मन पाखी उड़ने को बेचैन
अब यह सोचता है
कहीं से सोने के पंख जो पाऊँ
आसमान में ऊंचा मैं भी उड़ जाऊं
चाँद को ताके जैसे चकोर
मैं भी देखूं आसमां की ओर
शायद कोई ओस की बूँद आये
प्यास अपनी में बुझाऊँ
कहीं से सोने के पंख जो पाऊँ
आसमान में ऊंचा मैं भी उड़ जाऊं
कभी सीधी सपाट सड़क के मानिंद
कभी नागिन सी बल खाती, इठलाती
कभी सहेली सी लगती है
कभी पहेली सी लगती है
ज़िन्दगी मुझे कभी समझ न आई
और उलझती जाए, जितना भी सुलझाऊँ
कहीं से सोने के पंख जो पाऊँ
आसमान में ऊंचा मैं भी उड़ जाऊं
नीले आसमान में जैसे उजले बादल
या फिर
गंगा में जलते हुए हज़ारों आरती के दिए
या फिर
मंदिर की घंटियों के बोल सुरीले
या फिर
नदी बन सागर से मिल जाऊं
या फिर
कहीं से सोने के पंख जो पाऊँ
आसमान में ऊंचा मैं भी उड़ जाऊं
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