, fizaan hijr kii yaa mulakaat kii ho Tumhein hi faqt chaahaa hai mere dil ne, hakiikat ye kyuunkar mitaaoge tum Maanaa ki main huun nahiin khuubsuurat, magar mere dil mein jhaanko to dekho Dil ke har ek kone mein mere, taswiir se apnii takraaoge tum Palat ke mere paas gar tum na aaye, kabhi khatm ye intezaar ab na hogaa Khalish jo jahaan is jahaan se pare hai, palkein bicchhaaye wahan paaoge tum. MC Gupta ‘Khalish’ 2 November, 2003 www.writing.com/authors/mcgupta44 ५०. Main andhere mein akelaa hi thakaa aataa huun, 2 November, 2003 Main andhere mein akelaa hi thakaa aataa huun Saarii duniyaa se zudaa khud ko tanhaa paataa huun Do kadam saath chale, do lamahe mujh se baat kare Dhuundhataa aise rahbar ko chalaa jaataa huun Kyaa mere paas hai jo tum ko kabhii de paauun Main to muflis huun zamaane ka diyaa khaataa huun Main bhi ek roz shariifon mein shumaar hotaa thaa Soch kar buund in aankhon mein bhar laataa huun Merii haalat pe Khalish ashq bahaate kyon ho Main to khud apne hi ashkon se sharmaataa huun. MC Gupta ‘Khalish’ 2 November, 2003 www.writing.com/authors/mcgupta44 |